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“आई लव यू!” कहते हुए संध्या का गला भर आया। उसने बड़े प्रयत्न से अपना गला साफ़ किया और स्वयं पर नियंत्रण किया।
“पता है आप मेरे कौन है?” भावुक माहौल था.. नहीं तो किसी न किसी तरह की चुहलबाजी ज़रूर करता।
“आप मेरे कृष्ण है! मेरे सम्पूर्ण पुरुष! जब ज़रुरत हुई तब प्रेमी, जब ज़रुरत हुई तब सारथी, और जब ज़रुरत हुई तब सखा! मैंने सच में कोई बहुत पुण्य के काम किए होंगे, जिसके कारण मुझे आप मिले।“
“बाप रे!”
“सच में!”
“आई लव यू!”
“आई लव यू टू!!”
मैंने संध्या को अपनी बाहों के घेरे में कस कर दुबका लिया – जैसे मेरा आलिंगन उसके लिए सबसे सुरक्षित स्थान बन जाय.. हम दोनों वैसे ही काफी देर तक सूर्यास्त का अद्भुत् नज़ारा देखते रहे। सूरज ढलने के साथ साथ ही धीरे धीरे सांझ का धुंधलका बढ़ने लगा, और उसके साथ ही आसमान में गहरे लाल, काले नीले इत्यादि रंग उभरने लगे। कई लोग अब जाने की तैयारी कर रहे थे और जो लोग रुके हुए थे, उनकी भी बस पार्श्व आकृति ही दिख रही थी।
“अभी कैसी हो जानू?” मैंने पूछा।
“मैं ठीक हूँ!”
“घर बात करना है?”
“मेरा घर तो आप हैं!”
“ओहो! मेरा मतलब माँ से? या नीलम से? ... बात करनी है वहाँ? वहां कॉल किए दो दिन हो गए शायद?”
“हाँ! मुझे तो ध्यान ही नहीं रहा! आपके संग तो मैं सब कुछ भूल गई हूँ!”
“अच्छी बात है... ये लो फ़ोन.. बात कर लो!”
“आप नहीं करेंगे?”
“अरे.. कॉल मैं ही लगा कर आपको दे दूंगा.. ओके?”
मैंने उत्तराँचल कॉल लगाया। चूँकि फ़ोन तो शक्ति सिंह जी के ही पास रहता है, इसलिए उनको ही उठाना था।
“हल्लो!” मैंने कहा..
“हल्लो रूद्र.. कैसे हैं आप बेटा?”
‘बेटा!’ रिश्ते में तो हम बाप-बेटा ही तो हैं! वो अलग बात है की उम्र में कोई खास अंतर नहीं है।
“जी.. पापा..” मैंने हिचकिचाते हुए कहा, “हम दोनों ठीक हैं..”
“स्वास्थ्य ठीक है आप दोनों का? मौसम कैसा है वहाँ?”
“स्वास्थ्य एकदम ठीक है... मुझे लगा था की ठन्डे गरम के कारण कहीं जुकाम न हो जाय, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यहाँ का मौसम तो गरम ही है.. चारों ओर समुद्र से घिरा है, इसलिए बारहों मास ऐसे ही रहता है यहाँ। .. और आप कैसे हैं? माता जी कैसी हैं?”
“हम सब ठीक हैं बेटा.. आप लोगो की बहुत याद आती है। बस और क्या!”
मैं इसके उत्तर में क्या ही बोलता! “लीजिये, संध्या से बात कर लीजिए..” कह कर मैंने संध्या को फ़ोन थमा दिया।
लाडली बेटी का फ़ोन आते ही वहां पर सब लोग आह्लादित हो गए होंगे – मैंने सोचा।
“पता है आप मेरे कौन है?” भावुक माहौल था.. नहीं तो किसी न किसी तरह की चुहलबाजी ज़रूर करता।
“आप मेरे कृष्ण है! मेरे सम्पूर्ण पुरुष! जब ज़रुरत हुई तब प्रेमी, जब ज़रुरत हुई तब सारथी, और जब ज़रुरत हुई तब सखा! मैंने सच में कोई बहुत पुण्य के काम किए होंगे, जिसके कारण मुझे आप मिले।“
“बाप रे!”
“सच में!”
“आई लव यू!”
“आई लव यू टू!!”
मैंने संध्या को अपनी बाहों के घेरे में कस कर दुबका लिया – जैसे मेरा आलिंगन उसके लिए सबसे सुरक्षित स्थान बन जाय.. हम दोनों वैसे ही काफी देर तक सूर्यास्त का अद्भुत् नज़ारा देखते रहे। सूरज ढलने के साथ साथ ही धीरे धीरे सांझ का धुंधलका बढ़ने लगा, और उसके साथ ही आसमान में गहरे लाल, काले नीले इत्यादि रंग उभरने लगे। कई लोग अब जाने की तैयारी कर रहे थे और जो लोग रुके हुए थे, उनकी भी बस पार्श्व आकृति ही दिख रही थी।
“अभी कैसी हो जानू?” मैंने पूछा।
“मैं ठीक हूँ!”
“घर बात करना है?”
“मेरा घर तो आप हैं!”
“ओहो! मेरा मतलब माँ से? या नीलम से? ... बात करनी है वहाँ? वहां कॉल किए दो दिन हो गए शायद?”
“हाँ! मुझे तो ध्यान ही नहीं रहा! आपके संग तो मैं सब कुछ भूल गई हूँ!”
“अच्छी बात है... ये लो फ़ोन.. बात कर लो!”
“आप नहीं करेंगे?”
“अरे.. कॉल मैं ही लगा कर आपको दे दूंगा.. ओके?”
मैंने उत्तराँचल कॉल लगाया। चूँकि फ़ोन तो शक्ति सिंह जी के ही पास रहता है, इसलिए उनको ही उठाना था।
“हल्लो!” मैंने कहा..
“हल्लो रूद्र.. कैसे हैं आप बेटा?”
‘बेटा!’ रिश्ते में तो हम बाप-बेटा ही तो हैं! वो अलग बात है की उम्र में कोई खास अंतर नहीं है।
“जी.. पापा..” मैंने हिचकिचाते हुए कहा, “हम दोनों ठीक हैं..”
“स्वास्थ्य ठीक है आप दोनों का? मौसम कैसा है वहाँ?”
“स्वास्थ्य एकदम ठीक है... मुझे लगा था की ठन्डे गरम के कारण कहीं जुकाम न हो जाय, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यहाँ का मौसम तो गरम ही है.. चारों ओर समुद्र से घिरा है, इसलिए बारहों मास ऐसे ही रहता है यहाँ। .. और आप कैसे हैं? माता जी कैसी हैं?”
“हम सब ठीक हैं बेटा.. आप लोगो की बहुत याद आती है। बस और क्या!”
मैं इसके उत्तर में क्या ही बोलता! “लीजिये, संध्या से बात कर लीजिए..” कह कर मैंने संध्या को फ़ोन थमा दिया।
लाडली बेटी का फ़ोन आते ही वहां पर सब लोग आह्लादित हो गए होंगे – मैंने सोचा।