Romance कायाकल्प

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“आई लव यू!” कहते हुए संध्या का गला भर आया। उसने बड़े प्रयत्न से अपना गला साफ़ किया और स्वयं पर नियंत्रण किया।

“पता है आप मेरे कौन है?” भावुक माहौल था.. नहीं तो किसी न किसी तरह की चुहलबाजी ज़रूर करता।

“आप मेरे कृष्ण है! मेरे सम्पूर्ण पुरुष! जब ज़रुरत हुई तब प्रेमी, जब ज़रुरत हुई तब सारथी, और जब ज़रुरत हुई तब सखा! मैंने सच में कोई बहुत पुण्य के काम किए होंगे, जिसके कारण मुझे आप मिले।“

“बाप रे!”

“सच में!”

“आई लव यू!”

“आई लव यू टू!!”

मैंने संध्या को अपनी बाहों के घेरे में कस कर दुबका लिया – जैसे मेरा आलिंगन उसके लिए सबसे सुरक्षित स्थान बन जाय.. हम दोनों वैसे ही काफी देर तक सूर्यास्त का अद्भुत् नज़ारा देखते रहे। सूरज ढलने के साथ साथ ही धीरे धीरे सांझ का धुंधलका बढ़ने लगा, और उसके साथ ही आसमान में गहरे लाल, काले नीले इत्यादि रंग उभरने लगे। कई लोग अब जाने की तैयारी कर रहे थे और जो लोग रुके हुए थे, उनकी भी बस पार्श्व आकृति ही दिख रही थी।

“अभी कैसी हो जानू?” मैंने पूछा।

“मैं ठीक हूँ!”

“घर बात करना है?”

“मेरा घर तो आप हैं!”

“ओहो! मेरा मतलब माँ से? या नीलम से? ... बात करनी है वहाँ? वहां कॉल किए दो दिन हो गए शायद?”

“हाँ! मुझे तो ध्यान ही नहीं रहा! आपके संग तो मैं सब कुछ भूल गई हूँ!”

“अच्छी बात है... ये लो फ़ोन.. बात कर लो!”

“आप नहीं करेंगे?”

“अरे.. कॉल मैं ही लगा कर आपको दे दूंगा.. ओके?”

मैंने उत्तराँचल कॉल लगाया। चूँकि फ़ोन तो शक्ति सिंह जी के ही पास रहता है, इसलिए उनको ही उठाना था।

“हल्लो!” मैंने कहा..

“हल्लो रूद्र.. कैसे हैं आप बेटा?”

‘बेटा!’ रिश्ते में तो हम बाप-बेटा ही तो हैं! वो अलग बात है की उम्र में कोई खास अंतर नहीं है।

“जी.. पापा..” मैंने हिचकिचाते हुए कहा, “हम दोनों ठीक हैं..”

“स्वास्थ्य ठीक है आप दोनों का? मौसम कैसा है वहाँ?”

“स्वास्थ्य एकदम ठीक है... मुझे लगा था की ठन्डे गरम के कारण कहीं जुकाम न हो जाय, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। यहाँ का मौसम तो गरम ही है.. चारों ओर समुद्र से घिरा है, इसलिए बारहों मास ऐसे ही रहता है यहाँ। .. और आप कैसे हैं? माता जी कैसी हैं?”

“हम सब ठीक हैं बेटा.. आप लोगो की बहुत याद आती है। बस और क्या!”

मैं इसके उत्तर में क्या ही बोलता! “लीजिये, संध्या से बात कर लीजिए..” कह कर मैंने संध्या को फ़ोन थमा दिया।

लाडली बेटी का फ़ोन आते ही वहां पर सब लोग आह्लादित हो गए होंगे – मैंने सोचा।
 
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संध्या का परिप्रेक्ष्य

कैसे सब कुछ इतनी जल्दी बदल जाता है! एक सप्ताह भर पहले तक ही मैं माँ पापा को छोड़ कर कहीं जाने की सोच भी नहीं सकती थी.. और आज का दिन यह है की उनकी याद भी नहीं आई! क्या जादू है! सहेलियों की बातों, कहानियों और फिल्मों में देखा सुना तो था की प्यार ऐसा होता है, प्यार वैसा होता है.. लेकिन, अब समझ में आया की प्यार कैसा होता है! प्यार का एहसास तो हमेशा ही नया रहता है - हमेशा ताज़ा!

पापा से कुछ देर बात करने के बाद माँ फ़ोन पर आई.. उनसे बात करनी शुरू ही की थी की ‘इनका’ हाथ मेरे स्तनों पर आ टिका! ‘हाय’ मेरे मुंह से अनायास ही निकल पड़ा। उधर से माँ ने पूछा की क्या हुआ.. अब उनको क्या बताती? मैं जैसे तैसे उनसे बात करने की कोशिश कर रही थी, और उधर मेरे पतिदेव मेरे स्तनों से खेल रहे थे – वो बड़े इत्मीनान से मेरे स्तन दबा और धीरे धीरे सहला रहे थे। चाहे कुछ भी हो, ऐसा करने से स्त्रियों के चूचक कड़े होने ही लगते हैं। मेरे भी होने लगे। शरीर में जानी पहचानी गुदगुदी होने लगी। मैं अन्यमनस्क सी होकर बाते कर रही थी, लेकिन सारा ध्यान उनके इस खेल पर ही लगा हुआ था। वे कभी मुझे चूमते, तो कभी मेरे बालों को सहलाते, तो मेरे स्तनों से खेलते! अंततः उनका हाथ मेरी पैंट के अन्दर और उनकी उंगली मेरी योनि की दरार पहुँच गई। उनके टटोलने से मैं बेबस होने लग गई.. माँ क्या कह रही थी और फिर कब नीलम फ़ोन पर आ गई, मुझे कुछ याद नहीं! मदहोशी छाने लगी। सच में मैं रूद्र की दासी हो गई हूँ.. अगर वो उस समय मुझे नग्न होने को कहते तो मैं तुरंत हो जाती... बिना यह सोचे की वहां पर और लोग भी उपस्थित थे। इतना तो तय है की मैं उनकी किसी बात का विरोध कर ही नहीं सकती!

खैर, ऐसा कुछ नहीं हुआ.. नीलम ने अपने जीजू से बात करने को कहा तो मैंने फ़ोन इनको दे दिया।

“मेरी एंजेल कैसी है?”

इन्होने प्रेम और वात्सल्य भरी बात कही.. एक बात तो है, ये जो कहते हैं, उनकी आँखे भी वही कहती हैं। न कोई लाग लपेट, और न कोई फरेब! सच्चा इन्सान!

उधर से नीलम ने कुछ बात कही होगी, तो ये मुस्कुरा रहे थे.. बहुत देर तक मुस्कुरा कर सुनने के बाद इन्होने कहा, “अरे तो फिर हमारे पास आ जाओ! दो से भले तीन! है न?”

फिर उधर से नीलम ने कुछ कहा होगा, जिसके उत्तर में इन्होने ‘आई लव यू टू’ कहा, और बाय कर के फ़ोन काट दिया।

“क्या बाते हो रही थीं जीजा साली में? रोमांटिक रोमांटिक... ईलू ईलू वाली!” मैंने ठिठोली करी।

“हा हा हा! अरे जो भी हो रही हो... आपको इससे क्या? हमारी आपस की बात है! आपको क्यों बताएँ? हा हा!” फिर कुछ देर रुक कर, “.. जानू, क्यों न एग्जाम के बाद वहां से सभी लोग यहीं बैंगलोर में रहें? नीलम की पढाई भी अच्छी जगह हो जायेगी.. और आपके माँ पापा भी आराम से रह लेंगे! क्या कहती हो?”

“आप को लगता है की माँ पापा आयेंगे यहाँ?”

“क्यों! क्या प्रॉब्लम है?”

“वो लोग बहुत पुराने खयालो वाले हैं, जानू! बेटी के घर का पानी भी नहीं पीते!”

“हंय! इसका मतलब वो लोग यहाँ आयेंगे तो कहीं और से पानी लाना पड़ेगा?”

“आप भी न... हमेशा मजाक करते रहते हैं! ठीक है, आप ट्राई कर लीजिए.. आ जाते हैं तो इससे अच्छा क्या?” मैंने कहा, और आगे जोड़ा, “... और अभी आप मेरे साथ क्या कर रहे थे? बदमाश! माँ और नीलम ने क्या कहा, मुझे कुछ याद नहीं!”
 
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बीच से मैंने सीधा मेडिकल शॉप का रुख लिया। संध्या के पूछने पर उसको बताया की उसके लिए सेनेटरी नैपकिन लेने जा रहे हैं। मुझे यह जान कर घोर आश्चर्य हुआ की उसको नैपकिन के बारे में हाँलाकि मालूम तो था, लेकिन उसका प्रयोग संध्या ने कभी नहीं किया था। कुछ देर तक उससे प्रश्नोत्तर करने के बाद सब कुछ समझ में आ गया। एक तो छोटा सा क़स्बा, और उसमें निम्न मध्यम वर्गीय और रूढ़िवादी परिवार! पुराने रूढ़िवादी विचार, रीति-रिवाज और अंध-विश्वासों को मानने के कारण उसकी माँ ने भी संध्या को वही सब सिखाया था।

बाद में और पढ़ने पर मुझे समझ आया की यह हालत खाली एक संध्या की ही नहीं है... देश की कम से कम सत्तर प्रतिशत लड़कियाँ, और महिलाएँ सेनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं करती हैं – या तो खर्च वहन नहीं कर सकने के कारण, और या तो अपने रूढ़िवादी विचारों के कारण! हालत यह है की भारत की अनगिनत महिलाएं और लड़कियाँ आज भी पीरियड के दौरान गंदे कप़ड़े का उपयोग करती हैं, जिसके कारण वे संक्रमण की चपेट में आ जाती हैं। ग्रामीण इलाकों में महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर की एक बहुत ब़ड़ी वजह यौनांग की साफ-सफाई न होना है।

जहाँ तक संध्या का प्रश्न है, पीरियड्स के दौरान उसके और नीलम के साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता है। दोनों लडकियां पूजाघर और रसोई से दूर रहती हैं। रक्त-स्त्राव रोकने के लिए रद्दी कप़ड़ों का इस्तेमाल करती हैं, जिससे संक्रमण की आशंका बढ़ जाती है। इस कारण से हर महीने तीन चार दिन पढने भी नहीं जा पाती। ऐसा नहीं है की संध्या के परिवार वाले उसके लिए सेनेटरी पैड खरीद नहीं सकते थे – सस्ते उत्पाद तो मौजूद ही हैं। लेकिन पुरानी परम्पराओं को जैसे का तैसा निभाना, और यह सोचना की दूकान पर जाकर पैड खरीदने से परिवार की प्रतिष्ठा को धक्का लगेगा.. यह दोनों सबसे बड़े कारण बने – न खरीदने के।

खैर, यहाँ पर जब हम मेडिकल शॉप पहुंचे, तो दुकानदार ने नैपकिन के पैकेट को अखबार में लपेटकर, काली पोलीथिन बैग में डाल कर दिया.. जैसे वह मुझे दारू बेच रहा हो! सच में! देश की महिलाओं को क्या कुछ सहना पड़ता है! दुकानदार से क्या बहस करता? बस, सामान लेकर वापस रिसोर्ट आ गए।

वापस आकर देखा तो रिसेप्शन पर मौरीन और आना खड़े थे... वहां पर उनसे कुछ देर बात चीत की। मौरीन ने मुझे आँख के इशारे से कुछ न कहने को कहा था, इसलिए मैंने किसी भी तरह से आना को यह अहसास नहीं होने दिया की मौरीन और हमारे बीच में कुछ भी हुआ था। वैसे भी यह कोई ऐसी बात नहीं थी जिसको मैं याद रखना चाहता।

रात में ऐसा कुछ उल्लेखनीय नहीं घटा। बस खाया पिया, और आराम से सो गए।


सवेरे उठा, तो अपने ऊपर एक अतिरिक्त भार महसूस हुआ। आँखें खुलीं तो देखा की संध्या मुझसे पूरी तरह चिपकी सो रही थी – करवट के कारण उसका बायाँ पाँव मेरे जांघों के ऊपर आराम कर रहा था। मैंने उस पर प्यार से हाथ फिराया तो समझ आया की वह पूर्ण-रूप से निर्वस्त्र है।

मैं मुस्कुराया, ‘बढ़िया!’

और उसको अपने आलिंगन में समेट कर उसके माथे पर जोरदार चुम्बन दिया। मेरी इस हरकत से उसकी नींद भी खुल गई। मैंने अपनी घड़ी में देखा.. सवेरे के सात बज रहे थे।

“उठो जानू! आज का प्रोग्राम क्या है?” मैंने संध्या के दोनों नितम्बों के बीच में अपना हाथ फिराते हुए पूछा। पांव मेरे ऊपर इस प्रकार रखने के कारण उसका योनि द्वार थोड़ा खुल गया था, इसलिए मेरी तर्जनी उंगली अनायास ही उसके योनि के अन्दर दो-तीन मिलीमीटर चली गई।

“उई अम्मा!” संध्या चिहुंक गई, “धत्त! आप भी न.. जब देखो तब इसी में घुसना चाहते हैं..” अपनी उनींदी आवाज़ में संध्या ने कहा।

“जानेमन, जब इसके जैसी नरमी, इसके जैसी गरमी और इसके जैसा स्वाद मिले, तो मैं कहीं और क्यों घुसूँ? यहीं न घुसूँ?” (मैंने ‘आपकी पारखी नज़र और निरमा सुपर’ वाले प्रचार की तर्ज पर अपना जुमला ठोंक दिया।)

“धत्त...!” वह शर्मा कर मेरे सीने में छुप गई।

“मेरी जान, मेरी ऐसी हरकतों में मेरी कोई गलती नहीं। तुम्हारी चूत वाकई बहुत खूबसूरत है!” मैंने सफाई पेश करी। उसने कोई उत्तर नहीं दिया... बस मेरे सीने में सर छुपा कर हंसने लगी।

“अच्छा, एक बात बताइए... आपको शेविंग करनी आती है?” मैंने पूछा।

“शेविंग करना? नहीं.... क्यों? मुझे क्या ज़रुरत है, शेविंग करने की? मुझे दाढ़ी थोड़े न आती है!”

“दाढ़ी नहीं... ये तो आती है न?” कह कर मैंने उसके योनि पर उगे बालों को उंगली से पकड़ कर खींचा – ऐसे नहीं की संध्या को दर्द हो, बस इतना जिससे संध्या को उनका एहसास हो जाय।

“हाय राम! इसकी शेविंग?”

“हाँ! और क्या? आपको अच्छे लगते है क्या ये बाल?”

“नहीं, ऐसे कोई अच्छे तो नहीं लगते!”

“तो फिर इनको साफ़ क्यों नहीं करती?”

“मैं कैसे साफ़ करूँ?”

“अरे! रेज़र से.. या फिर कैंची से!”

“बाप रे!”

“बाप रे?”

“और क्या? कहीं कट गया तो?”

“हम्म... तो ठीक है... चलो, मैं ही काट देता हूँ। क्या कहती हो?” मैं हंसने लगा।

“नहीं जी, रहने दीजिये! जैसी है, उसी से काम चलाइए!” संध्या ने मुझे चिढ़ाते हुए कहा।

“जानू, प्लीज! मैं इनको साफ़ कर देता हूँ। मैं शेविंग करने में एक्सपर्ट हूँ। साफ़ हो जायेगी तो फिर आप ही बोलोगी, की कितनी ख़ूबसूरत चूत है मेरी!”

“धत्त! न बाबा! मुझे शर्म आती है!”

“अरे भाड़ में गई शर्म! तो फिर तय रहा... नाश्ते के बाद आज मैं तुमको नहलाता हूँ... ओके? ठीक से! चलो उठो... जल्दी से नाश्ता करने चलते हैं...” कह कर मैं बिस्तर से उठा, और संध्या को भी उठाया। मैंने उठ कर कमरे की खिड़कियाँ खोल दीं और वातानुकूलन बंद कर दिया। आज भी मौसम अच्छा था – बढ़िया हवा चल रही थी। परदे खींच दिए, जिससे कोई कमरे के अन्दर यूँ ही आनायास न देख सके...
 
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फ्रेश हो कर और ब्रश करने के बाद नाश्ता समाप्त किया और जल्दी से अपने कमरे में चले आए।

मैंने अपने बैग से शेविंग किट निकाली – रिसेप्शन वाले दिन से मैंने अब तक शेविंग नहीं बनाई थी, इसलिए चेहरे पर कड़े बाल की ठूंठ निकल आई थी। मैंने जल्दी से अपनी शेविंग ख़तम करी – वैसे भी मुझे अपनी दाढ़ी बनाना बहुत ही ऊबाऊ काम लगता है। समय की बर्बादी! फिर रेजर में नए ब्लेड-कार्टरिज लगा कर संध्या को पुकारा,

“आओ.. मैंने तुमको नहलाता हूँ।“

संध्या ने सर हामी में हिलाया, और पहनने के लिए कपड़े तह कर के बाथरूम के अन्दर आई।

“ये क्या? नहाने के बाद कपड़े पहनने का इरादा है क्या?”

“क्यूँ जी? नहलाने के बाद बच्ची को नंगी रखने का इरादा है क्या आपका?”

“जानेमन शेविंग और नहाने के बाद ऐसी चिकनी हो जाओगी, तो खुद ब खुद नंगी होने का मन करेगा।“ मेरी बात सुन कर संध्या का चेहरा शर्म से सुर्ख लाल हो गया।


**********************************


संध्या का परिप्रेक्ष्य

जघन क्षेत्र की शेविंग जैसा तो मैंने अपने पूरे जीवन में कभी नहीं सुना। ये भी न जाने क्या क्या आईडिया लाते हैं... नित नए प्रयोग, नित नए अनुभव! बाप रे! क्या दिमाग है इनके पास!

बाथरूम में वैसे कोई स्टूल या कुर्सी तो थी नहीं, इसलिए मैं खुद ही टॉयलेट के कमोड की सीट पर कवर रख कर के उसी पर बैठ गई। कपड़े उतारने का काम मेरे श्रीमान ने ही कर दिया। इस समय मैं नितांत नग्न थी, और मन ही मन सोच रही थी की कैसा अनुभव होगा! न जाने कैसे दिल में हमारे प्रथम मिलन के पहले होने वाला अनजान भय घर कर गया। फिर मैंने सोचा की ये हैं, तो फिर क्या डर? मैंने अपने पांव यथा-संभव खोल दिए, जिससे इनको मेरी योनि के सारे हिस्से में अभिगमन करने में आसानी हो। उन्होंने मुझको ऐसे ही बैठे रहने को कहा, और फिर अपनी शेविंग क्रीम और ब्रश की सहायता से मेरी योनि पर देर तक ढेर सारा झाग बनाया। उन्होंने समझाया की वह इसलिए ऐसा कर रहे हैं जिससे मेरे बाल पूरी तरह से मुलायम हो जाएँ। वो सब तो ठीक है, लेकिन समस्या यह थी की इनके शेविंग ब्रश की मेरी योनि पर मीठी मीठी रगड़ाई और ठन्डे ठन्डे पानी के स्पर्श से मेरा मन बेबस हुआ जा रहा था। ‘बैजर हेयर’ हाँ... शायद यही बताया था... किसी जानवर के बाल से बना हुआ था ब्रश! मुलायम! अनजाने ही मेरी टाँगे और खुलती चली गईं...

“वेल,” उन्होंने मेरी उत्तेजना ज़रूर कह्सूस करी होगी.. लेकिन फिर भी बिना किसी भाव के कहा, “थैंक यू! इससे शेव करने में ज्यादा आसानी होगी!”

फिर उन्होंने रेजर की मदद से सावधानीपूर्वक धीरे धीरे मेरी योनि पर से बाल की परत हटाने का उपक्रम आरम्भ किया। कभी वे त्वचा को इधर खींचते तो कभी उधर, कभी फैलाते, तो कभी दबाते, तो कभी योनि के दोनों होंठों को उँगलियों से फैलाते। उनके लिए यह शायद सिर्फ शेविंग करना हो, लेकिन उत्तेजना के मारे मेरी हालत खराब हुई जा रही थी। बहुत ज्यादा बाल नहीं थे, इसलिए कोई पांच मिनट के बाद उन्होंने अपना काम समाप्त कर दिया... कमरे की हवा का स्पर्श मेरी योनि ठंडा ठंडा महसूस हो रहा था, इसलिए मुझे समझ आया की मेरी योनि पूरी तरह बाल-विहीन हो गई है। लेकिन उन्होंने मुझे इसको देखने से मना कर दिया – कहने लगे की जब मैं कहूं, तभी देखना। ठीक है! इंतज़ार और सही!

उन्होंने काम होने के बाद एक छोटे तौलिये से मेरी योनि पोंछी और कहा, “अरे वाह जानेमन! हाय! मैं मर जावां!”

इनकी इस निर्लज्ज उद्घोषणा से मैं बहुत शर्मा गई... लेकिन फिर भी उत्सुकतावश मैंने नीचे देखने की कोशिश करी। लेकिन उन्होंने फिर से मना कर दिया और कहा की अब मैं तुमको नहलाऊँगा। उन्होंने मेरी कलाई पकड़ कर मुझे कमोड से उठाया और फिर बाथरूम के नहाने वाले स्थान पर ले गए। उन्होंने पानी का फौव्वरा चलाया और खुद भी निर्वस्त्र होकर मेरे साथ शामिल हो गए। हम नहाने के लिए रिसोर्ट के साबुन का प्रयोग नहीं कर रहे थे – ये ही न जाने कौन सा बेहद सुगन्धित साबुन लाये थे।

खैर, रूद्र ने बड़े इत्मीनान से मेरे पूरे शरीर पर साबुन रगड़ा – ख़ास तौर पर मेरे बगल में, मेरे स्तनों पर और मेरी योनि और नितम्बों के बीच के हिस्से पर!

“ज़रा अपने पैर खोल कर सीधी खड़ी हो जाना तो.. तुम्हारी चूत और गांड की सफाई कर देता हूँ।“

मुझे उनकी गन्दी भाषा सुन के बुरा तो लगता है, लेकिन एक तरह की उत्तेजना भी आती है। अब इस विरोधाभास की व्याख्या कैसे करूँ, समझ नहीं आता।खैर, उनके आदेश का पालन करते हुए मैं अपनी टाँगे खोल कर सीधी खड़ी हो गई.. और उनकी उंगलियाँ निर्बाध रूप से मेरी योनि, उसके भीतर और मेरी गुदा के भीतर सफाई के बहाने सेंध लगाने लगीं।

“आह! क्या कर रहे हैं..!?”

“चुप!” उन्होंने मीठी झिड़की लगाई।

इस क्रिया के दौरान उनका खुद का लिंग खड़ा हो गया.. मैंने हाथ बढ़ा कर उसको पकड़ने की कोशिश करी।

“नहीं.. अभी नहीं..” कह कर उन्होंने मुझे रोक दिया।

उन्होंने खुद पर भी साबुन लगाया और फिर हम दोनों साथ में फौव्वारे के नीचे नहाने लगे। उसमे ज्यादा समय नहीं लगा। उन्होंने एक बड़ी तौलिया उठाई और पहले मेरा और फिर अपना शरीर पोंछ कर मुझे वापस बेडरूम में ले आये, और मुझे बड़े शीशे के सामने खड़ा कर बोले,

“अब देखो..!”

शीशे के सामने खड़े हुए मैं अपने को निहारती हूँ - मेरा स्वयं का अनावृत्त शरीर! एक पल को मैं खुद को पहचान ही नहीं पाती हूँ... कब देखा है मैंने खुद को इस तरह? इतने इत्मीनान से? न तो एकांत मिलता है और न ही इस प्रकार के संसाधन! ऐसा लगा की आईने में दिखने वाली लड़की मैं नहीं हूँ। यह एक कमसिन और बाल-रहित योनि वाली लड़की थी - जैसे कोई छोटी बच्ची!

हे भगवान्! मेरी योनि के होंठों के सिलवटें साफ़ साफ़ दिख रही थीं। ऐसे तो मैंने इनको कभी नहीं देखा था। ऐसे लग रहा था की जैसे उनकी नुमाइश लगा दी गई हो। बाप रे! अपने आपको इतनी नंगी मैंने कभी नहीं महसूस किया। मैंने शर्मा कर अपनी योनि को अपने हाथों से छुपा लिया और कहा, “मुझे बहुत शरम आ रही है।“

युवा वक्ष, छोटे कंधे, गोलाकार नितंब, और केशों से टपकती पानी की बूंदें...! मैं खुद पर मुग्ध हुई जाती हूँ... खुद के शरीर पर! इतनी खूबसूरत हूँ क्या मैं... सचमुच? क्या सचमुच रूद्र रोज़ निर्बाध इसी सौन्दर्य का पान करते हैं? मैंने कनखियों से उनकी तरफ देखा... उनकी आंखों में मेरे लिए कामना थी - उद्दीप्त कामना! एक चाहत थी - उद्दाम चाहत...!

“मज़ा आया, जानेमन?”

उत्तर में मैं सिर्फ मुस्कुराई...

“अब बताओ... इस बच्ची को नंगा नहीं, तो फिर कैसे रखा जाए?” उनकी आवाज़ एक परिचित रूप से कर्कश हो गई थी... इस कर्कशता की मैं पहचानती हूँ.. वो खुद भी उत्तेजित थे – मुझमें आसक्त!

“आओ इधर और बिस्तर पर लेट जाओ।“ उन्होंने अगला आदेश दिया।

मैं बिस्तर की तरफ जाते हुए देखती हूँ की रूद्र अपने बैग से किसी प्रकार की बोतल निकाल रहे थे। मैं लेट जाती हूँ और वे मेरे पास आकर कहते हैं, “तुम्हारी स्किन ड्राई हो गई होगी। मैं क्रीम लगा देता हूँ.. अच्छा लगेगा!”

मैं मूर्खों के जैसे पूछती हूँ, “आप मेरे पूरे बदन पर क्रीम लगायेंगे?”

“बस देखती जाओ...”
 
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रूद्र मेरे सर के नीचे दूसरी सूखी तौलिया रख देते हैं, जिससे बिस्तर गीला न हो और फिर अपनी हथेली में ढेर सारी क्रीम लेकर मेरे स्तनों, हाथों और पेट पर धीरे धीरे रगड़ देते हैं। अगला राउंड मेरी जांघों और पैरों का था। फिर उन्होंने मेरी योनि को निशाना बनाया – क्रीम लगते ही हलकी सी चुनचुनाहट हुई। शायद शेविंग करने में कहीं कुछ कट गया होगा। मेरी सिसकियाँ निकल गई, लेकिन मैं उनको रोका नहीं।

उन्होंने तीन चार मिनट तक अपनी उँगलियों से मेरी योनि पर अच्छी तरह से क्रीम लगाया.. इतनी अच्छी तरह की मैं उसी बीच एक बार परम सुख भी पा गई। उन्होंने मुझे कुछ देर सुस्ताने दिया और फिर कहा,

“अभी पेट के बल लेट जाओ..”

मैं उनकी आज्ञापालन करते हुए पलट गई। उन्होंने पहले पीठ पर क्रीम लगाई और फिर पैर और जाँघों के पिछले हिस्से पर लगाई। माँ के बाद मुझे इतने अन्तरंग तरह से शायद ही किसी ने मालिश की हो... और मुझे वो तो याद भी नहीं! शरीर भर में सिहरन दौड़ गई। उसके बाद उन्होंने एक तकिया उठाकर मेरे जघन क्षेत्र के नीचे लगा दी। इससे यह हुआ की मेरे नितंब काफी उठ से गए।

‘क्या करने वाले हैं ये?’ मैंने सोचा।

“जानू, मेंढ़क के जैसे हो जाओ..”

मुझे समझ नहीं आया..., “मतलब? कैसे?”

रूद्र ने पीछे से ही मेरे पैर ऊपर की तरफ उठा दिए, इस प्रकार जैसे मेरे घुटने मेरे पेट के बराबर हो जाएँ, और हाथ को मेरे सर (मस्तक) के नीचे रख दिया। बहुत बेढब सी अवस्था थी... घुटने पेट के बराबर, पैर फैले हुए – मेरी योनि और ... गुदा दोनों ने खुल कर निर्लज्ज प्रदर्शनी लगा रखी थी इस समय।

“आप क्या करने वाले हो?” मैं बच्चे जैसे रिरियाई।

“श्श्श्हह्ह... कुछ देर शांत रहो.. अगर मज़ा न आए, तब कहना। ओके?”

मज़ा क्या आएगा? मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा है। एक तो जिस तरह से रूद्र ने रोज़ रोज़ मेरे अंग-प्रत्यंग की जाँच करी है, और जिस तरह का परिचय उनका मेरे गुप्तांगों से है, वैसा तो मुझे भी नहीं है। उन पर विश्वास करने के अतिरिक्त मेरे पास कोई चारा नहीं था। उनके ही निर्देशों पर मैंने अपनी टाँगे और चौड़ी खोल दीं...

‘क्या देखना चाहते हैं ये? भला ‘वो’ भी कोई देखने की चीज़ है?!’

रूद्र इस समय मेरे नितम्बों पर क्रीम लगा रहे थे.. कभी हथेली से, तो कभी उंगली से। मुझे कुछ कुछ संशय हो रहा था, उनके इरादों पर। लेकिन फिर भी मैंने सोचा की साथ देती हूँ, जब तक हो पाता है तब तक! जल्दी ही उनकी क्रीम से भरी उंगली मेरी गुदा-द्वार पर फिरने लगी और फिर अन्दर जाने लगी। हर बार जैसे ही उंगली अन्दर आती, स्वप्रतिक्रिया में मेरी गुदा का द्वार बंद हो जाता।

‘मेरी गुदा को भी भंग करना चाहते हैं क्या?’ मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा।

“क्या करना चाहते हो?” मैंने याचना भरी आवाज़ में कहा, और साथ ही साथ पीछे की तरफ मुड़ी। उनका तना हुआ प्रबल लिंग इस तरह से उठा हुआ था की मानो मेरी गुदा को ही देख रहा हो।

“जानू, थोड़ा वेट तो करो!”

उन्होंने कुछ और क्रीम उंगली पर लेकर मेरी गुदा में प्रविष्ट कराया और देर तक भीतर ही चलाते रहे। कुछ देर में मुझे गुदा पर अभूतपूर्व फैलाव महसूस हुआ... तुरंत समझ में आ गया की इस बार उंगली नहीं, उनका लिंग अन्दर जाने की कोशिश कर रहा है!

“न न नहीं..! प्लीज! वहां पर नहीं! प्लीज! मैं मर जाऊंगी!”

“जानू! एक बार ट्राई तो करते हैं?”

“नहीं! आगे से आपका मन भर गया क्या, जो आप पीछे डालना चाहते हैं? प्लीज प्लीज! मैं आपकी हर बात मानूंगी, लेकिन ये नहीं! मैं मर जाऊंगी सच में! आप उंगली ही डाल रहे हैं और उसी में मेरी जान निकल रही है।“ मैं बुरी तरह गिड़गिड़ा रही थी। इनका जो भी प्लान था, मैं उसमे भाग नहीं लेना चाहती थी।

“अच्छा ठीक है... ठीक है! मैं कुछ नहीं करूंगा! भरोसा रखो। सॉरी! तुमको दर्द देकर मुझे कोई मज़ा थोड़े ही मिलेगा!” उन्होंने मेरे नितंब सहलाते हुए भरोसा दिलाया। लेकिन मन में डर बैठ गया...

इतना सब होते हुए भी मैंने जो मेंढकी वाला आसन लगाया था, वह अभी तक लगा हुआ था। रूद्र मेरे पीछे आकर मुझ्ह्से चिपक गए और पीछे से ही मेरे स्तनों को पकड़ कर भींचने लगे। साथ ही साथ वह अपने कमर को कुछ इस तरह से चक्कर में घुमा रहे थे जिससे उनके लिंग का अग्रिम भाग मेरी योनि और कभी कभी गुदा पर छू जाता। जैसे ही मेरी योनि को उनका लिंग छूता, मेरा मन होता की एक झटके से उनके लिंग को अन्दर ले लूं.. लेकिन स्त्रियोचित संकोच और लज्जा मुझे रोक लेती। इसी पूर्वानुमान में मेरी योनि से रस निकलने लगा।

उन्होंने बहुत देर तक मुझे ऐसे ही सताया... और इस पूरे घटनाक्रम में मैं सोच रही थी और उम्मीद लगाए बैठी थी की कभी तो इनका धैर्य छूटेगा, और कभी तो वो मेरे अन्दर प्रविष्ट होंगे। यही सब सोचते हुए मैंने इतने में ही एक बार और चरमोत्कर्ष प्राप्त कर लिया।

‘क्या स्टैमिना है इनमें! लगता है एक जबरदस्त सम्भोग होने वाला है! एक तगड़ी चुदाई..!’ मन में कैसे कामुक विचार! अजीब सी मस्ती छाने लगी... इस समय मेरा अंग-अंग थरथरा रहा था, घुटनों में सम्हलने की ताकत ही नहीं बची थी.. इन्होने पीछे से मुझको थाम रखा था, इसलिए मैं अभी भी उसी अवस्था में टिकी थी.. नहीं तो अब तक गिर चुकी होती।

उनको मेरे चरमोत्कर्ष का पता अवश्य चला होगा, क्योंकि अब वो मेरी योनी को चाट रहे थे। उत्तेजना के वशीभूत होकर मैं अपने नितम्ब जोर जोर से हिलाने लगी। मेरी हालत बहुत बुरी थी। एकदम छंछा (निर्लज्ज औरत) जैसी हरकतें! इस समय रूद्र मेरी योनि के भगोष्ठों को खोलकर जीभ से अन्दर तक कुरेद और चाट रहे थे। न चाहते हुए भी मेरे गले से कामुक सिस्कारियां छूट गईं। उधर उन्होंने चूसना जारी रखा। कुछ ही देर में मैं दूसरी बार चरम आनंद को प्राप्त कर कांपने, और आहें भरने लगी। मेरे होशो-हवास सब गायब हो गए - उनका इस तरह चाटना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। इस बार रूद्र ने मुझे छोड़ दिया, तो मैं निढाल होकर बिस्तर पर गिर गई – इतनी भी ताकत नहीं बची की ठीक से लेट जाऊं.. बस उसी अवस्था में लेटी रही।
 
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मैंने देखा की रूद्र बैग में से कुछ और भी निकाल रहे थे... कोई शीशी! वापस आकर उन्होंने मुझे बिस्तर पर चित्त लेटा दिया और मेरी जांघे थोड़ा और फैला दीं। मैं तो निढाल पड़ी थी, उन्ही के रहमो करम पर! ऐसे नीचे से देखने पर रूद्र का तना हुआ लिंग दिख पड़ रहा था। ऐसा भयावह वह पहले दीं भी नहीं दिखा। निःसंदेह उसकी लम्बाई और मोटाई कुछ ज्यादा ही लग रही थी। उसकी नसें भी फूल कर मोटी हो रही थी, और उसका आगे का चमकदार गुलाबी भाग भी दिख रहा था। अपनी ताकत बटोर कर मैंने उस माँसल अस्त्र को पकड़ लिया। इतना गर्म! बहुत अद्भुत सी बात थी – नहाने के बाद संभवतः कमरे के वातानुकूलन के कारण उनके वृषण सिकुड़ कर उनके जघन क्षेत्र के काफी अन्दर छुप गए से मालूम हो रहे थे, लेकिन लिंग की अलग ही बात थी! इतना गर्म, और सामान्य उत्तेजना से भी अधिक उत्तेजित!

उन्होंने मुझे कुछ देर अपना लिंग पकड़ने दिया और फिर अलग होकर अपने काम के अगले हिस्से को अंजाम देने लगे। शीशी खोलकर उन्होंने मेरी योनि पर उड़ेल दिया।

“क्या... है.. यह?” मैंने टूटी फूटी कामुक आवाज़ में पूछा!

“हनी... यह हनी है!”

एक और प्रयोग! योनि एक स्वादिष्ट भोज्य भी बनायीं जा सकती है! उन्होंने उंगली से शहद को मेरी पूरी योनि पर फैलाया और फिर जीभ की नोक से धीरे धीरे चाटने लगे।

“आहह…!” अभी अगर मैं इस समय मर भी जाऊं, तो कोई दुःख न होगा! ऐसा सुखद एहसास! “हम्म्म्म” उनका मेरी योनि का यूँ भोग लगाना मुझे पागल किए जा रहा था। मन में इच्छा जागी की वो लगातार ऐसे ही चाटते रहें। अनायास ही मैं अपनी बची खुची ताकत लगा कर अपने नितम्बो को उठा उठा कर योनि को उनके मुंह में और पहुँचाने की कोशिश कर रही थी। इसी बीच मैंने देखा की वो अपने लिंग पर भी शहद लगा रहे थे। शहद लगाने के बाद वह मेरे ऊपर उल्टा होकर लेट गए.. लेट नहीं गए... लेकिन कुछ ऐसे की उनका लिंग मेरे मुँह की तरफ रहे, और उनका मुँह मेरी योनि के ऊपर! मैंने भी बिना किसी पूर्वाग्रह के उनका लिंग अपने मुँह में भर लिया।

‘स्वादिष्ट!’ मैं उनके शहद से चिपुड़े लिंग पर जीभ फेर फेर कर स्वाद ले रही थी, और रूद्र मेरी योनि का!

इतना मजा जीवन में कभी नहीं आया – मानों मैं स्वर्ग की सैर कर रही हूँ! मुझे तो किसी भी चीज़ का आभास नहीं था – बस यह की योनि के रास्ते से आनंद का उन्माद मेरे पूरे शरीर में फ़ैल रहा था। तीसरी बार मेरी योनि में जबरदस्त चिंगारी पनपी – इस बार मुझे वहां से द्रव छलकता महसूस हुआ... मेरा पूरा शरीर अकड़ने लगा। मैंने दोनों हाथों को बिस्तर पर पटक रही थी, और हांफ रही थी! बेबस... लाचार! लेकिन संतुष्ट!

रूद्र खुद भी न जाने कब से मुझे भोगने को तैयार थे, लेकिन सिर्फ मेरी ख़ुशी के लिए अभी तक खुद को जब्त किए हुए थे। लेकिन अब बस! वो मेरे ऊपर से उतरकर, मेरी दोनो टांगों को चौड़ा करके, और एक तकिये को उठाकर मेरे नितम्बों के नीचे लगा कर उनके बीच में बैठ गए। अपने लिंग को उन्होंने मेरी योनि पर सटाया, और दोनों हाथों से मेरी कमर थाम कर अपने लिंग को अनादर की तरफ धकेला।

“आहहह...” अन्दर इतनी चिकनाई हो गई थी की पहले ही वार में उनका ज्यादातर लिंग मेरी योनि में समां गया। उन्होंने फिर मेरे होंठों को चूमते हुए, पहले तो धीरे धीरे, और बाद में तेज़ गति से मुझे भोगना आरम्भ कर दिया। एक के बाद एक तीव्र रति-निष्पत्ति के बाद मेरी दशा निर्जीव जैसी हो गई थी। लेकिन उनके सम्भोग के तरीके में कुछ ख़ास बात थी, की कुछ ही देर में मैं भी अब कुछ होश में आकर अपने नितम्बों को उन्ही की गति से, धीरे धीरे ही सही, गति मिलाने लगी। कोई तीन मिनट के बाद अचानक ही उन्होंने सम्भोग की गति बढ़ा दी। मुझे भी अपने अन्दर एक और लावा बनता हुआ महसूस होने लगा! घोर आश्चर्य! ये चौथा होगा.. और इनका पहला!

मुझे एक और बार चरम सुख मिल गया। लेकिन ये नहीं रुके। निष्पत्ति के सुख के बाद मेरी सांसे अभी तक सम्भल भी नहीं पाई थी कि इन्होने मुझे अपने आलिंगन में भर लिया और बहुत तेज गति से धक्के चलाने लगे। ऐसे तो उन्होंने कभी नहीं किया। तीन चार बार तो मुझे चोट भी लग गई! फिर अचानक ही ये भी स्खलित हो गए – मुझे मेरे अन्दर बेहद गरम द्रव गिरता हुआ महसूस हुआ! गहरी साँसे भरते हुए रूद्र निढाल हो कर मेरे ही ऊपर गिर गए। हम दोनों देर तक अपनी साँसे नियंत्रित करते रहे। मुझे मूत्र की तीव्र इच्छा हो रही थी, लेकिन थकावट इतनी ज्यादा थी की हिलने का भी मन नहीं कर रहा था।

लेकिन रूकती भी तो कितनी देर! कुछ तो बात है – यौन संसर्ग के बाद न जाने क्यों मुझे मूत्र की तीव्र इच्छा होने लगती है। मैं कुनमुनाई। इनको जैसे तुरंत समझ आ गया।

“टॉयलेट जाना है?” इन्होने पूछा।

“हाँ.. जल्दी!” कहते हुए मैं मुस्कुराई। कितना कुछ बदल गया इतने ही दिनों में! अब कोई संकोच नहीं लगता!

“आओ मेरे साथ..” कह कर ये उठे और मुझे भी हाथ पकड़ कर बिस्तर से उठा लिया।

‘फिर कोई नया खेल क्या? बाप रे!’
 
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मैं ठीक से चल नहीं पा रही थी – एक तो मेरे पाँव अभी तक कांप रहे थे, और ऊपर से बहुत ज्यादा थकावट! इसलिए रूद्र ने मुझे सहारा देकर बाथरूम तक पहुँचाया। बाथरूम तक, लेकिन कमोड तक नहीं। वो मुझे नहाने वाले स्थान पर लेकर गए... मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैंने उनकी तरफ देखा, लेकिन जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैं बैठने लगी।

“रुको..” इनकी आँखों में एक बार फिर से एक शैतानी चमक जाग गई। मैं समझ गई कि अब मैं फिर से मरने वाली हूँ!

रूद्र वहीं बाथरूम की फ़र्श पर लेट गए, और मुझे इशारे से अपने ऊपर बैठने को कहने लगे।

“छी! आप भी न! न जाने क्या क्या करवाते हैं मुझसे!”

"अरे यार! क्या छी? एक बार मेरा कहा मानो.. मज़ा न आये तो फिर शिकायत करना!"

उनकी बात सुन कर मुझे हंसी आ गए! बच्चों जैसी जिज्ञासा, उन्ही के जैसी शैतानी, उन्ही के जैसी मासूमियत! उन्होंने मुझे हाथ से पकड़ कर अपने जघन क्षेत्र पर बैठाने में मेरी मदद करी। मैं क्या ही करती? मैं भी जैसे तैसे उन पर उकडूं बैठ गई – बहुत ही बेढब तरीका था.. लेकिन अब समझ आया की रूद्र क्या चाहते थे। एक तो मेरे उनके ऊपर इस तरह बैठने से मेरी योनि पूरी तरह से प्रदर्शित होती, और मूत्र उन्ही के ऊपर ही गिरता!

"जानू! आप श्योर हैं? मुझे बहुत जोर से आ रही है।"

उन्होंने सर हिला कर हामी भरी, “बिलकुल श्योर! शुरू करो।"

उन्होंने दोनों हाथ से मैंरे दोनों टखने पकड़ लिए और मैंने अपने दोनों हाथ उनके सीने पर टिका दिए – सहारे के लिए। दिक्कत यह है की कुछ देर अगर मूत्र को रोक लिया जाए, तो फिर तुरंत ही नहीं हो पाता – कुछ देर इंतज़ार करना पड़ता है। मैंने कुछ देर तक अपनी साँसे नियंत्रित करीं, और अपनी मांस-पेशियाँ कुछ शिथिल करीं।

मैंने अपनी आँखें मूँद लीं, और मूत्र करने पर ध्यान लगाया।

*************************************


मेरा परिप्रेक्ष्य

जैसा पहले भी किया था (याद है न? बुग्याल पर? झील के बगल?), आज पुनः कुछ नया करने की इच्छा जाग गई थी। ठीक हैं, गंदे हो जायेंगे, लेकिन तो क्या? बाथरूम में ही हैं न? फिर से नहा लेंगे!

मैंने देखा की संध्या की योनि के पटल खुल गए - वहां की माँस पेशियाँ रह रह कर खुल और बंद हो रही थीं (मूत्राशय को मुक्त करने का प्रयास)। सम्मोहक दृश्य!

कुछ ही पलों में मूत्र की धार छूट पड़ी। अनवरत धार! संध्या अभी राहत की साँसे ले रही थी। उसकी आँखें बंद थीं। गरम गरम द्रव मेरे शरीर पर पड़ा – अनोखा अनुभव! काफी गरम! मूत्र गिर कर मेरे सीने पर से होकर फ़र्श पर रिसने लगा। और उसकी गंध! कोई तीक्ष्ण गंध नहीं। लेकिन ऐसी भी नहीं जिसको मन-भावन गंध कहा जाय। खैर, कुछ देर के बाद संध्या का मूत्र त्यागना बंद हुआ। वह अभी भी आँखें बंद किये हुई थी - उसकी योनि की पेशियाँ सिकुड़ और खुल रही थीं और उसमें से मूत्र निकलना अब बंद हो चला था। इस अनुभव का एक असर मुझ पर हुआ – मेरा लिंग फिर से कड़ा होने लगा, और साथ ही साथ मुझे भी मूत्र की इच्छा होने लगी।

मैंने संध्या के कंधे पकड़े, और उसी के सहारे उठ कर पहले तो उसको गले से लगा लिया। संध्या खुद के ही मूत्र में सन गई। नहाने के अतिरिक्त अब कोई चारा नहीं था हम दोनों के ही पास। मैंने अपनी उंगली से उसकी योनि को कुछ देर टटोला, और फिर खड़ा हो गया।

संध्या ने प्रश्नवाचक दृष्टि पहले मेरे चेहरे पर डाली और फिर मेरे लिंग पर, जो की उचक उचक कर जैसे सन्देश दे रहा हो। इसके पहले की वह कुछ कहती, या कोई प्रतिरोध करती, मैंने भी अपनी मूत्र की धार छोड़ दी। पहला छपाका उसके चेहरे पर ही पड़ा – स्वप्रतिक्रिया स्वरुप उसने आँखें और मुँह को कस कर भींच लिया। और अपने एक हाथ के सहारे से फ़र्श पर ही थोड़ा पीछे झुक गई। लेकिन इससे वो बचने वाली तो थी नहीं। मुझे भी अपना ब्लैडर खाली करना ही था। और साथ ही साथ मैं खिलवाड़ के भी मूड में था। मैंने लिंग को पकड़ कर उसके पूरे शरीर को अपने मूत्र से नहला दिया। और कुछ देर बाद मैं भी खाली हो गया।

संध्या ने एक आँख खोल कर मुझे देखा, “छी गंदे! ये क्या है? बता तो देते!”

मैंने उत्तर में कुछ कहा नहीं। बस आगे बढ़ कर उसको फ़र्श पर लिटाया, और उसकी योनि को अपने मुंह में भर कर चूस चूस कर सुखा दिया। अब वह क्या ही शिकायत कर पाती भला? बस भावुक हो कर उसने मुझे जोर से अपने आलिंगन में जकड़ लिया और कहा, “आई लव यू!”

इस समय तक मैं एक बार पुनः सम्भोग के लिए तैयार हो गया था। इस बार मैंने न कोई औपचारिकता दिखाई, और न ही कोई फोरप्ले किया। बस इस समय संध्या को एक और बार ‘चोदने’ का मन था। एकदम पाशविक इच्छा! वासना की नग्न अभिलाषा!


*************************


संध्या का परिप्रेक्ष्य

यह मूत्र स्नान सुनने या सुनाने में भले ही बहुत ही गन्दा सा लगता हो, और संभव है की ज्यादातर युगल इसको नहीं आजमाते, लेकिन यह एक नए प्रकार का ही अनुभव होता है। मैं रूद्र की आँखों में वासना के डोरे साफ़ देख रही थी। अपने ऊदेश्य में स्पष्ट! इसमें प्रेमी जैसा भाव नहीं था – बस वही प्राचीन नर-मादा वाला भाव दिख रहा था। मतलब, आज तो मेरी जान निकल कर ही रहेगी!

उन्होंने मेरी बाईं टांग को अपने कंधे के ऊपर रखा और अपने लिंग को मेरी योनि के बीच रखा। मैंने उनके लिंग को पकड़ लिया, जिससे वह अपने मार्ग पर ही रहे। उन्होंने ऐसे जोर के धक्के के साथ मुझमें कभी प्रवेश नहीं किया! मेरी चीख निकल गई। मैं सम्हलती, उससे पहले ही उन्होंने दूसरा धक्का लगाया – मैंने देखा उनका लिंग और मेरी योनि दोनों आपस में चिपके हुए थे। मुझे दर्द हुआ! लेकिन मैं उसको पी गई – यह अनुभव भी सही।

मैंने महसूस किया की मेरी योनि उनके लिंग को मसल रही है। मेरी सांसे तेज़ हो गईं। रूद्र समझ तो रहे थे की मुझे दर्द हुआ है, लेकिन वो बस चार पांच सेकंड ही रुके। और फिर उन्होंने अपनी कमर हिलानी शुरु कर दी। उनका लिंग तेजी से मेरी योनि के अंदर-बाहर होने लगा। देखते ही देखते उनकी गति तेज़ होती चली गई। तेज़ गति के कारण लिंग का विस्थापन कम ही हो रहा था, लिहाज़ा, पूरे समय, मेरी योनि में उनका लिंग लगभग पूरा ही समाया रहा। मूत्र ने संभवतः अन्दर से काफी चिकनाई निकाल दी थी, इसलिए कुछ कुछ टीस सी उठ रही थी। लेकिन मैं क्या करती – रूद्र मुझे वाकई ‘चोद’ रहे थे।

चूंकि वो कुछ ही मिनटों पहले स्खलित हुए थे, इसलिए मुझे लगा की उनका दुबारा स्खलित होने अभी दूर था। लेकिन गति इतनी तेज थी की दस मिनट के अन्दर ही वो अपनी मंजिल पर पहुँच गए। आश्चर्य मुझे इस बात का हुआ की स्खलित होने के बाद भी उनका कडापन कम नहीं हुआ और उन्होंने मुझे दो और मिनट तक भोगा। और मुझे एक और घोर आश्चर्य तब हुआ जब मैं आज पांचवीं बार रति के उच्चतम शिखर पर पहुंची। पाशविक सम्भोग का ऐसा नंगा नाच! और इनकी कुशलता तो देखिए! न जाने कैसी भूख! लेकिन इतना तो तय है की मैं पूरी तरह अघा गई थी।

हम दोनों बहुत देर तक यूँ ही विभिन्न शारीरिक तरलों से सने हुए, आलिंगनबद्ध फ़र्श पर पड़े रहे। अंततः रूद्र ने उठा कर फ़व्वारा चलाया, और हम दोनों ने फ़र्श पर बैठे बैठे ही एक बार और नहाया। और फिर अपने अपने शरीर पोंछ कर बिस्तर पर लुढ़क कर गहरी नींद सो गए।
 
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अगले चार दिनों तक संध्या के पीरियड्स थे। यह समय हमने बीच पर टहलने घूमने, नौका-विहार करने, लैपटॉप और टीवी पर फिल्म्स इत्यादि देखने में बिताये। मौरीन और आना हमारे बहुत अच्छे दोस्त बन गए – हमारे, मतलब मेरे और संध्या दोनों के। संध्या उन दोनों की ही आत्मनिर्भरता और बिंदास अंदाज़ से बहुत प्रभावित हुई, और उनसे उनके काम, जीवन इत्यादि के बारे में कई बार बातें करीं। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैंने उनके साथ दो बार स्कूबा डाइविंग करी।

स्कूबा डाइविंग बहुत ही अधिक रोमांचल खेल है। मौरीन और आना, दोनों ने ही मुझे बताया की उनकी हर डाइविंग में नयापन होता है – एकदम नए अनुभव, नयी चुनौतियाँ! अंडमान में चहुओर फैले जल क्षेत्र में प्रवाल भित्ति (कोरल रीफ) जल-पर्यावरण प्रणाली का घर हैं! एक और बात है, अंडमान में बहुत कुछ जो बना है, वह ज्वालामुखी की गतिविधियों के कारण बना है। उनके कारण डाइविंग के दौरान अभूतपूर्व अनुभव होता है। हम समुद्र में करीब करीब साथ फीट तक अंदर गए। इस दौरान मैंने प्रवाल और उनमे रहने वाली अनेकानेक मछलियाँ और उनकी अनोखी दुनिया को बहुत नजदीक से देखा। वाकई, यह एक अलग ही दुनिया थी। खैर, मैं तो बस रंग बिरंगी मछलियों के झुण्ड, नीले पानी, और अपने कानों में पानी की गुलगुलाहट सुन कर रोमांचित हो गया! छोटे बड़े, हर आकार की मछलियाँ प्रचुर मात्रा में बिना रोक टोक तैर रही थी। पानी के भीतर फोटोग्राफी भी करी। मुझे बताया गया था की शार्क की भी कई सारी प्रजातियाँ यहाँ होती हैं, लेकिन दिखी एक भी नहीं!

संध्या और मैंने पहले स्नोर्केलिंग की थी – यूँ तो दोनों ही वॉटर स्पोर्ट हैं, लेकिन दोनों में काफी अंतर है। स्कूबा शब्द अंग्रेजी में सेल्फ कंटेंड अंडरवॉटर ब्रीदिंग अपरेटस (SCUBA) का शॉर्ट फॉर्म है। स्कूबा डाइविंग में ऑक्सीजन टैंक, तैराकी पोशाक और मास्क इत्यादि पहनकर पानी की काफी गहराई में उतरना होता है, जबकि स्नोर्केलिंग में छोटा मास्क पहना जाता है। सांस लेने के लिए इस मास्क का एक हिस्सा पानी की सतह से बाहर निकला रहता है, और तैराकी के दौरान तैराक सतह पर तैरता है, और मुँह की सहायता से सांस लेता है। स्कूबा डाइविंग एक बार में कम से कम आधे घंटे तक तो चलती ही है। स्नोर्केइलिंग में पानी के दो-तीन फीट अंदर ही जाते हैं, जबकि स्कूबा डाइविंग में तो लोग सौ फीट से भी अन्दर तक चले जाते हैं, और पानी की गहराई में उतरकर अन्दर के तमाम नजारों को करीब से देख सकते हैं। मैंने मन ही मन सोचा की स्कूबा डाइविंग की ट्रेनिंग ज़रूर लूँगा।

इतने में हमारे हनीमून का समय भी लगभग समाप्त हो गया और वापस आने का दिन भी पास आने लगा।

इस बीच मैंने संध्या के कॉलेज में कॉल कर के उसके प्रिंसिपल से बात करी। उन्होंने मेरी उम्मीद और सारी दलीलों के विपरीत संध्या को होम-स्कूल करने से मना कर दिया, और यह याद भी दिलाया की उसकी उपस्थिति कम हो जाएगी, और एग्जाम लिखने में दिक्कत होगी। फिर उन्होंने मुझे बताया की यदि वो अगले हफ्ते तक वापस आ जाय, तो उसको शीतकालीन अवकाश के पहले करीब चार हफ्ते मिल जायेंगे, जिसमें काफी कोर्स निबटाया जा सकता है। फिर वो छुट्टी में बंगलौर जा सकती है, और कोर्स रीवाइज कर सकती है। मैंने छुट्टी के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया की दिसम्बर के आखिरी सप्ताह में होगी, और जनवरी के मध्य तक चलेगी।

कोई बुराई नहीं थी.. मैंने मन में सोचा। वैसे भी संध्या बंगलौर में रुक कर क्या ही करती, इसलिए मैंने सोचा की वापस जा कर एक दो दिन में ही संध्या को उत्तराँचल भेज दूंगा। वो अपना अब तक का कोर्स भी कर लेगी, और घर वालो से मिल भी लेगी। उसके बाद तीन हफ्ते मेरे पास.. और फिर बोर्ड एग्जाम के बाद परमानेंट मेरे पास!! मैंने संध्या को बताया तो उसका मुँह उतर गया। रोने धोने की ही कमी थी बस.. लेकिन जैसे तैसे उसको समझाया बुझाया और राजी कर लिया।

खैर, रिसोर्ट में रहने के आखिरी दिन मैंने जो भी बिल था, वो भरा और फिर हेवलॉक द्वीप से विदा ली। क्रूज़ बोट से वापस पोर्ट ब्लेयर आ गए। शाम की फ्लाइट थी, सो विमानपत्तन पर ही खाना पीना किया, और यादगार के लिए कुछ सामान खरीदा। वीर सावरकर विमानपत्तन काफी छोटा है, और उसके लिहाज से वहां बहुत भीड़ होती है। उस दिन तो वहां ठीक से खड़े होने की भी जगह नहीं थी। खैर, वहां से उड़ान भरने के कोई छः घंटे के अन्दर, संध्या और मैं बंगलौर पहुँच गए।

घर पहुँचने के बाद हमने श्री और श्रीमती देवरामनी जी से मुलाकात करी। उन्होंने हमारा कुशलक्षेम पूछा, कुछ इधर उधर की बात करी.. और फिर अंत में यह टिप्पणी करी की हम दोनों ही कौव्वे जैसे काले हो गए हैं! मैं और श्री देवरामनी, दोनों इस बात पर खूब हँसे.. लेकिन श्रीमती देवरामनी ने अपने पति को मीठी झिडकी लगायी। खैर, मैं उनको बताया की दो दिन बाद संध्या को वापस उत्तराँचल भेज आऊँगा.. नहीं तो पढाई का बहुत नुकसान हो जाएगा। बेचारों को इस बात से बहुत दुःख हुआ, लेकिन इस बात से बहुत खुश हुए की एक महीने में ही संध्या वापस भी आ जाएगी।

घर में आकर मैंने पास के ही एक होटल से खाना माँगा लिया। संध्या चाहती थी की वह कुछ बनाए, लेकिन घर में कोई राशन पानी तो था ही नहीं... मैंने उसको कहा की कल हम दोनों मियां बीवी मिल कर लंच बनायेंगे, और पड़ोसियों को भी बुलाएँगे! मेरे इस सुझाव पर संध्या बहुत खुश हुई।

जब तक खाना आता, संध्या नहाने चली गई, और मैं हमारी देहरादून फ्लाइट के लिए टिकट बुक करने लगा। मजेदार बात यह दिखी की दो दिन बाद का टिकट, एक महीने के बाद वाले टिकट से सस्ता था! उसके बाद मैंने बॉस को फ़ोन करके कल के लंच के लिए आमंत्रित किया। उसके बाद मैंने अपने दोस्तों को बुलाया जो शादी में सम्मिलित हुए थे, और उनको साथ में खींची हुई तस्वीरें भी लाने को बोला। फिर अपने फोटोग्राफर को रिसेप्शन की तस्वीरें लाने को बोला। यह सब काम करने के बाद मैंने भी नहाया और इतने में ही खाना भी आ गया। दिन भर बहुत यात्रा हुई थी, इसलिए हम दोनों थक कर सो गए।

सवेरे मैं काफी जल्दी उठा। घर के पास ही सब्जी-हाट लगता है.. कभी कभी मैं वहां से सब्जियां लेता था। अच्छी बात यह है की वहां ताज़ी सब्जियां मिलती हैं। न जाने कितने ही दिनों बाद आज खरीददारी कर रहा था। वापस आते आते साढ़े सात बज गए थे – अभी भी सवेरा ही था। लेकिन वहां खरीदने वालो की भीड़ अच्छी खासी थी। वापस आते आते मैंने श्री देवरामनी को लंच पर आमंत्रित किया। घर आया तो देखा संध्या अभी उठने के कगार पर ही थी। उठते ही उसने पूछा, आज खाने में क्या पकाएँगे?
 
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एक बात आपको बता दूं, जब से उत्तराँचल – या यह कहिये की गढ़वाल से नाता जुड़ने वाली बात चली है, तब से मैंने वहां की ज्यादा से ज्यादा बाते जानने का ध्येय बना लिया है। खासतौर पर वहां के खाने का। जब मैंने संध्या को बताया, की क्या बनने वाला है, तो वह बड़ी खुश हुई। आखिर, मैंने आज के लंच के लिए गढ़वाली और अवधी खानों का कोर्स तैयार किया था। लंच की तैयारी शुरू करने से पहले, मैंने संध्या के तैयार होते होते हम दोनों के लिए आलू सैंडविच, और चाय तैयार कर दी।

“बाप रे! आपको तो कुकिंग भी आती है!”

“बिलकुल आती है.. आपको क्या लगा? इतने दिन ऐसे ही सर्वाइव कर लिया मैंने?”

“मुझे तो मालूम ही नहीं था!”

“प्रिये, पति के गुण धीरे धीरे मालूम होने चाहिए। इससे प्रेम में प्रगाढ़ता आती है।“ मैंने फ़िल्मी डायलॉग बोल कर ठिठोली करी।

“ओके, प्राणप्रिय! तो फिर तैयारी करें?” संध्या ने भी मेरी ठिठोली में अपना जुमला भी जोड़ा।

रसोई शुरू करने से पहले कपडे इत्यादि वाशिंग मशीन में धोने में डाल दिए, जिससे कल की यात्रा से पहले कोई दिक्कत न हो।

हमेशा से कहा जाता है की पति के दिल का रास्ता पेट से होकर गुजरता है। मेरे ख़याल से यह बहुत ही गैर-जिम्मेदाराना सोच है, और खाने की तैयारी का सारा ठीकरा स्त्रियों के सर पर पटकने जैसा है। मेरा मानना यह है की यदि खाने का शौक हो, तो बनाने में भी पतियों को कुछ तो सहयोग करना ही चाहिए। जरा सोच कर देखिए, यदि रसोई में बढ़िया, स्वादिष्ट पकवान पति पत्नी साथ में बनाएँ, तो उनके बीच की नजदीकियां बढऩे लगती हैं। जब पति-पत्नी साथ साथ रसोई में पहुंच जाएं तो वो पल अभूतपूर्व अपनत्व में बदल जाते हैं। हमारे यहाँ कुकिंग को काम बना दिया गया है... लेकिन अगर ध्यान से देखें तो दरअसल कुकिंग तो एक कला है। नहीं तो कैसे संजीव कपूर जैसे लोग ‘मेस्ट्रो’ कहलाते? अगर पति-पत्नी साथ मिलकर इस कला में सहयोग करें, तो कुछ भी संभव है।

गढ़वाली व्यंजन बहुत अलंकृत और जटिल नहीं होते। लेकिन मोटे अनाजों के इस्तेमाल से उनका स्वाद अनोखा, और बहुत पौष्टिक होता है। अब चूंकि मेरा और संध्या का मेल भी अनोखा था, इसलिए आज का कोर्स भी बहुत अनोखा था – रेशमी पनीर (पनीर, प्याज, रंग-बिरंगी शिमला मिर्चों पर आधारित सूखी सब्जी), फ़ानू (एक प्रकार की गढ़वाली पंचमेल दाल), लेसु (गेहूँ और रागी की रोटी), केसर हलवा, पुलाव और सलाद। खाना बनाने में समय लगा, लेकिन मेहमानों के आने से पहले खाना तैयार हो गया, और हम लोग भी। भोज पर कुल मिला कर आठ लोग आये थे। मेरे दो दोस्त, उनमे से एक की पत्नी, बॉस, उनकी पत्नी और पुत्र, श्री और श्रीमती देवरामनी! ये सभी इतने अच्छे लोग थे, की अपने साथ कुछ न कुछ खाने पीने का सामान लाये थे – यह जानते हुए भी की भोज हमने आयोजित किया था। कुंवारा दोस्त तो अपने साथ वाइन की बोतल लाया था, लेकिन बॉस अपने साथ मिठाइयाँ, और पड़ोसी पुलियोगरे चावल (कर्नाटक का एक डिश) लाये थे। या फिर अपने घर से संध्या ने कहा की वह सबको खिलने के बाद खा लेगी – लेकिन मैंने इस बात से साफ़ इनकार कर दिया। खायेंगे तो हम सब परिवार और मित्र एक साथ... नहीं तो खाने की कोई ज़रुरत नहीं। सप्ताहांत भोज अगर हित-मित्रो के साथ करने को मिले, तो इससे अच्छा क्या हो सकता है? कुछ ही देर में हम सभी गप्प लड़ाते हुए, घर में बने स्वादिष्ट भोजन का आनंद उठा रहे थे। मेरी खूब खिंचाई हुई जब बॉस और पड़ोसियों ने संध्या के परिवार वालो के द्वारा मेरी जांच पड़ताल की बाते उसको सुनायीं। बहुत मज़ा आया – देर तक (कोई तीन घंटे) चले इस भोज से मुझे पहली बार अपने पड़ोसियों, और बॉस को इतने करीब से जानने का मौका मिला।

जैसी की मुझे उम्मीद थी, सभी ने शादी, रिसेप्शन और हनीमून की तस्वीरें देखने की मांग की। मैंने पहले ही हम दोनों की अन्तरंग तस्वीरें अलग कर ली थीं, और दोस्तों की खींची हुई तस्वीरें अपने लैपटॉप में कॉपी कर के मैंने सबको सिलसिलेवार तरीके से तस्वीरें दिखा दीं। सभी ने एक बार तो ज़रूर कहा, की हम दोनों ही अंडमान की धूप में साँवले हो गए। खैर, इन सब बातो के बाद, मैंने सबको आने के लिए धन्यवाद दिया और फिर विदा किया।

हम दोनों टहलते घूमते पास के एक दूकान पर जा कर संध्या के लिए दो जोड़ी शलवार कुर्ता खरीद लाये। हनीमून पर जो कुछ पहना था, अगर अपने घर पर पहनती तो वहां लोग विस्मित और नाराज़ दोनों हो जाते। नीलम के लिए कई प्रकार के कपड़े जिनमें स्कर्ट-टॉप, जीन्स-टी-शर्ट, और एक बहुत खूबसूरत सूट शामिल थे - आखिर मेरी एकलौती साली है। एक कलर-लैब से मैंने दो-तीन छोटे-बड़े एल्बम, और प्रिंट करने के लिए ग्लॉसी फोटोग्राफी पेपर, और कुछ कलर कार्ट्रिज खरीद लिए। मेरे घर में लेज़र प्रिंटर पहले से ही है, जिसका इस्तेमाल मैं विभिन्न कार्यों में करता रहता था। एक मेडिकल की दूकान से मैंने दो पैकेट सेनेटरी नैपकिन, और अपने लिए कंडोम खरीदा – संध्या के जाते जाते एक बार और आनंद लेने की तो बनती थी। यह एक रिब्ड कंडोम था – उसके बाहर की तरफ उभरी हुई धारियां बनी हुई थीं... इसका फायदा यह था की घर्षण के समय आनंद और बढ़ सकता है।

डिनर में कुछ बनाने का काम नहीं था, क्योंकि दोपहर का खाना बचा ही हुआ था। घर आकर मैंने सबसे पहले लैपटॉप पर ख़ास ख़ास तस्वीरें चुन कर प्रिंट करने पर लगा दीं। कई सारी तस्वीरें थीं, इसलिए समय लगता। इसलिए मैंने एक बैग में संध्या का सामान पैक किया और अपने लिए एक अलग छोटे बैग में। इस बीच में संध्या नहाने चली गई – दीं भर प्रदूषण, और गर्मी!

‘हा हा,’ मैंने सोचा, ‘वापस जा कर पानी छूने की भी हिम्मत नहीं पड़ेगी!’ उत्तराँचल में ठंडक तो अब अपने पूरे शबाब पर होगी! पैक करते समय मेरा मन बहुत ख़राब हो रहा था – यह सोच कर की ‘मेरी जान’ कल जाने वाली है... लेकिन क्या ही करता? मेरे पास दो फोन थे – एक ऑफिस के लिए, और एक मेरा पर्सनल। संध्या जब वापस आई, तो मैंने पर्सनल वाला संध्या को दे दिया, जिससे वह मुझसे जब भी मन करे, बात कर सके। यह सुन कर हाँलाकि संध्या का गला भर आया, लेकिन उसके रोने से पहले ही मैंने उसको मना लिया और संयत कर दिया। कुछ देर तक हमने बालकनी में जाकर बात चीत करी, और फिर मैं भी नहाने चला गया। वापस आकर देखा, की सारी तस्वीरें प्रिंट हो गई हैं। एक बड़े एल्बम में हम दोनों मिल कर अपने शादी, रिसेप्शन, और अंडमान की तस्वीरें लगाने लगे, जिसको संध्या घर पर दिखा सके। एक छोटे एल्बम में मैंने हमारी बेहद अन्तरंग और नग्न तस्वीरें लगाईं – सिर्फ संध्या के लिए... जब उसको हमारी ‘वैसी’ वाली याद आये तो उन तस्वीरों को देख कर धैर्य धर सके।

मैंने कहा, “जानू, तुम्हारा मन तो अपनी किताबो के साथ बहल जाएगा... हो सकता है की पढाई, घर और सहेलियों के साथ मेरी याद भी न आए... लेकिन मैंन तुम्हारे बिना एक दिन भी न रह पाऊँगा!”

संध्या मेरी बात पर भावुक हो गई और मुझसे आकर लिपट गई... मैंने भी अपनी बांहें उसके चारों ओर कस दीं।

“आपको ऐसा लगता है की मुझे आपकी याद नहीं आएगी? मुझे आपकी बहुत याद आएगी!!” संध्या भावुक हो कर बोली। “... लेकिन मैं बहुत जल्दी ही आपकी बाहों में फिर से आ जाऊंगी!”

मैं बेबसी में मुस्कुराया, “अच्छा, मुझे प्रोमिस करो की अपना खूब अच्छे से ख्याल रखोगी!”

“प्रोमिस! आप भी रखना..”

“आई लव यू!” बिछोह के गहरे दर्द का अहसास करते हुए मैंने कहा। फिर आगे सोच कर कहा, “अच्छा, जाते जाते ‘गुडबाय किस’ तो दो!”

“अरे मैं अभी कहाँ जा रही हूँ? कल सवेरे जाना है न?”

“अरे तो मुझे भी कौन सा आपके होंठों पर किस करना है?” मैंने इतने ग़मगीन माहौल में भी शैतानी नहीं छोड़ी। लेकिन आगे जो संध्या ने किया, वो मेरी उम्मीद के विपरीत था।
 
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संध्या ने एक टेडी नाइटी पहनी हुई थी। मेरे कहते ही उसने अपनी टेडी का निचला घेरा ऊपर उठा लिया – और उसकी चड्ढी से ढकी योनि मेरे सामने परोस गई। ऐसा आमंत्रण हो तो भला कौन मना कर पाए? मैंने संध्या को चूमने के लिए उसकी कमर को पकड़ कर अपनी तरफ खीचा, और मेरी बाहों में आते ही उसके स्तन मेरे सीने से टकराए। उसने प्यार से मेरे गले में बाहें डाल दी, और मुँह में मुँह डाल कर मुझे चूमने लगी। कुछ देर चूमने के बाद मैंने संध्या की टेडी के ऊपर से ही उसके स्तनों का पान आरम्भ कर दिया। उनको बारी बारी से देर तक चूसा, चुभलाया और चूमा। टेडी का कपडा रेशमी और नायलॉन मिला हुआ था (मतलब मुलायम नहीं था), इसलिए मेरी मुँह की हरकतों का प्रभाव उसके निप्पलों और स्तनों पर कई गुणा अधिक हो रहा था। टेडी के ऊपर से ही मैंने जीभ की नोक से उसके निप्पलों को छेड़ा.. मेरे हर वार से उसकी सिसकारी निकल जाती। इसी बीच मैंने अपने खाली हाथ को उसकी चड्ढी के अन्दर डाला और योनि को टटोला - वह पहले ही गीली हो चली थी। कुछ देर वहां सहलाने के बाद मैंने अपनी उंगली संध्या की योनि में डाल कर अन्दर बाहर करना शुरू कर दिया।

इस पूरे कार्यक्रम के दौरान मैंने संध्या को निर्वस्त्र नहीं किया, और न ही अपने ही कपडे उतारे। संध्या आँखें बंद किए आनंद लेती रही, फिर कुछ देर बाद उसने आगे बढ़ कर मेरे लिंग को पकड़ने की कोशिश करी। मैं पूरी तरह उत्तेजित था।

“आआह्ह्ह्ह...! आज खूब देर तक कीजियेगा...” संध्या ने उखड़ी हुई आवाज़ में मुझे निर्देश दिया।

मैंने संध्या को अपनी गोद से उतारा और उसका हाथ पकड़ कर बेडरूम में ले आया। वह अपने कपडे उतारने लगी तो मैंने मना कर दिया।

“नहीं... पहने रहो। आज ऐसे ही करेंगे..”

मैंने भाग कर आज खरीदा हुआ कंडोम का पैकेट निकाला, और एक कंडोम निकाल कर अपने लिंग पर चढाने लगा। पजामा मैंने अभी भी पूरा नहीं उतारा। तो हम लोग पूरे कपडे भी पहने हुए थे, और यथोचित नग्न भी!

“ये... क्या कर रहे हैं आप?”

“कंडोम!” फिर कुछ रुक कर, “प्रोटेक्शन...” कंडोम चढ़ाने के बाद मैंने संध्या को बिस्तर से उठाया और अपनी गोदी में लेकर उसके नितम्बों को पकड़े हुए, उसकी पीठ को दीवार से लगा दिया। नया आसन! मैंने संध्या को कहा की वह अपनी टांगो से मेरी कमर को जकड़ ले। संध्या को कुछ कुछ समझ में आया की मैं क्या करना चाहता हूँ, और उसने निर्देशानुसार सहयोग किया। मैं बलिष्ठ हूँ, नहीं तो बहुत दिक्कत हो जाती।

मैंने उसकी चड्ढी को योनि से थोड़ा अलग हटाया, और बड़ी मुश्किल से अपने लिंग को उसकी योनि में प्रविष्ट कराया। दो तीन बार धक्का लगाने से मुझे समझ आ गया की नीचे से ऊपर धक्के लगाना मुश्किल है.. एक तो उसका भार सम्हालना, और ऊपर से यह सुनिश्चित करना की लिंग योनि के भीतर ही रहे! मैंने संध्या को धक्*का लगाने को कहा। संध्या ने उत्साहपूर्वक धक्के लगाने आरम्भ किए..

यह वाकई एक आनंददायक आसन था – मुश्किल, लेकिन आनंददायक! एक तो मेरा लिंग पूरी तरह से संध्या के भीतर जा पा रहा था, और इससे एक नए तरह के घर्षण का अहसास हो रहा था। हर धक्के में संध्या की पूरी चूत मेरे लिंग पर घर्षण रही थी... बहुत ही आनंददायक!

और इसका सबूत संध्या की कामुक आहों में था, "आअह्ह्ह्ह.... मस्त लग रहा है...." उसकी साँसे उन्माद के कारण उखड रही थीं। हमने पूरे उत्साह के साथ मैथुन करना प्रारंभ कर दिया। संध्या वैसे भी मुझे कामोत्तेजना के शिखर पर यूँ ही ले जा सकती है। लिहाजा, मेरा लिंग एकदम कड़क हो गया था और इस नए आसन की चुनौती से और भी दमदार हो गया था। रह रह कर मैं संध्या के होंठ चूम लेता, या अपने सीने के संध्या के स्तन कुचल देता।

चाह कर भी तीव्र गति में मैथुन संभव नहीं हो पा रहा था, इसलिए हम लोग बहुत देर तक एक दूसरे में गुत्थम-गुत्था होते रहे! समय का कोई ध्यान नहीं.. लेकिन जब मैं स्खलित हुआ, तब तक संध्या दो बार अपने चरम पर पहुँच चुकी थी, और उसका शरीर चरमोत्कर्ष पर आकर थरथरा रहा था, और वह रह रह कर कामुकता से चीख रही थी। स्खलन के बाद भी मेरा लिंग उन्माद में था, इसलिए मैंने संध्या के शिथिल हो जाने पर धक्के लगाने शुरू कर दिए। कुछ और समय बीत जाने के बाद अंततः मेरे लिंग का कड़ापन समाप्त हुआ और मैंने अपना लिंग बाहर निकाला और संध्या को प्रेम से वापस बिस्तर पर लिटा दिया। जब मैंने कंडोम को कचरा पेटी में, और अपने लिंग को साफ़ कर वापस बिस्तर पर आया, तो देखा की संध्या थक कर सो गई थी।
 

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