Member
LEVEL 1
85 XP
मुझसे मेरे दोस्त अक्सर पूछते हैं की मैं और रूद्र कब मिले, कैसे मिले.. शादी के बाद का प्यार कैसा होता है, कैसे होता है... आदि आदि! उनको इसके बारे में बताते हुए मुझे अक्सर लगता की कभी मैं और रूद्र एक साथ बैठ कर इसके बारे में बात करेंगे और पुरानी यादें ताज़ा करेंगे! अभी दो दिन पहले मैं रेडियो (ऍफ़ एम) पर एक बहुत पुराना गीत सुन रही थी – हो सकता है की आप लोगों में भी कई लोगों ने सुना हो!
और आज घर वापस आकर मैंने जैसे ही रेडियो चलाया, फिर वही गाना आने लगा:
'चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाएँ हम दोनों!'
मेरे ख़याल से यह दुनिया के सबसे रोमांटिक दस बारह गानों में से एक होगा...!
मुझे पता है की अब आप मुझसे पूछेंगे की संध्या, आज क्या ख़ास है जो रोमांटिक गानों की चर्चा हो रही है? तो भई, आज ख़ास बात यह है की आज रूद्र और मेरी शादी की दूसरी सालगिरह है! जी हाँ – दो साल हो गए हैं! इस बीच में मैंने इंटरमीडिएट की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की, और कुछ इस कारण से और कुछ रूद्र की जान-पहचान के कारण से मुझे बैंगलोर के काफी पुराने और जाने माने कॉलेज में दाखिला मिल गया। आज मैं बी. ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा हूँ, और समाज विज्ञान की पढाई कर रही हूँ। शुरू शुरू में यह सब बहुत ही मुश्किल था – लगता था की कहाँ आ फंसी! इतने सारे बदलाव! अनवरत अंग्रेज़ी में ही बोल चाल, नहीं तो कन्नड़ में! मेरी ही हम उम्र लड़कियाँ मेरी सहपाठी थीं... लेकिन उनमे और मुझमे कितना सारा अंतर था! कॉलेज के गेट के अन्दर कदम रखते ही नर्वस हो जाती। दिल धाड़ धाड़ कर के धड़कने लगता। लेकिन रूद्र ने हर पल मुझे हौसला दिया – मानसिक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक! हर प्रकार का! वो अपने काम में अत्यधिक व्यस्त होने के बावजूद मुझसे मेरे विषयों के बारे में चर्चा करते, जब बन पड़ता तो पढ़ाते (वैसे हमारे पड़ोसियों ने मुझे पढ़ाने में बहुत सहयोग दिया है.. आज भी मैं श्रीमति देवरामनी की शरण में ही जाती हूँ, जब भी कहीं फंसती हूँ)। और तो और, सहेलियां भी बहुत उदार और दयालु किस्म की थीं – वो मेरी हर संभव मदद करतीं, मुझे अपने गुटों में शामिल करतीं, अपने घर बुलातीं और यथासंभव इन नई परिथितियों में मुझे ढलने के लिए प्रोत्साहन देतीं।
इसका यह लाभ हुआ की मेरी क्लास के लगभग सभी सहपाठी मेरे मित्र बन गए थे। शिक्षक और शिक्षिकाएँ भी मेरी प्रगति में विशेष रूचि लेते। वो सभी मुझे ‘स्पेशल स्टूडेंट’ कह कर बुलाते थे। मैंने भी अपनी तरफ से कोई कोर कसार नहीं छोड़ी हुई थी – मैं मन लगा कर पढ़ती थी, और मेरी मेहनत का नतीजा भी अच्छा आ रहा था। कहने की कोई ज़रुरत नहीं की मुझे अपना नया कॉलेज बहुत पसंद आया...। नीलम के लिए भी रूद्र और मैंने अपने प्रिंसिपल से बात करी थी। उन्होंने मुझे भरोसा दिलाया था की अगर नीलम में प्रतिभा है, तो वो उसे अवश्य दाखिला देंगे। नीलम इस बार इंटरमीडिएट का एक्साम् लिखेगी, और उसके बाद रूद्र उसको भी बैंगलोर ही लाना चाहते हैं, जिससे उसकी पढाई अच्छी जगह हो सके।
आप लोग अब इस बात की शिकायत न करिए की कहानी से दो साल यूँ ही निकाल दिए, बिना कुछ कहे सुने! इसका उत्तर यह है की अगर लोग खुश हों तो समय तो यूँ ही हरहराते हुए निकल जाता है। और रोज़मर्रा की बातें लिख के आपको क्या बोर करें? अब यह तो लिखना बेवकूफी होगा की ‘जानू, आज क्या खाना बना है?’ या फिर, ‘आओ सेक्स करें!’ ‘आओ कहीं घूम आते हैं.. शौपिंग करने!’ इत्यादि! यह सब जानने में आपको क्या रूचि हो सकती है भला?
इतना कहना क्या उचित नहीं की यह दो साल तो न जाने कैसे गुजर गए?
व्यस्तता इतनी है की अब उत्तराँचल जाना ही नहीं हो पाता! इंटरमीडिएट की परीक्षा देने के बाद सिर्फ दो बार ही जा पाई, और रूद्र तो बस एक बार ही जा पाए! उनको इस बीच में दोहरी पदोन्नति मिली है। जाहिर सी बात है, उनके पास समय की बहुत ही कमी हो गई है... लेकिन यह उन्ही का अनुशासन है, जिसके कारण न केवल मैं ढंग से पढाई कर पा रही हूँ, बल्कि सेहत का भी ढंग से ख़याल रख पा रही हूँ। सुबह पांच बजे उठकर, नित्यक्रिया निबटा कर, हम दोनों दौड़ने और व्यायाम करने जाते हैं। वहाँ से आने के बाद नहा धोकर, पौष्टिक भोजन कर के वो मुझे कॉलेज छोड़ कर अपने ऑफिस चले जाते हैं। मेरे वापस आते आते काम वाली बाई आ जाती है, जो घर का धोना पोंछना और खाना बनाने का काम कर के चली जाती है। मैं और कभी कभी रूद्र, सप्ताहांत में ही खाना बनाते हैं.. व्यस्त तो हैं, लेकिन एक दूसरे के लिए कभी नहीं!
उधर पापा ने बताया की खेती में इस बार काफी लाभ हुआ है – उन्होंने पिछली बार नगदी फसलें बोई थीं, और कुछ वर्ष पहले फलों की खेती भी शुरू करी थी। इसका सम्मिलित लाभ दिखने लग गया था। रूद्र ने अपने जान-पहचान से तैयार फसल को सीधा बेचने का इंतजाम किया था.. सिर्फ पापा के लिए नहीं, बल्कि पूरे कसबे में रहने वाले किसानो के लिए! बिचौलियों के कट जाने से किसानो को ज्यादा लाभ मिलना स्वाभाविक ही था। अगले साल के लिए भी पूर्वानुमान बढ़िया था।
खैर, तो मैं यह कह रही थी, की इस गाने में कुछ ख़ास बात है जो मुझे रूद्र से पहली बार मिलने, और हमारे मिलन की पहली रात की याद दिलाती है। सब खूबसूरत यादें! रूद्र ने वायदा किया था की वो आज जल्दी आ जायेंगे – अगले दो दिन तो शनिवार और रविवार हैं... इसलिए कहीं बाहर जाने का भी प्रोग्राम बन सकता है! उन्होंने मुझे इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया। लेकिन उनका जल्दी भी तो कम से कम पांच साढ़े-पांच तो बजा ही देता है!
मैं कुर्सी पर आँखें बंद किए, सर को कुर्सी के सिरहाने पर टिकाये रेडियो पर बजने वाले गानों को सुनती रही। और साथ ही साथ रूद्र के बारे में भी सोचती रही। इन दो सालों में उनके कलम के कुछ बाल सफ़ेद हो (पक) गए हैं.. बाकी सब वैसे का वैसा ही! वैसा ही दृढ़ और हृष्ट-पुष्ट शरीर! जीवन जीने की वैसी ही चाहत! वैसी ही मृदुभाषिता! कायाकल्प की बात करते हैं.. इससे बड़ी क्या बात हो सकती है की उन्होंने अपने चाचा-चाची को माफ़ कर दिया। उनके अत्याचारों का दंड तो उनको तभी मिल गया जब उनके एकलौते पुत्र की एक सड़क हादसे में मृत्यु हो गई। जब रूद्र को यह मालूम पड़ा, तो वो मुझे लेकर अपने पैत्रिक स्थान गए और वहाँ उन दोनों से मुलाकात करी।
अभी कोई आठ महीने पहले की ही तो बात है, जब रूद्र को किसी से मालूम हुआ की उनके चचेरे भाई की एक सड़क हादसे में मृत्यु हो गई। रूद्र ने यह सुनते ही बिना एक मिनट देर किये भी उन्होंने मेरठ का रुख किया। हम दोनों ही लोग गए थे – उस दिन मैंने पहली बार इनके परिवार(?) के किसी अन्य सदस्य को देखा था। इनके चाचा की उम्र लगभग साठ वर्ष, औसत शरीर, सामान्य कद, गेहुंआ रंग... देखने में एक साधारण से वृद्ध पुरुष लग रहे थे। चाची की उम्र भी कमोवेश उतनी ही रही होगी.. दोनों की उम्र कोई ऐसी ख़ास ज्यादा नहीं थी.. लेकिन एकलौते पुत्र और एकलौती संतान की असामयिक मृत्यु ने मानो उनका जीवन रस निचोड़ लिया था। दुःख और अवसाद से घिरे वो दोनों अपनी उम्र से कम से कम दस साल और वृद्ध लग रहे थे।
उन्होंने रूद्र को देखा तो वो दोनों ही उनसे लिपट कर बहुत देर तक रोते रहे... मुझे यह नहीं समझ आया की वो अपने दुःख के कारण रो रहे थे, या अपने अत्याचारों के प्रायश्चित में या फिर इस बात के संतोष में की कम से कम एक तो है, जिसको अपनी संतान कहा जा सकता है। कई बार मन में आता है की लोग अपनी उम्र भर न जाने कितने दंद फंद करते हैं, लेकिन असल में सब कुछ छोड़ कर ही जाना है। यह सच्चाई हम सभी को मालूम है, लेकिन फिर भी यूँ ही भागते रहते हैं, और दूसरों को तकलीफ़ देने में ज़रा भी हिचकिचाते नहीं।
रूद्र को इतना शांत मैंने इन दो सालों में कभी नहीं देखा था! उनके मन में अपने चाचा चाची के लिए किसी भी प्रकार का द्वेष नहीं था, और न ही इस बात की ख़ुशी की उनको सही दंड मिला (एकलौते जवान पुत्र की असमय मृत्यु किसी भी अपराध का दंड नहीं हो सकती)! बस एक सच्चा दुःख और सच्ची चिंता! रूद्र ने एक बार मुझे बताया था की उनका चचेरा भाई अपने माता पिता जैसा नहीं है... उसका व्यवहार हमेशा से ही इनके लिए अच्छा रहा। रूद्र इन लोगो की सारी खोज खबर रखते रहे हैं (भले ही वो इस बात को स्वीकार न करें! उनको शुरू शुरू में शायद इस बात पर मज़ा और संतोष होता था की रूद्र ने उनके मुकाबले कहीं ऊंचाई और सफलता प्राप्त करी थी। लेकिन आज इन बातो के कोई मायने नहीं थे)। रूद्र ने उनकी आर्थिक सहायता करने की भी पेशकश करी (जीवन जैसे एक वृत्त में चलता है.. अत्याचार की कमाई और धन कभी नहीं रुकते.. इनके चाचा चाची की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी), लेकिन उन्होंने यह कह कर मना कर दिया की जब ईश्वर उन दोनों को उनके अत्याचारों और गलतियों का दंड दे रहे हैं, तो वो उसमे किसी भी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न नहीं करेंगे। उनके लिए बस इतना ही उचित है की रूद्र ने उनको माफ़ कर दिया। मुझसे वो दोनों बहुत सौहार्द से मिले... बल्कि यह कहिये की बहुत लाड़ से मिले। जैसे की मैं उनकी ही पुत्र-वधू हूँ... फिर उन्होंने मुझे सोने के कंगन और एक मंगलसूत्र भेंट में दिया। बाद में मुझे मालूम हुआ की वो माँ जी (मेरी स्वर्गवासी सास) के आखिरी गहने थे। उस दिन यह जान कर कुछ सुकून हुआ की हमारे परिवार में कुछ और लोग भी हैं।
और आज घर वापस आकर मैंने जैसे ही रेडियो चलाया, फिर वही गाना आने लगा:
'चलो एक बार फिर से, अजनबी बन जाएँ हम दोनों!'
मेरे ख़याल से यह दुनिया के सबसे रोमांटिक दस बारह गानों में से एक होगा...!
मुझे पता है की अब आप मुझसे पूछेंगे की संध्या, आज क्या ख़ास है जो रोमांटिक गानों की चर्चा हो रही है? तो भई, आज ख़ास बात यह है की आज रूद्र और मेरी शादी की दूसरी सालगिरह है! जी हाँ – दो साल हो गए हैं! इस बीच में मैंने इंटरमीडिएट की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की, और कुछ इस कारण से और कुछ रूद्र की जान-पहचान के कारण से मुझे बैंगलोर के काफी पुराने और जाने माने कॉलेज में दाखिला मिल गया। आज मैं बी. ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा हूँ, और समाज विज्ञान की पढाई कर रही हूँ। शुरू शुरू में यह सब बहुत ही मुश्किल था – लगता था की कहाँ आ फंसी! इतने सारे बदलाव! अनवरत अंग्रेज़ी में ही बोल चाल, नहीं तो कन्नड़ में! मेरी ही हम उम्र लड़कियाँ मेरी सहपाठी थीं... लेकिन उनमे और मुझमे कितना सारा अंतर था! कॉलेज के गेट के अन्दर कदम रखते ही नर्वस हो जाती। दिल धाड़ धाड़ कर के धड़कने लगता। लेकिन रूद्र ने हर पल मुझे हौसला दिया – मानसिक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक! हर प्रकार का! वो अपने काम में अत्यधिक व्यस्त होने के बावजूद मुझसे मेरे विषयों के बारे में चर्चा करते, जब बन पड़ता तो पढ़ाते (वैसे हमारे पड़ोसियों ने मुझे पढ़ाने में बहुत सहयोग दिया है.. आज भी मैं श्रीमति देवरामनी की शरण में ही जाती हूँ, जब भी कहीं फंसती हूँ)। और तो और, सहेलियां भी बहुत उदार और दयालु किस्म की थीं – वो मेरी हर संभव मदद करतीं, मुझे अपने गुटों में शामिल करतीं, अपने घर बुलातीं और यथासंभव इन नई परिथितियों में मुझे ढलने के लिए प्रोत्साहन देतीं।
इसका यह लाभ हुआ की मेरी क्लास के लगभग सभी सहपाठी मेरे मित्र बन गए थे। शिक्षक और शिक्षिकाएँ भी मेरी प्रगति में विशेष रूचि लेते। वो सभी मुझे ‘स्पेशल स्टूडेंट’ कह कर बुलाते थे। मैंने भी अपनी तरफ से कोई कोर कसार नहीं छोड़ी हुई थी – मैं मन लगा कर पढ़ती थी, और मेरी मेहनत का नतीजा भी अच्छा आ रहा था। कहने की कोई ज़रुरत नहीं की मुझे अपना नया कॉलेज बहुत पसंद आया...। नीलम के लिए भी रूद्र और मैंने अपने प्रिंसिपल से बात करी थी। उन्होंने मुझे भरोसा दिलाया था की अगर नीलम में प्रतिभा है, तो वो उसे अवश्य दाखिला देंगे। नीलम इस बार इंटरमीडिएट का एक्साम् लिखेगी, और उसके बाद रूद्र उसको भी बैंगलोर ही लाना चाहते हैं, जिससे उसकी पढाई अच्छी जगह हो सके।
आप लोग अब इस बात की शिकायत न करिए की कहानी से दो साल यूँ ही निकाल दिए, बिना कुछ कहे सुने! इसका उत्तर यह है की अगर लोग खुश हों तो समय तो यूँ ही हरहराते हुए निकल जाता है। और रोज़मर्रा की बातें लिख के आपको क्या बोर करें? अब यह तो लिखना बेवकूफी होगा की ‘जानू, आज क्या खाना बना है?’ या फिर, ‘आओ सेक्स करें!’ ‘आओ कहीं घूम आते हैं.. शौपिंग करने!’ इत्यादि! यह सब जानने में आपको क्या रूचि हो सकती है भला?
इतना कहना क्या उचित नहीं की यह दो साल तो न जाने कैसे गुजर गए?
व्यस्तता इतनी है की अब उत्तराँचल जाना ही नहीं हो पाता! इंटरमीडिएट की परीक्षा देने के बाद सिर्फ दो बार ही जा पाई, और रूद्र तो बस एक बार ही जा पाए! उनको इस बीच में दोहरी पदोन्नति मिली है। जाहिर सी बात है, उनके पास समय की बहुत ही कमी हो गई है... लेकिन यह उन्ही का अनुशासन है, जिसके कारण न केवल मैं ढंग से पढाई कर पा रही हूँ, बल्कि सेहत का भी ढंग से ख़याल रख पा रही हूँ। सुबह पांच बजे उठकर, नित्यक्रिया निबटा कर, हम दोनों दौड़ने और व्यायाम करने जाते हैं। वहाँ से आने के बाद नहा धोकर, पौष्टिक भोजन कर के वो मुझे कॉलेज छोड़ कर अपने ऑफिस चले जाते हैं। मेरे वापस आते आते काम वाली बाई आ जाती है, जो घर का धोना पोंछना और खाना बनाने का काम कर के चली जाती है। मैं और कभी कभी रूद्र, सप्ताहांत में ही खाना बनाते हैं.. व्यस्त तो हैं, लेकिन एक दूसरे के लिए कभी नहीं!
उधर पापा ने बताया की खेती में इस बार काफी लाभ हुआ है – उन्होंने पिछली बार नगदी फसलें बोई थीं, और कुछ वर्ष पहले फलों की खेती भी शुरू करी थी। इसका सम्मिलित लाभ दिखने लग गया था। रूद्र ने अपने जान-पहचान से तैयार फसल को सीधा बेचने का इंतजाम किया था.. सिर्फ पापा के लिए नहीं, बल्कि पूरे कसबे में रहने वाले किसानो के लिए! बिचौलियों के कट जाने से किसानो को ज्यादा लाभ मिलना स्वाभाविक ही था। अगले साल के लिए भी पूर्वानुमान बढ़िया था।
खैर, तो मैं यह कह रही थी, की इस गाने में कुछ ख़ास बात है जो मुझे रूद्र से पहली बार मिलने, और हमारे मिलन की पहली रात की याद दिलाती है। सब खूबसूरत यादें! रूद्र ने वायदा किया था की वो आज जल्दी आ जायेंगे – अगले दो दिन तो शनिवार और रविवार हैं... इसलिए कहीं बाहर जाने का भी प्रोग्राम बन सकता है! उन्होंने मुझे इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया। लेकिन उनका जल्दी भी तो कम से कम पांच साढ़े-पांच तो बजा ही देता है!
मैं कुर्सी पर आँखें बंद किए, सर को कुर्सी के सिरहाने पर टिकाये रेडियो पर बजने वाले गानों को सुनती रही। और साथ ही साथ रूद्र के बारे में भी सोचती रही। इन दो सालों में उनके कलम के कुछ बाल सफ़ेद हो (पक) गए हैं.. बाकी सब वैसे का वैसा ही! वैसा ही दृढ़ और हृष्ट-पुष्ट शरीर! जीवन जीने की वैसी ही चाहत! वैसी ही मृदुभाषिता! कायाकल्प की बात करते हैं.. इससे बड़ी क्या बात हो सकती है की उन्होंने अपने चाचा-चाची को माफ़ कर दिया। उनके अत्याचारों का दंड तो उनको तभी मिल गया जब उनके एकलौते पुत्र की एक सड़क हादसे में मृत्यु हो गई। जब रूद्र को यह मालूम पड़ा, तो वो मुझे लेकर अपने पैत्रिक स्थान गए और वहाँ उन दोनों से मुलाकात करी।
अभी कोई आठ महीने पहले की ही तो बात है, जब रूद्र को किसी से मालूम हुआ की उनके चचेरे भाई की एक सड़क हादसे में मृत्यु हो गई। रूद्र ने यह सुनते ही बिना एक मिनट देर किये भी उन्होंने मेरठ का रुख किया। हम दोनों ही लोग गए थे – उस दिन मैंने पहली बार इनके परिवार(?) के किसी अन्य सदस्य को देखा था। इनके चाचा की उम्र लगभग साठ वर्ष, औसत शरीर, सामान्य कद, गेहुंआ रंग... देखने में एक साधारण से वृद्ध पुरुष लग रहे थे। चाची की उम्र भी कमोवेश उतनी ही रही होगी.. दोनों की उम्र कोई ऐसी ख़ास ज्यादा नहीं थी.. लेकिन एकलौते पुत्र और एकलौती संतान की असामयिक मृत्यु ने मानो उनका जीवन रस निचोड़ लिया था। दुःख और अवसाद से घिरे वो दोनों अपनी उम्र से कम से कम दस साल और वृद्ध लग रहे थे।
उन्होंने रूद्र को देखा तो वो दोनों ही उनसे लिपट कर बहुत देर तक रोते रहे... मुझे यह नहीं समझ आया की वो अपने दुःख के कारण रो रहे थे, या अपने अत्याचारों के प्रायश्चित में या फिर इस बात के संतोष में की कम से कम एक तो है, जिसको अपनी संतान कहा जा सकता है। कई बार मन में आता है की लोग अपनी उम्र भर न जाने कितने दंद फंद करते हैं, लेकिन असल में सब कुछ छोड़ कर ही जाना है। यह सच्चाई हम सभी को मालूम है, लेकिन फिर भी यूँ ही भागते रहते हैं, और दूसरों को तकलीफ़ देने में ज़रा भी हिचकिचाते नहीं।
रूद्र को इतना शांत मैंने इन दो सालों में कभी नहीं देखा था! उनके मन में अपने चाचा चाची के लिए किसी भी प्रकार का द्वेष नहीं था, और न ही इस बात की ख़ुशी की उनको सही दंड मिला (एकलौते जवान पुत्र की असमय मृत्यु किसी भी अपराध का दंड नहीं हो सकती)! बस एक सच्चा दुःख और सच्ची चिंता! रूद्र ने एक बार मुझे बताया था की उनका चचेरा भाई अपने माता पिता जैसा नहीं है... उसका व्यवहार हमेशा से ही इनके लिए अच्छा रहा। रूद्र इन लोगो की सारी खोज खबर रखते रहे हैं (भले ही वो इस बात को स्वीकार न करें! उनको शुरू शुरू में शायद इस बात पर मज़ा और संतोष होता था की रूद्र ने उनके मुकाबले कहीं ऊंचाई और सफलता प्राप्त करी थी। लेकिन आज इन बातो के कोई मायने नहीं थे)। रूद्र ने उनकी आर्थिक सहायता करने की भी पेशकश करी (जीवन जैसे एक वृत्त में चलता है.. अत्याचार की कमाई और धन कभी नहीं रुकते.. इनके चाचा चाची की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी), लेकिन उन्होंने यह कह कर मना कर दिया की जब ईश्वर उन दोनों को उनके अत्याचारों और गलतियों का दंड दे रहे हैं, तो वो उसमे किसी भी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न नहीं करेंगे। उनके लिए बस इतना ही उचित है की रूद्र ने उनको माफ़ कर दिया। मुझसे वो दोनों बहुत सौहार्द से मिले... बल्कि यह कहिये की बहुत लाड़ से मिले। जैसे की मैं उनकी ही पुत्र-वधू हूँ... फिर उन्होंने मुझे सोने के कंगन और एक मंगलसूत्र भेंट में दिया। बाद में मुझे मालूम हुआ की वो माँ जी (मेरी स्वर्गवासी सास) के आखिरी गहने थे। उस दिन यह जान कर कुछ सुकून हुआ की हमारे परिवार में कुछ और लोग भी हैं।