Romance कायाकल्प

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दोस्तों, यहाँ पर बहुत से साथियों ने मुझसे कहा कि मैं क्यों न अपनी कोई पुरानी कहानी ही पोस्ट कर दूँ।

दिक्कत यह थी कि वो पुरानी साइट असक्रिय हो जाने, और मेरा पुराना लैपटॉप खराब हो जाने के कारण एक-आध कहानी छोड़ कर, मेरे पास कोई पुरानी कहानी का access नहीं था।
लेकिन भाई के अथक प्रयासों से मुझे 'कायाकल्प' पूरी मिल गई। भाई ने साइट पर मेरी पहली कहानी पर भी मेरा काफ़ी मनोबल बढ़ाया था।

इसलिए तहे-दिल से उनका शुक्रिया!

इरोटिक लेखक के तौर पर मुझे पहचान कायाकल्प ने ही दिलाई। तो यहाँ पर मैं कायाकल्प पोस्ट करूँगा।
उम्मीद है आप लोगों को पसंद आएगी। विंभिन्न साइट्स पर ये विभिन्न नामों से, और विभिन्न लेखकों के अपने नामों से पोस्टेड है।
कुछ "लेखकों" ने कॉपी-पेस्ट कर के पात्रों के नाम तो बदल दिए, लेकिन बाकी के ज़रूरी बदलाव करने के लिए हिंदी की जो समझ चाहिए, वो न होने के कारण नहीं कर सके।

इसलिए यदि किसी के पास यह कहानी पहले से उपलब्ध है, तो आपसे निवेदन है कि अति-उत्साह में आ कर आप ही पोस्ट न करने लग जाएँ।
उसके और भी कई कारण हैं - पहला यह कि उस कहानी में व्याकरण में बहुत सी गड़बड़ियाँ थीं, जो मैं ठीक कर रहा हूँ। दूसरा यह, कि उसमें सुधार की काफी गुंजाईश थी, इसलिए वो भी कर रहा हूँ।
वह कहानी बड़ी है, इसलिए पूरी हो चुकी होने के बावजूद उसको यहाँ पूरा करने में समय लगेगा।

इसलिए किसी भी अन्य कहानी की ही तरह इसका आनंद उठाएँ। साथ में बने रहने के लिए आभार!

(मेरी अंग्रेजी में कहानियों का भी आनंद उठाएँ)
 
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आधुनिक संसार की यदि एक शब्द में व्याख्या करने को कहा जाए तो मन में बस एक ही शब्द आता है, और वह है - ‘गतिमान’। संसार गतिमान है। वैसे संसार ही क्या, पूरा ब्रह्माण्ड ही गतिमान है। खैर, यहाँ हम लोग भौतिक विज्ञान के नियमों की समीक्षा करने नहीं आए हैं। यहाँ हम कथा बाँचने आए हैं, इसलिए बात आधुनिक जीवन की हो रही है। आज का युग कुछ ऐसा हो गया है कि चहुँओर जैसे भागमभाग मची हुई है। मनुष्य के जीवन में मानों विश्राम या ठहराव शेष ही नहीं रह गया है। सब कुछ गतिमान है। और इस गति को ऊर्जा ‘कार्य’ से मिलती है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को भी यही शिक्षा दी थी, कि हे पार्थ, तुम कुछ तो करोगे ही। गतिमान जीवन के लिए ठहर कर सोचने का कार्य इसके ठीक विपरीत दिशा में है। आज मनुष्य को घटनाओं से घुड़दौड़ करनी पड़ती है। संभव है कि पिछली शताब्दियों में, जब इतनी जनसंख्या न रही हो, तब इस प्रकार की गलाकाट घुड़दौड़ न हो रही हो। लेकिन आज की सच्चाई तो यही है कि मनुष्य को बचपन से ही एक घुड़दौड़ की शिक्षा और प्रशिक्षण दी जाती है - जो भिन्न भिन्न लोगों के लिए भिन्न भिन्न होती है।


बच्चा पैदा होता है तो उसको ऐसे घोल और घुट्टियाँ पिलाई जाती हैं जिससे वो जल्दी से बड़ा हो जाए। बड़ा होने लगता है तो उसको शब्दों और अंकों का ज्ञान घोंट घोंट कर पिलाया जाने लगता है। वो समझता कितना है, वो तो भगवान ही जानें, लेकिन रट्टा मार कर अपने चाचा, मामा, ताऊ को ‘बा बा ब्लैक शीप’ और ‘टू टू जा फोर’ सुना देता है (वो अलग बात है कि अंग्रेजी में ‘टू टूज़ आर फोर’ होता है - इसीलिए मैंने रट्टामार शब्द का प्रयोग किया है)। प्रतियोगिता ऐसी गलाकाट है कि एक सौ एक प्रतिशत से नीचे तो शायद दिल्ली विश्वविद्यालय में संभवतः प्रवेश ही न मिले। मेरे एक अभिन्न मित्र के अनुसार हमारी शिक्षा प्रणाली हमको मात्र उपभोक्ता बनने के इर्द गिर्द ही सीमित है। और ऐसा हो भी क्यों न? दरअसल हमने आज के परिवेश में भोग करने को ही विकास मान रखा है। व्यक्तिगत, पारिवारिक, नैतिक और सामाजिक मूल्य लगभग समाप्त हो चुके हैं। प्रत्येक व्यक्ति को केवल ‘उपभोक्ता’ बनने के लिये ही विवश और प्रोत्साहित किया जा रहा है। जो जितना बड़ा उपभोक्ता है, वो उतना ही अधिक विकसित है – फिर वो चाहे राष्ट्र हों, या फिर व्यक्ति! मैंने भी इसी युग में जन्म लिया है और पिछले तीस वर्षों से एक भयंकर घुड़दौड़ का हिस्सेदार भी रहा हूँ। अन्य लोगों से मेरी घुड़दौड़ शायद थोड़ी अलग है – क्योंकि समाज के अन्य लोग मेरी घुड़दौड़ को सम्मान से देखते हैं। और देखे भी क्यों न? समाज ने मेरी घुड़दौड़ को अन्य प्रकार की कई घुड़दौड़ों से ऊंचा दर्जा जो दिया हुआ है।


अब तक संभवतः आप लोगो ने मेरे बारे में कुछ बुनियादी बातों का अनुमान लगा ही लिया होगा! तो चलिए, मैं अब अपना परिचय भी दे देता हूँ। मैं हूँ रूद्र - तीस साल का ‘तथाकथित’ सफल और संपन्न आदमी। इतना सफल और संपन्न कि एक औसत व्यक्ति मुझसे ईर्ष्या करे। सफलता की इस सीढ़ी को लांघने के लिए मेरे माता-पिता ने मुझे बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अपने जीवनकाल में बहुत सारे कष्ट देखे और सहे थे - इसलिए उन्होंने बहुत प्रयास किया कि मैं वैसे कष्ट न देख सकूं। अतः उन्होंने अपना पेट काट-काट कर ही सही, लेकिन मेरी शिक्षा और लालन पालन में कोई कमी नहीं आने दी। उन्होंने मुझको सदा यही सिखाया की ‘पुत्र! लगे रहो। प्रयास छोड़ना मत! आज कर लो, आगे सिर्फ सुख भोगोगे!’ यहाँ मैं यह कतई नहीं कह रहा हूँ कि मेरे माता पिता की शिक्षा मिथ्या थी। प्रयास करना, परिश्रम करना अच्छी बातें हैं - दरअसल यह तो नैसर्गिक और नैतिक गुण हैं। किन्तु मेरा मानना है की उनका ‘जीवन के सुख’ (वैसे, सुख की हमारी आज-कल की समझ तो वैसे भी गंदे नाले में स्वच्छ जल को व्यर्थ करने के ही तुल्य है) से कोई खास लेना देना नहीं है। और वह एक अलग बात है, जिसका इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है। और मैं यहाँ पर कोई पाठ पढ़ने-पढ़ाने नहीं आया हूँ।


जीवन की मेरी घुड़दौड़ अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुई थी, की मेरे माँ बाप मुझे जीवन की जिन मुसीबतों से बचाना चाहते थे, वो सारी मुसीबतें मेरे सर पर मानो हिमालय के समस्त बोझ के समान एक बार में ही टूट पड़ी। जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ रहा था, तभी मेरे माँ बाप, दोनों का ही एक सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया, और मैं इस निर्मम संसार में नितांत अकेला रह गया। मेरे दूरदर्शी जनक ने अपना सारा कुछ (वैसे तो कुछ खास नहीं था उनके पास) मेरे ही नाम लिख दिया था, जिससे मुझे कुछ अवलंब (सहारा) तो अवश्य मिला। ऐसी मुसीबत के समय मेरे चाचा-चाची मुझे सहारा देने आये - ऐसा मुझे लगा - लेकिन वह केवल मेरा मिथ्याबोध था। वस्तुतः वो दोनों आए मात्र इसलिए थे कि उनको मेरे माता पिता की संपत्ति का कुछ हिस्सा मिल जाए, और उनकी चाकरी के लिए एक नौकर (मैं) भी। किन्तु यह हो न सका - माँ बाप ने मेहनत करने के साथ साथ ही अन्याय न सहने की भी शिक्षा दी थी। लेकिन मेरी अन्याय न सहने की वृत्ति थोड़ी हिंसक थी। चाचा-चाची से मुक्ति का वृतांत मार-पीट और गाली-गलौज की अनगिनत कहानियों से भरा पड़ा है, और इस कहानी का हिस्सा भी नहीं है।


बस यहाँ पर यह बताना पर्याप्त होगा की उन दोनों कूकुरों से मुझे अंततः मुक्ति मिल ही गई। लेकिन जब तक यह सब हो पाया, तब तक पिता जी की सारी कमाई और उनका बनाया घर - सब कुछ बिक गया। मेरे मात-पिता से मुझको जोड़ने वाली अंतिम भौतिक कड़ी भी टूट गई। घर छोड़ा, आवासीय विद्यालयों में पढ़ा, और अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए (जो मेरे माता पिता की न सिर्फ अंतिम इच्छा थी, बल्कि तपस्या भी) विभिन्न प्रकार की क्षात्र-वृत्ति पाने के लिए मुझे अपने घोड़े को सबसे आगे रखने के लिए मार-मार कर लहूलुहान कर देना पड़ा। खैर, विपत्ति भरे वो चार साल, जिसके पर्यंत मैंने अभियांत्रिकी सीखी, जैसे तैसे बीत गए - अब मेरे पास एक आदरणीय डिग्री थी, और नौकरी भी। किन्तु यह सब देखने के लिए मेरे माता पिता नहीं थे और न ही उनकी इतनी मेहनत से बनाई गई निशानी।


घोर अकेलेपन में किसी भी प्रकार की सफलता कितनी बेमानी हो जाती है! लेकिन मैंने इस सफलता को अपने माता-पिता के आशीर्वाद का प्रसाद माना और अगले दो साल तक एक और साधना की - मैंने भी पेट काटा, पैसे बचाए और घोर तपस्या (पढ़ाई) करी, जिससे मुझे देश के एक अति आदरणीय प्रबंधन संस्थान में दाखिला मिल जाए। ऐसा हुआ भी और आज मैं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ। कहने सुनने में यह कहानी बहुत सुहानी लगती है, लेकिन सच मानिए, तीस साल तक बिना रुके हुए इस घुड़दौड़ में दौड़ते-दौड़ते मेरी कमर टूट गई है। भावनात्मक पीड़ा मेरी अस्थि-मज्जा के क्रोड़ में समा सी गई है। ह्रदय में एक काँटा धंसा हुआ सा लगता है। और आज भी मैं एकदम अकेला हूँ। कुछ मित्र बने – लेकिन उनसे कोई अंतरंगता नहीं है – सदा यही भय समाया रहता है कि न जाने कब कौन मेरी जड़ें काटने लगे! जीवनसाथी का अन्वेषण जारी है... पर कोई जीवनसाथी बनने के इर्द-गिर्द भी नहीं है। ऐसा नहीं है की मेरे जीवन में लड़कियां नहीं आईं - बहुत सी आईं और बहुत सी गईं। किन्तु जैसी बेईमानी और मानव हीनता मैंने अपने जीवन में देखी है, मेरे जीवन में आने वाली ज्यादातर लड़कियां वैसी ही बेईमान और मानव मूल्यों से विहीन मिलीं। आरम्भ में सभी मीठी-मीठी बातें करती, लुभाती, दुलारती आती हैं, लेकिन धीरे-धीरे उनके चरित्र की प्याज़ जैसी परतें हटती है, और उनकी सच्चाई की कर्कशता देख कर आँख से आंसू आने लगते हैं।
 
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सच मानिए, मेरा मानव जाति से विश्वास उठता जा रहा है, और मैं खुद अकेलेपन के गर्त में समाता जा रहा हूँ। तो क्या अब आप मेरी मनःस्थिति समझ सकते हैं? कितना अकेलापन और कितनी ही बेमानी जिंदगी! प्रतिदिन (अवकाश वाले दिन भी) सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक कार्य में स्वयं को स्वाहा करता हूँ, जिससे की इस अकेलेपन का बोझ कम ढोना पड़े। पर फिर भी यह बोझ सदैव भारी ही रहता है। कार्यालय में दो-तीन सहकर्मी और बॉस अच्छे व्यवहार वाले मिले। वो मेरी कहानी जानते थे, इसलिए मुझे अक्सर ही छुट्टी पर जाने को कहते थे। हितैषी थे वो सभी। आज के संसार में आपका हित चाहने वाले लोग मिलें, तो उनको पकड़ कर रखें। मैं भी उनके निकट तो था, लेकिन उतना नहीं जितना होना चाहिए। उनकी सलाह नेक थी। लेकिन वो कहते हैं न, की मुफ्त की सलाह, चाहे वो कितनी भी नेक क्यों न हो, उसका क्या मोल! मैं अक्सर ही उनकी बातें अनसुनी कर देता।


लेकिन, पिछले कुछ दिनों से मेरा हवा-पानी बदलने का बहुत मन हो रहा था - वैसे भी अपने जीवन में मैं कभी भी बाहर (घूमने-फिरने) नहीं गया। मेरे मित्र मुझको ‘अचल संपत्ति’ और ‘घर घुस्सू’ कहकर बुलाने लगे थे। अपनी इस जड़ता पर मुझको विजय प्राप्त करनी ही थी। इंटरनेट पर करीब दो माह तक शोध करने के बाद, मैंने मन बनाया कि उत्तराँचल चला जाऊंगा घूमने! जब मैंने अपनी मंशा अपने बॉस को बताई तो वो बहुत खुश हुए। अपने बॉस से एक महीने की छुट्टी ली - आज तक मैंने कभी भी छुट्टी नहीं ली थी। लेता भी किसके लिए - न कोई सगा न कोई सम्बन्धी। मेरा भला-मानुस बॉस ऐसा प्रसन्न हुआ जैसे उसको अभी अभी पदोन्नति मिली हो। उसने तुरंत ही मुझको छुट्टी दे दी और यह भी कहा कि एक महीने से पहले दिखाई मत देना। छुट्टी लेकर, ऑफिस से निकलते ही सबसे पहले मैंने आवश्यकता के सब सामान जुटाए। वह अगस्त माह था – मतलब वर्षा ऋतु। अतः समस्त उचित वस्तुएं जुटानी आवश्यक थीं। सामान पैक कर मैं पहला उपलब्ध वायुयान लेकर उत्तरांचल की राजधानी देहरादून पहुंच गया। उत्तराँचल को लोग देव-भूमि भी कहते हैं - और वायुयान में बैठे हुए नीचे के दृश्य देख कर समझ में आ गया की लोग ऐसा क्यों कहते है। मैंने अपनी यात्रा की कोई योजना नहीं बनाई थी - मेरा मन था की एक गाड़ी किराए पर लेकर खुद ही चलाते हुए बस इस सुन्दर जगह में खो जाऊं। समय की कोई कमी नहीं थी, अतः मुझे घूमने और देखने की कोई जल्दी भी नहीं थी। हाँ, बस मैं भीड़ भाड़ वाली जगहों (जैसे कि हरिद्वार, ऋषिकेश इत्यादि) से दूर ही रहना चाहता था। मैंने देहरादून में ही एक छोटी कार किराए पर ली और उत्तराँचल का नक्शा, 'जी पी एस' और अन्य आवश्यक सामान खरीद कर कार में डाल लिया और आगे यात्रा के लिए चल पड़ा।

अगले एक सप्ताह तक मैंने बद्रीनाथ देवस्थान, फूलों की घाटी, कई सारे प्रयाग, और कुछ अन्य छोटे स्थानिक मंदिर भी देखे। हिमालय की गोद में चलते, प्राकृतिक छटा का रसास्वादन करते हुए यह एक सप्ताह न जाने कैसे फुर्र से उड़ गया। उत्तराँचल वाकई देवलोक है। यदि ठहर कर यहाँ के नैसर्गिक सौंदर्य का अवलोकन करेंगे तो पाएंगे कि यहाँ का प्रत्येक स्थान आपको अपने ही तरीके से अचंभित करता है। अब जैसे बद्रीनाथ देवस्थान की ही बात कर लें – मंदिर से ठीक पहले भीषण वेग से बहती अलकनंदा नदी यह प्रमाणित करती है की प्रकृति की शक्ति के आगे हम सब कितने बौने हैं। इसी ठंडी नदी के बगल ही एक तप्त-कुंड है, जहाँ भूगर्भ से गरम पानी निकलता है। हम वैज्ञानिक तर्क-वितर्क करने वाले आसानी से कह सकते हैं की भूगर्भीय प्रक्रियाओं के चलते गरम पानी का सोता बन गया। किन्तु, एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं है। मंदिर के प्रसाद में मिलने वाली वन-तुलसी की सुगंध, थके हुए शरीर से सारी थकान खींच निकालती है। और सिर्फ यही नहीं। प्रत्येक सुबह, सूरज की पहली किरणें जब नीलकंठ पर्वत की चोटी पर जब पड़ती हैं, तब उस पर जमा हुआ हिम (बरफ) ऐसे जगमगाता है, जैसे कि सोना! उस दृश्य को देखने के सभी पर्यटक अपने अपने हाथ में चाय का प्याला पकड़े सूर्योदय से पंद्रह मिनट पहले से ही उसका इंतज़ार करने लगते हैं।

ऐसे ही न जाने कितने ही चमत्कार उत्तराँचल की भूमि पर पग-पग पर होते रहते हैं। ताज़ी ठंडी हवा, हरे भरे वृक्ष, जल से भरी नदियों का नाद, फूलों की महक और रंग, नीला आकाश, रात में (अगर भाग्यशाली रहे तो) टिमटिमाते तारे और विभिन्न नक्षत्रों का दर्शन, कभी होटल में, तो कभी ऐसे खुले में ही टेंट में रहना और सोना - यह सब काम मेरी घुड़दौड़ वाली जिंदगी से बेहद भिन्न थे और अब मुझे आनंद आने लग गया था। मैंने मानो अपने तीस साल पुराने वस्त्रों को कहीं रास्ते में ही फेंक दिया और इस समय खुले शरीर से प्रकृति के ऐसे मनोहर रूप को अपने से चिपटाए जा रहा था।

सबसे आनंददायी बात वहां के स्थानीय लोगों से मिलने जुलने की रही। सच कहता हूँ की उत्तराँचल के ज्यादातर लोग बहुत ही सुन्दर है - तन से भी और मन से भी। सीधे सादे लोग, मेहनतकश लोग, मुस्कुराते लोग! रास्ते में कितनी ही सारी स्त्रियां देखी जो कम से कम अपने शरीर के भार के बराबर बोझ उठाए चली जा रही है - लेकिन उनके होंठो पर मुस्कुराहट बदस्तूर बनी हुई है! सभी लोग मेरी मदद को हमेशा तैयार थे - मैंने एकाध बार लोगों को कुछ रुपये भी देने चाहे, लेकिन सभी ने इनकार कर दिया - ‘भला लोगो की भलाई का भी कोई मोल होता है?’ छोटे-छोटे बच्चे, अपने सेब जैसे लाल-लाल गाल और बहती नाक के साथ इतने प्यारे लगते, कि जैसे गुड्डे-गुड़ियाँ हों! इन सब बातों ने मेरा मन ऐसे मोह लिया की मन में एक तीव्र इच्छा जाग गई कि कितना बढ़िया हो यदि मैं अब बस यहीं पर बस जाऊं।

खैर, मैं इस समय ‘फूलों की घाटी’ से वापस आ रहा था। यह ऊँचाई पर स्थित एक पहाड़ी घाटी है, जहाँ विभिन्न प्रजातियों के अनगिनत फूल उगते हैं। वहाँ बिताये हुए वो चार दिन मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। समुद्र तल से कोई साढ़े तीन किलोमीटर ऊपर स्थित इस घाटी में अत्यंत स्थानीय, केवल उच्च पर्वतीय क्षेत्र में पाये जाने वाले फूल मिलते हैं। फूलों से भरी, सुगंध से लदी इस घाटी को देखकर ऐसा ही लगता है कि उस जगह पर वाकई देवों और अप्सराओं का स्थान होगा। बचपन में आप सब ने दादी की कहानियों में सुना होगा की परियां जमीन पर आकर नाचती हैं। मेरे ख़याल से धरती पर यदि ऐसा कोई ऐसा स्थान है, तो वह ‘फूलों की घाटी’ ही है। मेरे जैसा एकाकी व्यक्ति इस बात को सोच कर ही प्रसन्न हो गया कि इस जगह से ‘मानव सभ्यता’ से दूर-दूर तक कोई संपर्क नहीं हो सकता। न कोई मुझे परेशान करेगा, और न ही मैं किसी और को। लेकिन पहाड़ों के ऊपर चढ़ाई, और उसके बात उतराई में इतना प्रयास लगा की बहुत ज्यादा थकावट हो गई। इतनी कि मैं वहाँ से वापस आने के बाद करीब आधे दिन तक अपनी गाड़ी में ही सोता रहा।
 
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आगे की यात्रा के लिए उसी रास्ते से वापस आना पड़ता। वापसी में मैं एक थोड़ा घने बसे कस्बे में (जिसका नाम मैं आपको नहीं बताऊँगा) पहुँचा। मैंने गाड़ी वहीं पर रोक दी कि थोडा फ्रेश होकर खाना खाया जा सके। एक भले आदमी ने मेरी थकी हुई हालत देख कर मेरे नहाने धोने का बंदोबस्त कर दिया, लेकिन वह बंदोबस्त सुशीलता से परे था। सड़क के किनारे खुले में एक हैण्ड-पाइप, और एक बाल्टी और एक सस्ता सा साबुन। खैर, मैंने पिछले तीन दिनों से नहाया नहीं था, इसलिए मेरा ध्यान सिर्फ तरो-ताज़ा होने पर सीमित था। मैं जितनी भी देर नहाया, उतनी देर तक वहां के लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना रहा। विशेषतः वहां की स्त्रियों के लिए - वो मुझे देख कर कभी हंसती, कभी मुस्कुराती, तो कभी आपस में खुसुर-फुसुर करती। वैसे, मैं अपने मुँह से अपनी ही बढ़ाई क्या करूँ, लेकिन नियमित पौष्टिक आहार और कठिन व्यायाम से मेरा शरीर एकदम तगड़ा और गठा हुआ बन गया है, और शरीर पर चर्बी तो रत्ती भर भी नहीं है। व्यायाम करना मेरे लिए सबसे बड़ा भोग-विलास है, यद्यपि कभी कभार द्राक्षासव का सेवन भी करता हूँ, लेकिन सिर्फ कभी कभार। इसी के कारण मुझे पिछले कई वर्षों से प्रतिदिन बारह घंटे कार्य करने की ऊर्जा मिलती है। हो सकता है की ये स्त्रियाँ मुझे आकर्षक पाकर एक दूसरे से अपनी प्रेम कल्पना बाँट रही हों - ऐसे सोचते हुए मैंने भी उनकी तरफ देख कर मुस्कुरा दिया।

खैर, नहा-धोकर, कपडे पहन कर मैंने खाना खाया और अपनी कार की ओर जाने को हुआ ही था कि मैंने स्कूली यूनिफॉर्म पहने लड़कियों का समूह जाते हुए देखा। मुझे लगा कि शायद किसी स्कूल में छुट्टी हुई होगी, क्योंकि उस समूह में हर कक्षा की लड़कियां थी। मैं यूँ ही, निरुद्देश्य अपनी कार के पास खड़े-खड़े उन सबको जाते हुए देख रहा था कि मेरी दृष्टि अचानक ही उनमे से एक लड़की पर पड़ी। उसको देखते ही मुझे ऐसे लगा कि जैसे धूप से तपती हुई ज़मीन को बरसात की पहली बूंदों के छूने से लगता होगा।

वह लड़की आसमानी रंग का कुर्ता, सफ़ेद रंग की शलवार, और सफ़ेद रंग का ही पट्टे वाला दुपट्टा (यही स्कूल यूनिफार्म थी) पहने हुए थी। उसने अपने लम्बे बालो को एक चोटी में बाँधा हुआ था। अब मैंने उसको गौर से देखा - उसका रंग साफ़ और गोरा था, उसकी मुखाकृति वही पहाड़ियों जैसी ही विशेषता लिए हुए थी, आँखें एकदम शुद्ध, मूँगिया रंग के भरे हुए होंठ और उनके अन्दर सफ़ेद चमकते हुए दाँत, एक बेहद प्यारी सी छोटी सी नाक और यौवन की लालिमा लिए हुए गाल! उसकी उम्र बमुश्किल अट्ठारह की रही होगी, और इससे मैंने अंदाजा लगाया कि वह बारहवीं में पढ़ती होगी।

‘कितनी सुन्दर! कैसा भोलापन! कैसी सरल चितवन! कितनी प्यारी!’

“संध्या... रुक जा दो मिनट के लिए...” उसकी किसी सहेली ने पीछे से उसको आवाज़ लगाई। वह लड़की मुस्कुराते हुए पीछे मुड़ी और थोड़ी देर तक रुक कर अपनी सहेली का इंतज़ार करने लगी।

‘संध्या..! हम्म.. यह नाम एकदम परफेक्ट है! सचमुच, एकदम सांझ जैसी सुन्दरता! मन को आराम देती हुई, पल-पल नए-नए रंग भरती हुई .. क्या बात है!’ मैंने मन ही मन सोचा।

मैंने जल्दी से अपना कैमरा निकाला और दूरदर्शी लेन्स लगा कर संध्या की तस्वीरें तब तक निकालता रहा जब तक कि वह मेरी आँखों से ओझल नहीं हो गई। उसके जाते ही मुझे होश आया! होश आया, या फिर गया?

‘क्या लव एट फर्स्ट साईट ऐसे ही होता है?’

‘लव एट फर्स्ट साईट’ – यह वाक्य अगर किसी ज्ञानी को कहो, तो वह यही कहेगा कि दरअसल ऐसा कुछ भी नहीं होता। ऐसी भावनाएँ लालसा के वेश में लिपटी वासना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। ज्ञानी लोग इसको प्रेम की एक झूठी भावना कहकर उपहास करने लगेंगे।

लेकिन कैसा हो यदि ऐसा कुछ वाकई होता हो?

संध्या के दर्शन के उपरान्त मुझे मानों एक नशा मिला हुआ बुखार सा चढ़ गया। दिमाग में बस उसी लड़की का चेहरा घूमता जा रहा था। उसकी सुंदरता और उसके भोलेपन ने मुझ पर मोहनी दाल दी थी - या यह कहिए कि मुझे प्रेम में पागल कर दिया था। मेरे मन में हुआ कि अपने होटल वाले को उसकी तस्वीर दिखा कर उसके बारे में पूछूँ, लेकिन यह सोच के रुक गया कि कहीं वो लोग बुरा न मान जाएँ की यह बाहर का आदमी उनकी लड़कियों / बेटियों के बारे में क्यों पूछ रहा है, और क्यों उनकी तस्वीरें निकाल रहा है। वैसे भी दूर दराज के लोग अपनी मान्यताओं और रीतियों को लेकर बहुत ही जिद्दी होते है, और मैं इस समय कोई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता था।

‘हो सकता है की जिसको मैं प्रेम समझ रहा हूँ वह सिर्फ विमोह हो!’ मेरे मन की उधेड़बुन जारी थी।

संध्या के बारे में सोचते-सोचते देर शाम हो गई, तो मैंने निश्चय किया कि आज रात यहीं रह जाता हूँ। लेकिन उस लड़की का ध्यान मेरे मन और मस्तिष्क में कम हुआ ही नहीं! रात में अपने बिस्तर पर लेटे लेटे मेरा सारा ध्यान सिर्फ संध्या पर ही केंद्रित था। मुझे उसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम था - लेकिन फिर भी न जाने ऐसा क्यों लग रहा था कि यह मेरे लिए परफेक्ट लड़की है। मुझको ऐसा लगा की अगर मुझे जीवन में कोई चाहिए तो बस वही लड़की - संध्या।

नींद नहीं आ रही थी – बस संध्या का ही ख़याल आता जा रहा था। तभी ध्यान आया कि उसकी तस्वीरें वो तो मेरे कैमरे में है! जल्दी से मैं अपने कैमरे में उतारी गई उसकी तस्वीरों को ध्यान से देखने लगा - लम्बे बाल, और उसके सुंदर चेहरे पर उन बालों की एक दो लटें, उसकी सुंदरता को और बढ़ा रहे थे। पतली, लेकिन स्वस्थ बाहें। उत्सुकतावश उसके स्तनों का ध्यान हो आया – छोटे-छोटे, जैसे मानो मध्यम आकार के सेब हों। ठीक उसी प्रकार ही स्वस्थ, युवा नितम्ब। साफ़ और सुन्दर आँखें, भरे हुए होंठ - बाल-सुलभ अठखेलियां भरते हुए और उनके अन्दर सफ़ेद दाँत! यह लड़की मेरी कल्पना की प्रतिमूर्ति थी... और अब मेरे सामने थी।

यह सब देखते और सोचते हुए स्वाभाविक तौर पर मेरे शरीर का रक्त मेरे लिंग में तेजी से भरने लगा, और कुछ ही क्षणों में वह स्तंभित हो गया। मेरा हाथ मेरे लिंग को मुक्त करने में व्यस्त हो गया .... मेरे मस्तिष्क में उसकी सुन्दर मुद्रा की बार-बार पुनरावृत्ति होने लगी - उसकी सरल मुस्कान, उसकी चंचल चितवन, उसके युवा स्तन... जैसे-जैसे मेरा मस्तिष्क संध्या के चित्र को निर्वस्त्र करता जा रहा था, वैसे-वैसे मेरे हाथ की गति तीव्र होती जा रही थी.... साथ ही साथ मेरे लिंग में अंदरूनी दबाव बढ़ता जा रहा था। एक नए प्रकार की हरारत पूरे शरीर में फैलती जा रही थी। मेरी कल्पना मुझे आनंद के सागर में डुबोती जा रही थी। अंततः, मैं कामोन्माद के चरम पर पहुच गया - मेरे लिंग से वीर्य एक विस्फोटक लावा के समान बह निकला। हस्तमैथुन के इन आखिरी क्षणों में मेरी ईश्वर से बस यही प्रार्थना थी, कि मेरी यह कल्पना मात्र कोरी-कल्पना ही बन कर न रह जाए। रात नींद कब आई, याद नहीं है।
 
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अगले दिन की सुबह इतनी मनोरम थी की आपको क्या बताऊँ। ठंडी ठंडी हवा, और उस हवा में पानी की अति-सूक्ष्म बूंदे (जिनको हमारे शहर में ‘झींसी पड़ना’ भी कहते हैं) मिल कर बरस रही थी। वही दूर कहीं से - शायद किसी मंदिर से - हरिओम शरण के गाए हुए भजनों का रिकॉर्ड बज रहा था। मैं बाहर निकल आया, एक फोल्डिंग कुर्सी पर बैठा और चाय पीते हुए ऐसे आनंददायक माहौल का रसास्वादन करने लगा। मेरे मन में संध्या को पुनः देखने की इच्छा प्रबल होने लगी। अनायास ही मुझे ध्यान आया कि उस लड़की के स्कूल का समय हो गया होगा। मैंने झटपट अपने कपड़े बदले और उस स्थान पर पहुच गया जहाँ से मुझे स्कूल जाते हुए संध्या के दर्शन फिर से हो सकेंगे।

मैंने मानो घंटो तक इंतज़ार किया ... अंततः वह समय भी आया जब यूनिफॉर्म पहने लड़कियां आने लगी। कोई पाँच मिनट बाद मुझे अपनी परी के दर्शन हो ही गए। वह इस समय ओस में भीगी नाज़ुक पंखुड़ी वाले गुलाबी फूल के जैसे लग रही थी! उसके रूप का सबसे आकर्षक पहलू उसका भोलापन था। उसके चेहरे में कुछ ऐसा आकर्षण था कि मेरी दृष्टि उसके शरीर के किसी और हिस्से पर गई ही नहीं। उसकी ज़रुरत ही नहीं पड़ी। संध्या की जगह कोई कोई और लड़की होती तो अब तक उसकी पूरी नाप तौल बता चुका होता। लेकिन संध्या सबसे अलग है! मेरा इसके लिए मोह सिर्फ मोह नहीं है - संभवतः प्रेम है। तीस साल की अवस्था में, आज मुझे पहली बार एक किशोर वाली भावनाएँ सता रही थीं। जब तक मुझे संध्या दिखी, तब तक उसको मैंने मन भर के देखा। दिल धाड़ धाड़ करके धड़कता रहा। उसके जाने के बाद मैं दिन भर यूँ ही बैठा उसकी तस्वीरें देखता रहा, और उसके प्रति अपनी भावनाओं का तोल-मोल करता रहा।

कुछ भी करने से पहले मैं यह सुनिश्चित कर लेना चाहता था, कि संध्या के लिए मेरे मन में जो भी कुछ था वह मात्र लिप्सा अथवा विमोह नहीं था, अपितु शुद्ध प्रेम था। उसको देखते ही ठंडी बयार वाला एहसास, मन में शांति और जीवन में ठहर कर घर बसाने वाली भावना लिप्सा तो नहीं हो सकती! ऐसे ही घंटो तक तर्क वितर्क करते रहने के बाद, अंततः मैंने ठान लिया कि मैं या तो संध्या से, या फिर उसके घरवालों से बात अवश्य करूंगा। फिर जो होना हो, होता रहे। दोपहर बाद जब उसके स्कूल की छुट्टी हुई तो मैंने उसका पीछा करते हुए उसके घर का पता करने की ठानी। आज भी मेरे साथ कल के ही जैसा हुआ। उसको तब तक देखता रहा जब तक आगे की सड़क से वह मुड़ कर ओझल न हो गई और फिर मैंने उसका सावधानीपूर्वक पीछा करना शुरू कर दिया। मुख्य सड़क से कोई डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद एक विस्तृत क्षेत्र आया, जिसमे काफी दूर तक फैला हुआ खेत था और उसमे ही बीच में एक छोटा सा घर बना हुआ था। वह लड़की उसी घर के अंदर चली गई।

‘तो यह है इसका घर!’

मैं करीब एक घंटे तक वहां निरुद्देश्य खड़ा रहा, फिर भारी पैरों के साथ वापस अपने होटल आ गया। अब मुझे इस लड़की के बारे में और पता करने की इच्छा होने लगी। अपनी बुद्धि और विवेक के प्रतिकूल होकर मैंने अपने होटल वाले से इस लड़की के बारे में जानने का निश्चय किया। यह बहुत ही जोखिम भरा काम था - शायद यह होटल वाला ही इस लड़की का कोई सम्बन्धी हो? न जाने क्या सोचेगा, न जाने क्या करेगा। कहीं नाराज़ हो गया तो? अगर मारने पीटने की नौबत आ गई तो? तार्किक बुद्धि कह रही थी कि मत ले यह जोखिम.... लेकिन, मेरी जिज्ञासा इतनी बलवती थी, की मैंने हर जोखिम को नजरअंदाज करके उस लड़की के बारे में अपने होटल वाले से पूछ ही लिया।

“साहब! यह तो अपने शक्ति सिंह की बेटी है।” उसने तस्वीर को देखते ही कहा। फिर थोड़ा रुक कर, “साहब! माज़रा क्या है? ऐसे राह चलते लड़कियों की तस्वीरें निकालना कोई अच्छी बात नहीं।” उसका स्वर मित्रतापूर्ण तो बिल्कुल भी नहीं था।

“माज़रा? भाई साहब, आप बुरा न मानिए! मुझे यह लड़की पसंद आ गई है! मैं इससे शादी करना चाहता हूँ।” मैंने उसके बदले हुए स्वर को अनसुना किया।

“क्या! सचमुच?” उसका स्वर फिर से बदल गया – इस बार वह अचरज से बोला।

“हाँ! क्या शक्ति सिंह जी इसकी शादी मुझसे करना पसंद करेंगे?”

“साहब, आप सच में इससे शादी करना चाहते है? कोई मजाक तो नहीं है?”

“यार, मैं मजाक क्यों करूंगा ऐसी बातो में? अब तक कुंवारा हूँ – अच्छी खासी नौकरी है। बस अब एक जीवन साथी की ज़रुरत है। तो मैं इस लड़की से शादी क्यों नहीं कर सकता? क्या गलत है?”

“नहीं नहीं। मेरा वो मतलब नहीं था! साहब, ये बहुत भले लोग हैं - सीधे सादे। शक्ति सिंह खेती करते हैं - कुल मिला कर चार जने हैं: शक्ति सिंह खुद, उनकी पत्नी और दो बेटियां। इस लड़की का नाम संध्या है। आप बस एक बात ध्यान में रखें, की ये लोग बहुत सीधे और भले लोग हैं। इनको दुःख मत देना। आपके मुकाबले ये लोग बहुत गरीब हैं, लेकिन गैरतमंद हैं। ऐसे लोगों की हाय नहीं लेना। अगर इनको धोखा दिया तो बहुत पछताओगे।”

“नहीं दोस्त! मेरी खुद की जिंदगी दुःख से भरी रही है, और मुझे मालूम है की दूसरों को दुःख नही पहुचना चाहिए। और शादी ब्याह की बातें कोई मजाक नहीं होती। मुझे यह लड़की वाकई बहुत पसंद है।”

“अच्छी बात है। आप कहें तो मैं आपकी बात उनसे करवा दूं? ये तो वैसे भी अब शादी के लायक हो चली है।”

“नहीं! मैं अपनी बात खुद करना जानता हूँ। वैसे अगर कोई ज़रुरत पड़ी, तो मैं आपसे ज़रूर कहूँगा।”

रात का खाना खाकर मैंने बहुत सोचा की क्या मैं वाकई इस लड़की, संध्या से प्रेम करता हूँ और उससे शादी करना चाहता हूँ! कहीं यह विमोह मात्र ही नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं की मेरी बढ़ती उम्र के कारण मुझे किसी प्रकार का मानसिक विकार हो गया है और मैं पीडोफाइल (ऐसे लोग जो बच्चों की तरफ कामुक रुझान रखते हैं) तो नहीं बन गया हूँ? काफी समय सोच विचार करने के बाद मुझे यह सब आशंकाएं बे-सिर पैर की लगीं। मैंने एक बार फिर अपने मन से पूछा, की क्या मुझे संध्या से शादी करनी चाहिए, तो मुझे मेरे मन से सिर्फ एक ही जवाब मिला, “हाँ”!
 
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सवेरे उठने पर मन के सभी मकड़-जाल खुद-ब-खुद ही नष्ट हो गए। मैंने निश्चय कर लिया की मैं शक्ति सिंह जी से मिलूंगा और अपनी बात कहूँगा। आज रविवार था - तो आज संध्या का स्कूल नहीं लगना था। आज अच्छा दिन है सभी से मिलने का। नहा-धोकर मैंने अपने सबसे अच्छे अनौपचारिक कपडे पहने। छुट्टी पर यह सोच कर नहीं निकला था कि अपने लिए दुल्हन भी देखना पड़ जाएगा। खैर, जीन्स और टी-शर्ट पहन कर, मैंने नाश्ता किया और फिर उनके घर की ओर चल पड़ा। न जाने किस उधेड़बुन में था की वहाँ तक पहुंचने में मुझे कम से कम एक घंटा लग गया। आज के जितना बेचैन तो मैंने अपने आपको कभी नहीं पाया। बेचैन भी और नर्वस भी। खैर, संध्या के घर पहुच कर मैंने तीन-चार बार गहरी साँसे ली और फिर दरवाज़ा खटखटाया।

दरवाज़ा संध्या ने ही खोला।

‘हे भगवान!’ मेरा दिल धक् से हो गया। संध्या पौ फटने के समय सूरज जैसी सुन्दर लग रही थी। उसने अभी अभी नहाया हुआ था - उसके बाल गीले थे, और उनकी नमी उसके हलके लाल रंग के कुर्ते को कंधे के आस पास भिगोए जा रही थी।

‘कितनी सुन्दर! जिसके भी घर जाएगी, वह धन्य हो जायेगा।’

“जी?” मुझे एक बेहद मीठी और शालीन सी आवाज़ सुनाई दी। कानो में जैसे मिश्री घुल गई हो।

“अ..अ आपके पिताजी हैं?” मैंने जैसे-तैसे अपने आपको संयत किया।

“जी। आप अंदर आइए ... मैं उनको अभी भेजती हूँ।”

“जी, ठीक है।”

संध्या ने मुझे बैठक में एक बेंत की कुर्सी पर बैठाया और अन्दर अपने पिता को बुलाने चली गई। आने वाले कुछ मिनट मेरे जीवन के सबसे कठिन मिनट होने वाले थे, ऐसा मुझे अनुमान हो चुका था। करीब दो मिनट बाद शक्ति सिंह जी बैठक में आए। शक्ति सिंह जी साधारण कद-काठी के पुरुष थे, उम्र करीब चालीस - बयालीस के आस-पास रही होगी। खेत में काम करने से सिर के बाल असमय सफ़ेद हो चले थे। लेकिन उनके चेहरे पर संतोष और गर्व का अद्भुत तेज था।

‘एक आत्मसम्मानी पुरुष!’ मैंने मन ही मन आँकलन किया, ‘बहुत सोच समझ कर बात करनी होगी।’

मैं कुर्सी छोड़ कर उनके सम्मान में उठ गया।

“नमस्कार! आप मुझसे मिलना चाहते हैं?” शक्ति सिंह जी ने बहुत ही शालीनता के साथ कहा।

“नमस्ते जी। जी हाँ। मैं आपसे एक ज़रूरी बात करना चाहता हूँ ..... लेकिन मेरी एक विनती है, कि आप मेरी पूरी बात सुन लीजिए। फिर आप जो भी कहेंगे, मुझे स्वीकार है।” मैंने हाथ जोड़े हुए उनसे कहा।

“अरे! ऐसा क्या हो गया? बैठिए बैठिए। हम लोग बस नाश्ता करने ही वाले थे, आप आ गए हैं - तो मेहमान के साथ नाश्ता करने से अच्छा क्या हो सकता है? आप पहले मेरे साथ नाश्ता करिए, फिर आराम से अपनी बात कहिए।”

“नहीं नहीं! प्लीज! आप पहले मेरी बात सुन लीजिए। भगवान ने चाहा तो हम लोग नाश्ता भी कर लेंगे।”

“अच्छा! ठीक है। बताइए! क्या बात हो गई? आप इतना घबराए हुए से क्यों लग रहे हैं? सब खैरियत तो है न?”

“ह्ह्ह्हाँ! सब ठीक है... जी वो मैं आपसे यह कहने आया था कि....” बोलते बोलते मैं रुक गया। गला ख़ुश्क हो गया।

“बोलिए न?”

“जी वो मैं.... मैं आपकी बेटी संध्या से शादी करना चाहता हूँ!” मेरे मुंह से यह बात ट्रेन की गति से निकल गई..

‘मारे गए अब!’

“क्या? एक बार फिर से कहिए। मैंने ठीक से सुना नहीं।”

मैंने दो तीन गहरी साँसे भरीं और अपने आपको काफी संयत किया, “जी मैं आपकी बेटी संध्या से शादी करना चाहता हूँ।”

“...........................................”

“मैं इसी सिलसिले में आपसे मिलना चाहता था।”

शक्ति सिंह कुछ देर समझ नहीं पाए कि वो मुझसे क्या कहें। संध्या से मेरी मुलाक़ात जितनी अप्रत्याशित थी, उतनी की अप्रत्याशित बात उनके लिए अपनी बेटी के लिए एक अनजान आदमी से विवाह प्रस्ताव मिलने से थी। वो अचकचा गए थे, लेकिन फिर खुद को संयत करते हुए बोले,

“आप संध्या को जानते हैं?"

“जी जानता तो नहीं। मैंने उनको दो दिन पहले देखा।”

“और बस इतने में ही आपने उससे शादी करने की सोच ली?” शक्ति सिंह का स्वर अभी भी संयत लग रहा था।

“जी।”

“मैं पूछ सकता हूँ की आप संध्या से शादी क्यों करना चाहते है?”

“सर, मैंने आपके और आपके परिवार के बारे में यहाँ एक दो लोगों से पूछा है और मुझे मालूम चला है कि आप लोग बहुत ही भले लोग हैं। आज आपसे मिल कर मैं आपको अपने बारे में बताना चाहता था। इसलिए मेरी यह विनती है कि आप मेरी बात पूरी सुन लीजिए। उसके बाद आप जो भी कुछ कहेंगे, मुझे वो सब मंजूर रहेगा।”

“हम्म! देखिए, आप हमारे मेहमान भी है और... और शादी का प्रस्ताव भी लाए हैं। इसलिए हमारी मर्यादा, हमारे संस्कार यह कहते हैं कि आप पहले हमारे साथ खाना खाइए। फिर हम लोग बात करेंगे। .... आप बैठिये। मैं अभी आता हूँ।” यह कह कर शक्ति सिंह अन्दर चले गए।

मैं अब काफी संयत और हल्का महसूस कर रहा था। पिटूँगा तो नहीं। निश्चित रूप से अन्दर जाकर मेरे बारे में और मेरे प्रस्ताव के बारे में बात होनी थी। मेरे भाग्य पर मुहर लगनी थी। इसलिए मुझे अपना सबसे मज़बूत केस प्रस्तुत करना था। यह सोचते ही मेरे जीवन में मैंने अपने चरित्र में जितना फौलाद इकट्ठा किया था, वह सब एक साथ आ गए।

‘अगर मुझे यह लड़की चाहिए तो सिर्फ अपने गुणों के कारण चाहिए।’

शक्ति सिंह कम से कम दस मिनट बाद बाहर आये। उनके साथ उनकी छोटी बेटी भी थी।

“यह मेरी छोटी बेटी नीलम है।” नीलम करीब चौदह-पंद्रह साल की रही होगी।

“नमस्ते। आपका नाम क्या है? क्या आप सच में मेरी दीदी से शादी करना चाहते हैं? आप कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं?” नीलम नें एक ही सांस में न जाने कितने ही प्रश्न दाग दिए।

मैं उसको कोई जवाब नहीं दे पाया... बोलता भी भला क्या? बस, मुस्कुरा कर रह गया।

“मुझे आपकी स्माइल पसंद है ...” नीलम ने बाल-सुलभ सहजता से कह दिया।

वाकई शक्ति सिंह के घर में लोग बहुत सीधे और भले हैं - मैंने सोचा। कितना सच्चापन है सभी में। कोई मिलावट नहीं, कोई बनावट नहीं। नीलम एकदम चंचल बच्ची थी, लेकिन उसमे भी शालीनता कूट कूट कर भरी हुई थी। खैर, मुझे उससे कुछ तो बात करनी ही थी, इसलिए मैंने कहा,

“नमस्ते नीलम। मेरा नाम रूद्र है। मैं अभी आपको और आपके माता पिता को अपने बारे में सब बताने वाला हूँ।”

शक्ति सिंह वहीं पर खड़े थे, और हमारी बातें सुन रहे थे। इतने में शक्ति सिंह जी की धर्मपत्नी भी बाहर आ गईं। उन्होंने अपना सर साड़ी के पल्लू से ढका हुआ था।

“जी नमस्ते!” मैंने उठते हुए कहा।

“नमस्ते नमस्ते! बैठिए न।” उन्होंने बस इतना ही कहा। परिश्रमी और आत्मसम्मानी पुरुष की सच्ची साथी प्रतीत हो रही थीं।

मुझे इतना तो समझ में आ गया की यह परिवार वाकई भला है। माता पिता दोनों ही स्वाभिमानी हैं, और सरल हैं। इसलिए बिना किसी लाग लपेट के बात करना ही ठीक रहेगा। हम चारों लोग अभी बस बैठे ही थे कि उधर से संध्या नाश्ते की ट्रे लिए बैठक में आई। मैंने उसकी तरफ बस एक झलक भर देखा और फिर अपनी नज़रें बाकी लोगों की तरफ कर लीं – ऐसा न हो कि मैं मूर्खों की तरह उसको पुनः एकटक देखने लगूं, और मेरी बिना वजह फजीहत हो जाए।

“और ये संध्या है – हमारी बड़ी बेटी। खैर, इसको तो आप जानते ही हैं। नीलम बेटा! जाओ दीदी का हाथ बटाओ।”

दोनों लड़कियों ने कुछ ही देर में नाश्ता जमा दिया। लगता है कि वो बेचारे मेरे आने से पहले खाने ही जा रहे थे, लेकिन मेरे आने से उनका खाने का गणित गड़बड़ हो गया। खैर, मैं क्या ही खाता! मेरी भूख तो नहीं के बराबर थी – नाश्ता तो किया ही हुआ था और अभी थोड़ा घबराया हुआ भी था। लेकिन साथ में खाने पर बैठना आवश्यक था – कहीं ऐसा न हो कि वो यह समझें कि मैं उनके साथ खाना नहीं चाहता। खाते हुए बस इतनी ही बात हुई कि मैं उत्तराँचल में क्या करने आया, कहाँ से आया, क्या करता हूँ, कितने दिन यहाँ पर हूँ ..... इत्यादि इत्यादि। नाश्ता समाप्त होने पर सभी लोग बैठक में आकर बैठ गए।

शक्ति सिंह थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, “रूद्र जी, मेरा यह मानना है की अगर लड़की की शादी की बात चल रही हो तो उसको भी पूरा अधिकार है की अपना निर्णय ले सके। इसलिए संध्या यहाँ पर रहेगी। उम्मीद है कि आपको कोई आपत्ति नहीं।”

“जी, बिलकुल ठीक है। मुझे भला क्यों आपत्ति होगी?” मैंने संध्या की ओर देखकर बोला। उसके होंठो पर एक बहुत हलकी सी मुस्कान आ गई और उसके गाल थोड़े और गुलाबी से हो गए।

फिर मैंने उनको अपने बारे में बताना शुरू किया की मैं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ, मैंने देश के सर्वोच्च प्रबंधन संस्थान और अभियांत्रिकी संस्थान से पढ़ाई की है। बैंगलोर में रहता हूँ। मेरा पैतृक घर कभी मेरठ में था, लेकिन अब नहीं है। परिवार के बारे में बात चल पड़ी तो बहुत सी कड़वी, और दुःखदायक बातें भी निकल पड़ी। मैंने देखा कि मेरे माँ-बाप की मृत्यु, मेरे संबंधियों के अत्याचार और मेरे संघर्ष के बारे में सुन कर शक्ति सिंह जी की पत्नी और संध्या दोनों के ही आँखों से आँसू निकल आए। मैंने यह भी घोषित किया कि मेरे परिवार में मेरे अलावा अब कोई और नहीं है।

उन्होंने ने भी अपने घर के बारे में बताया कि वो कितने साधारण लोग हैं, छोटी सी खेती है, लेकिन गुजर बसर हो जाती है। उनके वृहद परिवार के फलाँ फलाँ व्यक्ति विभिन्न स्थानों पर हैं। इत्यादि इत्यादि।

“रूद्र, आपसे मुझे बस एक ही बात पूछनी है। आप संध्या से शादी क्यों करना चाहते हैं? आपके लिए तो लड़कियों की तो कोई कमी नहीं हो सकती।” शक्ति सिंह ने पूछा।

मैंने कुछ सोच के बोला, “ऊपर से मैं चाहे कैसा भी लगता हूँ, लेकिन अन्दर से मैं बहुत ही सरल साधारण आदमी हूँ। मुझे वैसी ही सरलता संध्या में दिखी। इसलिए। ... मैं बस एक सिंपल सी ज़िन्दगी जीना चाहता हूँ। उसके लिए संध्या जैसी एक साथी मिल जाए तो क्या बात है!”

फिर मैंने बात आगे जोड़ी, “आप बेशक मेरे बारे में पूरी तरह पता लगा लें। आप मेरा कार्ड रख लीजिए - इसमें मेरी कंपनी का पता लिखा है। अगर आप बैंगलोर जाना चाहते हैं तो मैं सारा प्रबंध कर दूंगा। और यह मेरे घर का पता है (मैंने अपने विजिटिंग कार्ड के पीछे घर का पता भी लिख दिया था) - वैसे तो मैं अकेला रहता हूँ, लेकिन आप मेरे बारे में वहाँ पूछताछ कर सकते हैं। मैं यहाँ, उत्तराँचल में, वैसे भी अगले दो-तीन सप्ताह तक हूँ। इसलिए अगर आप आगे कोई बात करना चाहते हैं, तो आसानी से हो सकती है।”

शक्ति सिंह ने हामी में सर हिलाया, फिर कुछ सोच कर बोले, “संध्या और आप आपस में कुछ बात करना चाहते हैं, तो हम बाहर चले जाते हैं।” और ऐसा कह कर तीनो लोग बैठक से बाहर चले गए।

अब वहाँ पर सिर्फ मैं और संध्या रह गए थे। ऐसे ही किसी और पुरुष के साथ एक कमरे में अकेले रह जाने का संध्या का संभवतः यह पहला अनुभव था। उसके लिए यह सब कितना मुश्किल होगा, मुझे समझ में आ रहा था। घबराहट और संकोच से उसने अपना सर नीचे कर लिया। मैंने देखा की वो अपने पांव के अंगूठे से फर्श को कुरेद रही थी। उसके कुर्ते की आस्तीन से गोरी गोरी बाहें निकल कर आपस में उलझी जा रही थी। मैं उसकी मुश्किल बढ़ाना नहीं चाहता था। लेकिन बात करने का मन तो था।

“संध्या! मेरी तरफ देखिए।” उसने बड़े जतन से मेरी तरफ देखा।

“आपको मुझसे कुछ पूछना है?” मैंने पूछा।

उसने सिर्फ न में सर हिलाया।

“तो मैं आपसे कुछ पूछूं?” उसने सर हिला के हाँ कहा।

“आप मुझसे शादी करेंगी?”

मेरे इस प्रश्न पर मानो उसके शरीर का सारा खून उसके चेहरे में आ गया। घबराहट में उसका चेहरा एकदम गुलाबी हो चला। वो शर्म के मारे उठी और भाग कर कमरे से बाहर चली गई। कुछ देर में शक्ति सिंह जी अन्दर आए, उन्होंने मुझे अपना फ़ोन नंबर और पता लिख कर दिया और बोले कि वो मुझे फ़ोन करेंगे। जाते जाते उन्होंने अपने कैमरे से मेरी एक तस्वीर भी खीच ली। मुझे समझ आ गया कि आगे की तहकीकात के लिए यह प्रबंध है। अच्छा है - एक पिता को अपनी पूरी तसल्ली कर लेनी चाहिए। आखिर अपनी लड़की किसी और के सुपुर्द कर रहे हैं!
 
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मैं अगले दो दिन तक वहीं आस पास ही रहा, लेकिन मुझे शक्ति सिंह जी का कोई फ़ोन नहीं आया। मैं कोई व्यग्रता और अति आग्रह नहीं दर्शाना चाहता था, इसलिए मैंने उनको उन दो दिनों तक फोन नहीं किया, और न ही संध्या का पीछा किया। मैं नहीं चाहता था कि वो या उसका परिवार मेरे कारण लज्जित हो। मेरा मन अब तक काफी हल्का हो गया था कि कम से कम मैंने अपने मन की बात उनसे कह तो दी। अब मैं आगे की यात्रा आरम्भ करना चाह रहा था। इसलिए मैंने अपने होटल वाले को अपनी आगे की यात्रा का विवरण दिया। मैंने उसको बताया कि मैंने शक्ति सिंह जी के परिवार से बातें करी हैं। और यदि किसी को मुझसे मिलना हो तो यह ब्यौरा कारगर साबित होगा। फिर मैं आगे की यात्रा पर निकल पड़ा - कौसानी की ओर। निकलने से पहले मैंने शक्ति सिंह जी को भी फोन करके बता दिया। उनके शब्दों से मुझे किसी प्रकार की तल्खी नहीं सुनाई दी – यह एक अच्छी बात थी।

***********

कौसानी तक आते-आते उत्तराँचल के भू-क्षेत्र अलग हो जाते हैं – संध्या का घर, बद्रीनाथ धाम, फूलों की घाटी इत्यादि गढ़वाल में थे, और कौसानी कुमाऊँ में। कौसानी तक की यात्रा मेरे लिए ठिठुराने वाली थी – एक तो बेहद घुमावदार सड़कें, और ऊपर से ठंडी ठंडी वर्षा। लेकिन वहाँ पहुँच कर मेरे आनंद में कोई सीमा नहीं रही। कौसानी को महात्मा गाँधी जी ने ‘भारत का स्विट्ज़रलैंड’ की उपाधि दी थी। उनके अनुसार इतनी सुन्दर जगह हिमालय में शायद ही कहीं मिलेगी। लेकिन जैसा मैंने पहले भी बताया है कि उत्तराँचल के प्रत्येक स्थान की सुंदरता है। उसी तर्ज़ पर कौसानी की प्राकृतिक भव्यता की कोई मिसाल नहीं दी जा सकती है - देवदार के घने वृक्षों से घिरे इस पहाड़ी स्थल से हिमालय के तीन सौ किलोमीटर चौड़े विहंगम दृश्य को देखा जा सकता है। मैं दिन में बाहर जा कर पैदल यात्रा करता और रात में अपने होटल के कमरे से बाहर के अँधेरे में आकाशगंगा देखने का प्रयास करता।

लेकिन मेरे दिलो-दिमाग पर बस संध्या ही छायी हुई थी।

‘क्या उन लोगो को याद भी है मेरे बारे में?’ मैं यह अक्सर सोचता।

कौसानी में अत्यंत शान्ति थी, अतः कुछ दिन वहीँ रहने का निश्चय किया। वैसे भी उत्तराँचल घूमने की मेरी कोई निश्चित योजना नहीं थी। जहाँ मन रम जाय, वहीं रहने लगो! किसी ने बताया कि आगे मुनस्यारी गाँव है जो कि और भी सुन्दर है, तो दो दिन वहाँ भी हो आया। खैर, यह सब करते हुए, करीब पाँच दिन बाद मुझे शक्ति सिंह जी के नंबर से रात में फ़ोन आया।

“हेल्लो!” मैंने कहा।

“जी..... मैं संध्या बोल रही हूँ।”

“संध्या? आप ठीक हैं? घर में सभी ठीक हैं?” मैंने जल्दी जल्दी प्रश्न दाग दिए। लेकिन वो जैसे कुछ नहीं सुन रही हो।

“जी.... हमें आपसे कुछ कहना था।"

"हाँ कहिए न?" मेरा दिल न जाने क्यों जोर जोर से धड़कने लगा।

“जी..... हम आपसे प्रेम करते हैं।” कहकर उसने फोन काट दिया।

मुझे अपने कानो पर विश्वास ही नहीं हो रहा था – ये क्या हुआ? ज़रूर शक्ति सिंह ने मेरे बारे में तहकीकात करवाई होगी, और कुल मिला कर यह पाया होगा कि संध्या और मेरा एक अच्छा मेल है। हाँ, ज़रूर यही बात रही होगी। पारम्परिक भारतीय समाज में आज भी, यदि माता-पिता अपनी लड़की का विवाह तय कर देते हैं, तो वह लड़की अपने होने वाले पति को विवाह से पूर्व ही पति मान लेती है।

‘वो भी मुझसे प्रेम करती है!’

संध्या के फोन ने मेरे दिल के तार कुछ इस प्रकार झनझना दिए की रात भर नींद नहीं आई। मैंने पलट कर फोन नहीं किया। हो सकता है कि ऐसा करने पर वो लोग मुझे असभ्य समझें। बहुत ही बेचैनी में करवटें बदलते हुए मेरी रात किसी प्रकार बीत ही गई।

‘संध्या का कैसा हाल होगा?’ यह विचार मेरे मन में बार बार आता।
 
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अगले दिन मुझको मेरे ऑफिस से मेरे बॉस का, और मेरे हाउसिंग सोसाइटी के सेक्रेटरी का फ़ोन आया। उन लोगों ने बताया कि कोई मेरे बारे में पूछताछ कर रहे थे। मैंने उन लोगो को सारी बात का विवरण दे दिया। दोनों ही लोग बहुत खुश हो गए - दरअसल सभी को मेरी चिंता खाए जाती थी। खासतौर पर मेरा बॉस... उसको लगता था कि कहीं मैं वैरागी न बन जाऊं। काम मैं अच्छा कर लेता हूँ, इसलिए उसको मुझे खोने का डर हमेशा लगा रहता था। जिस व्यक्ति में जड़ न हो, वो कहीं भी जा सकता है। आपने यदि हरमन हेस की ‘सिद्धार्थ’ पढ़ी हो तो आप यह बात थोड़ा अच्छी तरह से समझ सकेंगे।

खैर, बॉस कि ही तरह मेरी हाउसिंग सोसाइटी का सेक्रेटरी सोचता कि मैं रहता तो इतने बड़े घर में हूँ, लेकिन अकेले रहते रहते कहीं उसको खराब न कर दूं। आस पास ज्यादातर लोग परिवार वाले हैं। और एक अकेला आदमी केवल गलत कारणों से सभी का ध्यान आकर्षित करता है। लेकिन, अगर मैं शादी कर लेता हूँ, तो उन लोगों कि अपनी अपनी चिंता समाप्त हो जाती। इसलिए उन लोगों ने मौका मिलते ही मेरे बारे में जांच करने वाले व्यक्ति को अच्छी-अच्छी बातें बताई और मेरी इतनी बढाई कर दी जैसे मुझसे बेहतर कोई और आदमी न बना हो। शायद यही बाते शक्ति सिंह को भी पता चली हों और उन्होंने अपने घर में मेरे बारे में विचार विमर्श किया हो।

यह सभी संकेत सकारात्मक थे। अवश्य ही शक्ति सिंह के घर में मुझको पसंद किया गया हो। संध्या के फोन के बाद मुझे अब शक्ति सिंह के फोन का इंतज़ार था। पूरे दिन इंतजार किया, लेकिन कोई फोन नहीं आया। आखिरकार, शाम को करीब तीन बजे शक्ति सिंह का फोन आया।

“हेल्लो... रूद्र जी, मैं शक्ति सिंह बोल रहा हूँ ..”

“जी.. सर! नमस्ते! हाँ... बोलिए... आप कैसे हैं?”

“जी हम सभी बिल्कुल बढ़िया हैं! अगर आपको थोड़ी फुर्सत हो तो आपसे एक बहुत ज़रूरी बात करनी है। आप हमारे यहाँ एक बार फिर से आ सकते हैं?”

“जी.. बिल्कुल आ सकता हूँ। लेकिन मुझे दो दिन का समय तो लगेगा। अभी तो कौसानी में ही हूँ!”

“कोई बात नहीं। आप आराम से आइये। लेकिन मिलना ज़रूरी है, क्योंकि यह बात फोन पर नहीं हो सकती।”

“जी.. ठीक है” कह कर मैंने फोन काट दिया, और मन ही मन शक्ति सिंह को धिक्कारा।

‘अरे यार! यह बात सवेरे बता देते तो कम से कम मैं एक तिहाई रास्ता पार चुका होता अब तक!’

खैर, इतने शाम को ड्राइव करना मुश्किल काम था, इसलिए मैंने सुबह तड़के ही निकलने कि योजना बनाई। अपना सामान पैक किया, और रात का खाना खा कर लेटा ही था, कि मुझे फिर से शक्ति सिंह के नंबर से कॉल आया। मैंने तुरंत उठाया - दूसरी तरफ संध्या थी।

“संध्या जी, आप कैसी हैं?” मैंने कहा।

“जी..... मैं ठीक हूँ। .... आप कैसे हैं?”

“मैं भी बिल्कुल ठीक हूँ ... आपको फिर से देखने के लिए बेकरार हूँ...”

उधर से कोई जवाब तो नहीं आया, लेकिन मुझे लगा कि संध्या शर्म के मारे लाल हो गई होगी।

“संध्या?” मैंने पुकारा।

"जी... मैं हूँ यहाँ। बोलिए!”

“तो आप कुछ बोलती क्यों नहीं?”

“..... आपको मालूम है कि आपको पिताजी ने क्यों बुलाया है?”

“कुछ कुछ आईडिया तो है। लेकिन पूरा आप ही बता दीजिए।”

“जी... पिताजी आप से हमारे बारे में बात करना चाहते हैं.....” जब मैंने जवाब में कुछ नहीं कहा, तो संध्या ने कहना जारी रखा, “.... आप सच में मुझसे शादी करेंगे?”

“क्या आपको लगता है कि मैंने मजाक कर रहा हूँ? आपसे मैं ऐसा मजाक क्यों करूंगा?”

“नहीं नहीं... मेरा वो मतलब नहीं था। हम लोग बहुत ही साधारण लोग हैं... आपके मुकाबले बहुत गरीब! और... मैं तो आपके लायक बिल्कुल भी नहीं हूँ... न आपके जितना पढ़ी लिखी, और न ही आपके तौर तरीके जानती हूँ..”

“संध्या... मुझे लगता है कि मैं आपके लायक नहीं! और... शादी का मतलब अंत नहीं है... यह तो हमारी शुरुआत है। मैं तो चाहता हूँ कि आप अपनी पढ़ाई जारी रखिए। खूब पढ़िए – मुझसे ज्यादा पढ़िए। भला मैं क्यों रोकूंगा आपको। रही बात मेरे तौर तरीके सीखने की, तो भई, मेरा तो कोई तरीका नहीं है... बस मस्त रहता हूँ! ठीक है?”

“जी...”

“तो फिर जल्दी ही मिलते हैं.. ओके?”

“ओ.. के..”

“और हाँ, एक ज़रूरी बात... आई लव यू टू”

जवाब में उधर से खिलखिला कर हंसने कि आवाज़ आई।
 
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अगली सुबह सूर्य कि पहली किरण के साथ ही मैं संध्या से मिलने निकल पड़ा। मौसम अच्छा था - हलकी बारिश और मंद मंद बयार। ऐसे में तो पूरे चौबीस घंटे ड्राइव किया जा सकता है। लेकिन, पहाड़ों पर थोड़ी मुश्किल आती है। खैर, मन कि उमंग पर नियंत्रण रखते हुए मैंने जैसे तैसे ड्राइव करना जारी रखा - बीच बीच में खाने पीने और शरीर कि अन्य जरूरतों के लिए ही रुका। ऐसे करते हुए शाम ढल गई, लेकिन फिर भी संध्या का घर कम से कम पाँच से छः घंटे के रास्ते पर था। बारिश के मौसम में, और वह भी शाम को, पहाड़ों पर ड्राइव करने के लिए बहुत ही अधिक कौशल चाहिए। अतः मैंने वह रात एक छोटे से होटल में बिताई। अगली सुबह नहा धोकर और नाश्ता कर मैंने फिर से ड्राइव करना शुरू किया और करीब छह घंटे बाद शक्ति सिंह जी के घर पहुँचा।

सवेरे निकलने से पहले मैंने उनको फोन कर दिया था कि आज ही आने वाला हूँ, इसलिए उनके घर पर सामान्य दिनों से अधिक चहल पहल देख कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। दरवाज़े पर शक्ति सिंह जी और नीलम ने मेरा स्वागत किया और फिर मुझे घर के अन्दर पूरे आदर और सम्मान के साथ लाया गया। घर के अंदर चार पाँच बुजुर्ग पुरुष थे - उनमे से एक तो निश्चित रूप से पण्डित लग रहा था। जान पहचान के समय यह बात भी साफ़ हो गई। शक्ति सिंह वाकई आज मेरे प्रस्ताव को अगले स्तर पर ले जाना चाहते थे। उन बुजुर्गों में दो लोग शक्ति सिंह के बड़े भाई थे, और बाकी लोग उस समाज के मुखिया थे। भारतीय शादियाँ, विशेष तौर पर छोटी जगह पर होने वाली भारतीय शादियाँ काफी जटिल और पेचीदा हो सकती हैं - इसका ज्ञान मुझे अभी हो रहा था।

ऐसे ही हाल चाल लेते हुए, बातें करते हुए, और लगभग पूरे समाज से मिलते हुए, दोपहर का खाना जमा दिया गया। बहुत ही रुचिकर गढ़वाली खाना परोसा गया था - पेट भर गया, लेकिन मन नहीं। अब आप कहेंगे कि ससुराल का खाना तो पसंद आएगा ही! लेकिन वो बात नहीं है। नाश्ता सवेरे किया था, इसलिए भूख तो जम कर लगी थी - इसलिए मैंने तो डटकर खाया। लेकिन सादे खाने में भी इतना स्वाद हो सकता है, इस बात का ख़याल मुझे एक बहुत अर्से के बाद हुआ। खाना खाते हुए अन्य लोगों से मेरे उत्तराँचल आने, मेरी पढ़ाई लिखाई और काम के विषय में औपचारिक बातें हुईं। वैसे भी उन लोगों को अब मेरे बारे में काफी कुछ मालूम हो चुका था, लेकिन वहाँ बात करने के लिए कुछ तो होना चाहिए - ऐसा सोच कर बस औपचारिकता निभाई जा रही थी। वैसे भी, गंभीर विषय पर जो चर्चा होनी थी, वो सब खाने के बाद ही होनी थी।

शक्ति सिंह जी ने कहा, “रूद्र जी, मैं जानता हूँ कि आप बहुत अच्छे आदमी हैं, और आपके जैसा वर ढूंढना मेरे अपने खुद के बस में संभव नहीं है... और मैं यह भी जानता हूँ कि आप मेरी बेटी को बहुत जिम्मेदारी और प्यार से रखेंगे। लेकिन.. यह सब बातें और आगे बढ़ें, इसके पहले मैं आपको बता दूं कि हम लोग अपनी परम्पराओं में बहुत विश्वास रखते हैं।”

मैंने सिर्फ अपना सर सहमति में हिलाया... शक्ति सिंह ने बोलना जारी रखा, “.... वैसे तो हम लोग अपने समाज के बाहर अपने बच्चों को नहीं ब्याहते, लेकिन आपकी बात कुछ और ही है। फिर भी, जन्मपत्री और कुंडली तो मिलानी ही पड़ती है न...”

“मुझे इस बात पर कोई ऐतराज नहीं... आप मिला लीजिए… लेकिन कुंडली नहीं है मेरे पास!” मैंने मन ही मन शक्ति को उनकी मूर्खता के लिए कोसा, ‘कहीं ये बुड्ढा (पंडित) कचरा न कर दे’

“आप उसकी चिंता न करें!” उन्होंने मेरी बात पर होने वाले लोगों के ठहाकों के बीच कहा, “इसके लिए मैंने पंडित जी को बुलाया हुआ है... आप बस अपनी जन्म तिथि, जन्म का समय और जन्म-स्थान बता दीजिए। पंडित जी इसका मिलान कर देंगे।”

“जी ठीक है ... बिलकुल ..” यह कह कर मैंने पंडित को अपने जन्म सम्बंधित सारे ब्योरे दे दिए।

पंडित ने अपने मोटे-मोटे पोथे खोल कर न जाने कौन सी प्राचीन, लुप्तप्राय पद्धति लगा कर हमारे भविष्य के लिए निर्णय लेने कि क्रिया शुरू कर दी। यह सब करने में करीब करीब एक घंटा लगा होगा उस मूर्ख को। खैर, उसने अंततः घोषणा करी कि लड़का और लड़की के बीच अष्टकूट मिलान छब्बीस हैं, और यह विवाह श्रेयष्कर है। यह सुनते ही वहां उपस्थित सभी लोगों में ख़ुशी कि लहर दौड़ गई - खासतौर पर मुझमें। चूंकि घर कि सारी स्त्रियां और लड़कियां घर के अंदर के कमरों में थीं, इसलिए मुझे उनके हाव-भाव का पता नहीं।
 
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खैर, इस घोषणा के बाद शक्ति सिंह और उनकी पत्नी दोनों ने मुझे कुर्सी पर आदर से बिठा कर मेरे मस्तक पर तिलक लगाया और मिठाई खिलाई। मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा था - खैर, मैं भी बहती धारा के साथ बहता जा रहा था। ऐसे ही कुछ लोगों ने टीका इत्यादि किया - अभी यह क्रिया चल ही रही थी कि बैठक में संध्या आई। उसने लाल रंग की साड़ी पहनी हुई थी - शायद अपनी माँ की। हिन्दू रीतियों में लाल रंग संभवतः सबसे शुभ माना जाता है। इसलिए शादी ब्याह के मामलों में लाल रंग की ही बहुतायत है। साड़ी का पल्लू उसके सर से होकर चेहरे पर थोड़ा नीचे आया हुआ था - इतना कि जिससे आँख ढँक जाए।

‘क्या बकवास!’ मैंने मन में सोचा, ‘इतनी दूर तक आया... और चेहरा भी नहीं देख सकता ..!’

खैर, संध्या को मेरे बगल में एक कुर्सी पर बैठाया गया। वहाँ बैठे समस्त लोगों के सामने हम दोनों का विधिवत परिचय दिया गया। उसके बाद पंडित जी ने घोषणा करी कि वर (यानि कि मैं), वधु (यानि कि संध्या) से विवाह करने की इच्छा रखता हूँ, और यह कि दोनों परिवारों (मैं तो कब से तैयार बैठा था) के और समाज के वरिष्ठ जनों ने इस विवाह के लिए सहमति दे दी है। उसके बाद सभी लोगों ने हम दोनों को अपनी हार्दिक बधाइयाँ और आशीर्वाद दिए। मैंने और संध्या ने एक दूसरे को मिठाई खिलाई।

पंडित ने एक और दिल तोड़ने वाली बात की घोषणा कर दी कि चूँकि अभी चातुर्मास चल रहा है, इसलिए विवाह की तिथि नवम्बर में निश्चित हुई है। मेरा मन हुआ कि इस बुढ़ऊ का सर तोड़ दिया जाए। खैर, कुछ किया नहीं जा सकता था। बस इन्तजार करना पड़ेगा। यह भी तय हुआ कि शादी पारंपरिक रीति के साथ करी जाएगी। यह सब होते होते शाम ढल गई। इस गहमागहमी के बीच में पंद्रह बीस मिनट मुझे संध्या से कुछ देर, एकांत जैसी हालत में बात करने का अवसर मिला।

“आप खुश हैं?” मैंने संध्या से पूछा।

उसने सर हिला कर “हाँ” कहा।

“अरे यार! ऐसे इशारों में बात नहीं जमती। मैंने वापस बैंगलोर चला जाऊँगा तो उसके लिए कम से कम अपनी आवाज़ तो सुना दीजिए! ऐसे इशारे से बातें करेंगी तो वहां जा कर इतना दिन कैसे रहूँगा आपके बिना?” मैंने ठिठोली करी।

“जी मैं बहुत खुश हूँ” संध्या ने खिलखिला कर हँसते हुए कहा।

कुछ देर उससे बात हुई कि कुछ और मिलने मिलाने वाले लोग आ गए। फिर उसके बाद एकांत नहीं मिल सका। खैर, शाम होने पर उन लोगों ने मुझसे रात में वहीं रुकने का अनुरोध किया, लेकिन मैंने उनसे विदा ली। शादी से पहले ससुराल में नहीं रुकना चाहिए। और मेरे वहाँ रुकने पर हो सकता है उनको और भी बोझ महसूस हो, इसलिए मैंने अपने पहले वाले होटल में रात गुजारी। होटल के मालिक ने मुझे बधाई दी, और मुझे मुफ्त में रात का खाना खिलाया।

सवेरे उठने के साथ मैंने सोचा कि अब आगे क्या किया जाए! शादी के लिए छुट्टी तो लेनी ही पड़ेगी, तो क्यों न यह छुट्टियाँ बचा ली जाए, और वापस चला जाया जाए। इस समय का उपयोग घर इत्यादि जमाने में किया जा सकता था। अतः मैंने सवेरे ही शक्ति सिंह के घर जा कर अपनी यह मंशा उनको बतायी। उन्हीं के यहाँ खाना इत्यादि खा कर मैंने वापसी का रुख लिया। दुःख की बात यह कि जाते समय संध्या से बात भी न हो सकी और न ही मुलाकात।

‘दकियानूसी कि हद!’ खैर, क्या कर सकते हैं!

खैर, वहाँ से निकल कर मैं वापस बैंगलोर में अपने घर कब आ गया, मुझे उसका कुछ पता ही नहीं चला। समय कहाँ उड़ गया, कब उड़ गया, मुझे उसका कोई ख़याल ही नहीं रहा - बस अपने खयालो कि दुनिया में ही घूमता रहा। कुछ याद नहीं कि कब ड्राइव करके वापस देहरादून पहुँचा और कब वापस घर!

संध्या के लिए मेरे प्रेम ने मुझे पूरी तरह से बदल दिया था। सुना था, कि लोग प्रेम के चक्कर में पड़ कर न जाने कैसे हो जाते हैं, लेकिन कभी यह नहीं सोचा था कि मेरा भी यही हाल होगा। घर पहुँचने के बाद मैं जो भी कुछ कर रहा था, वह सब संध्या को ही ध्यान में रख कर कर रहा था। बेडरूम की सजावट कैसी हो, उसमे रंग रोगन कैसा हो - यह सब सोचने लगा। उन रंगों के तर्ज़ पर नया बेड और नयी अलमारियां खरीदीं, खिड़कियों के परदे और दीवारों की सजावट सब बदलवा दी। बालकनी में फूलों वाले नए पौधे लगवा दिए, जिससे संध्या के आने तक उनमें बहार आ जाए। चिड़ियों के चुग्गे के लिए दो तीन बर्ड-फ़ीडर लगाए, जिससे उनको यहाँ आ कर चहकने की आदत पड़ जाए। यह सब कुछ बस इसलिए जिससे संध्या का प्रकृति से जुड़ाव बना रहे। उत्तराँचल तो बैंगलोर नहीं लाया जा सकता, लेकिन प्रकृति से संपर्क तो कहीं भी बनाया जा सकता है।

मुझे जानने वाले सभी लोग आश्चर्यचकित थे। मेरे जैसे बैरागी के अंदर ऐसे सकारात्मक बदलाव देख कर सभी को हैरत होती। लेकिन जब मेनका जैसी संध्या मेरे जीवन में आ गई थी, तो बिना वजह विश्वामित्र बने रहने का क्या मतलब! इन कुछ महीनों में मैंने क्या क्या किया, उसका ब्यौरा तो नहीं दूंगा, लेकिन अगर कुछ ही शब्दों में बयान करना हो तो बस इतना कहना काफी होगा कि ‘प्यार में होने’ का एहसास गज़ब का था। ऐसा नहीं था कि मैं और संध्या फोन पर दिन रात लगे रहते थे - वास्तविकता में इसका उल्टा ही था। विवाह के अंतराल तक हमारी मुश्किल से पांच-छः बार ही बात हुई थी, और वह भी निश्चित तौर पर उसके परिवार वालो के सामने। लिहाज़ा, मिला-जुला कर कोई पांच-छः मिनट! बस! मतलब, सगाई से शादी तक बस कोई आधा घंटा बात! लेकिन फिर भी, उसकी आवाज़ सुन कर दुनिया भर की एनर्जी भर जाती मुझमें, जो उसके अगले फोन कॉल तक मुझको जीवित रखती।

मेरा सचमुच का कायाकल्प हो गया था।
 

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