Thriller पता, एक खोये हुए खज़ाने का

Member

0

0%

Status

Offline

Posts

125

Likes

33

Rep

0

Bits

0

3

Years of Service

LEVEL 2
80 XP
राजू के हाथों में आज उसके पिताजी का सामान शिफ्ट करते वक्त एक छोटी, मगर बहुत पुराणी डायरी आई थी. उसने वह डायरी पर नजर डाली. उस पर हाथ से बनी हुई, मगर कोई रहस्यमय आकृतियाँ थी. राजू की आँखें अचरज से फ़ैल गई. वह कोई स्थान के नक्से जैसी लगती थी. उसने याद करने की कोशिश की. वह किसी देश का नक्सा तो नहीं लगता था! फिर वह किस भू प्रदेश का नक्सा होगा? वह मन ही मन सोचने लगा.
उसके पिताजी को चल बसे आज पंद्रह दिन गुजर गए थे. पिछली बरसात में उनका घर बहुत रिसा था; अथ, उनकी मम्मी और उसने इस बरसात से पहले ही अपने घर की मरम्मत करवाना तै कर लिया था. इसलिए पिताजी के क्रिया कांड के बाद तुरंत राजू ने एक किराए का नया मकान देखकर सामान शिफ्ट करना शुरू कर दिया. तभी उनके हाथों यह डायरी लगी.
अंगूठे से उस डायरी के पन्नों को फिराकर एक नजर उसने देखा, फिर उसे अपनी जेब में रख लिया. यूँ तो उसने हलकी सी ही नजर डाली थी, पर उसके दिमाग को किसी बड़े राज़ की भनक लग गई.
साम होने को आई थी. मई की गर्मियां अपने उफान पर थी. राजू प्रस्वेद से लथपथ होकर जरा फ्रेश होने के इरादे से बाथरूम की और चला.
"मम्मी, ज़रा चाय बनाना!" बाथरूम से निकलते हुए उसने मम्मी को आवाज दी. फिर वह उस डायरी को हाथ में लिए, चाय का इन्तेजार करते हुए पढ़ने लगा.
उसके पापा ने नोट किया था. शुरुआत में कुछ दिनचर्या के नोट्स थे. मगर आगे जो कुछ था उसने राजू के दिमाग को घुमा दिया.
दिनांक १८ जुलाई १९७९; दादाजी के वह नौकर का आंशिक परिचय मिल गया है जो हमें उस जगह तक पहुँचाएगा. वह उसके बारें में सब कुछ जानता है. नाम नानु. जेन्गा बेत (काल्पनिक बेत) पर रहता है.
दिनांक २७ अगष्ट १९७९; वह नक्सा, चाबी और तस्वीर मिल गई है.
दिनांक २१ फरवरी १९८०; चन्द्रभाल टंन्देल से एक बोत की व्यवस्था कर ली गई है.
दिनांक १ मार्च १९८०; किराए पर बोत के एक मशीन की व्यवस्था हो गई.
दिनांक ३ मार्च १९८०; सफर के लिए जरूरी साधन कम्पास, ओक्तंत, शिप लोग की व्यवस्था हो गई हैं.
दिनांक ७ मार्च १९८०; बोत की मरम्मत के लिए जरूरी औजार प्राप्त कर लिए गए हैं.
दिनांक २६ मार्च १९८०; जरूरी बंदूकों, गोला बारूद और अन्य हथियार आ पहुंचा हैं.
दिनांक ९ अप्रैल १९८०; रसोई का सामान और तीन माह के लिए आवश्यक भोजन सामग्री की व्यवस्था हो गई हैं.
दिनांक २७ अप्रैल १९८०; कल सुबह सब को समुद्र में उठने वाले संभावित तूफ़ान की वजह से अभियान विलम्ब में पड़ने के बारें में सूचित करना हैं. और नई तारीख तै करनी है.
यह सब पढ़ कर उसे आश्चर्य हो रहा था. उनकी समझ में यह सब नहीं आ रहा था! क्यूंकि वह जहां तक जानता था, उसके पापा ने कभी कोई लम्बी समुद्री सफर नहीं की थी. अगर की होती तो उसके पापा ने उसे जरूर बताया होता. यह जरूर कोई छिपा हुआ बड़ा राज़ है.
आगे भी बहुत कुछ था पर इतने में ही उनकी मम्मी हाथों में चाय के प्याले लिए आ पहुंची.
"क्या हुआ बेटा? क्या सोच रहा है? क्या है वह?" उसकी मम्मी ने चाय का प्याला बगल में रखते हुए सवाल किए.
"क्या मम्मी! पापा कभी लम्बी समुद्री सफर पर गए थे?" उसने पूछा.
"नहीं! क्यूँ? उसने कभी ऐसा बताया नहीं था!" उसकी मम्मी ने आश्चर्य प्रगट किया.
राजू ने वह डायरी अपनी मम्मी के हाथों में रख दी. और चाय का प्याला उठाकर मम्मी की और टकटकी लगाए देखने लगा.
उसकी मम्मी ने डायरी पढ़ना शुरू किया. उसकी आंखे फट गई!
इसमें तो समुद्री सफर पर चलने की सारी तैयारी करने की बात है! पर उसने कभी बताया नही|! और ये सब तवारीख तो हमारी सादी से पहले की है!" मम्मी बोली.
"और ये क्या? बंदूकें और गोला बारूद!? वें कोई लड़ाई पर गए थे क्या?" विस्मय में पड़ती हुई मम्मी बोली.
"ये लोग जरूर कोई ख़ास मकसद से ही समुद्र में गए होंगे. वर्ना गोलाबारूद और बंदूकें लेकर घूमने थोड़े ही कोई जाता हैं ?" मम्मी ने कोई अज्ञात रहस्य की और संकेत किया.
"और ये हेंड राइतींग तो तुम्हारे पापा की ही है!"
"पर हाँ, तुम्हारे दादा और उनके पिताजी जरूर बड़े नाविक हुआ करते थे. और उसने अपनी सारी जवानी समुद्र में ही बिताई थी. पर तुम्हारे दादाजी ने तुम्हारे पापा को कभी भी समुद्र में जाने की सलाह नहीं दी. और तुम्हारे पापा अगर समुद्र की सफर पर कभी गए भी थे तो फिर हमसे छिपाया क्यूँ? छिपाने की वजह क्या हो सकती है?" मम्मी शिकायती अंदाज में बोले जा रही थी.
उस डायरी में आगे भी बहुत कुछ था मगर दोनों के पल्ले नहीं पड़ रहा था. कुछ आंकड़ो और शब्दों की गुथ्थियाँ थी. जो दोनों की समझ से परे थी.
आगे था.
दिनांक २ जून १९८०; परसों सफर पर चलने के बारें में अंतिम तैयारी के लिए मुलाकात करनी है. और ११ जून को हमें सफर पर निकल जाना है.
पीछे के पन्नों का कोई अता पता नहीं था; सो,, दोनों जुन्ज्ला उठे.
"आगे के पन्ने कहाँ है?" मम्मी ने पूछा.
"पता नहीं." राजू ने उत्तर दिया.
"उसमे कौन से नक्सकी बात की गई है? क्या आप को पता है मम्मी?" राजू ने पूछा.
"नहीं! मुझे तो कभी किसी ने कुछ बताया ही नहीं." मम्मी कुछ याद करते हुए बोली.
"और ये जो पत्र लिख कर यात्रा टालने की बात की जा रही है वें कौन होंगे? मम्मी ने सवाल किया.
"मुझे लगता है पापा के फ्रेंड हरीचाचा, कृष्णा अंकल, संकर्चाचा या लखन अंकल में से कोई हो सकते हैं!" राजू कुछ सोचते हुए बोला.
"इन लोगों को पूछना चाहिए!" राजू ने दोहराया.
"हं, जाने दो! अब हमें इन सब बातों से क्या मतलब." कहते हुए मम्मी डायरी पटक कर चाय के खाली प्याले लेकर चली गई.
राजू भी फिर से खड़ा हुआ और सामान शिफ्ट करने में लग गया. पर उसके दिमाग ने उस सफर और नक्से का पीछा नहीं छोड़ा. उसके दिमाग में तरह तरह के कई प्रश्न पैदा हो रहे थे.
आखिर पापा ने ऐसी कोई सफर की थी तो मम्मी या उसे कभी कुछ बताया क्यूँ नहीं? वह नक्शा किस जगह का होगा? अब वह नक्शा कहाँ है? पापा के साथ सफर पर चलनेवाले वें सारें लोग कौन होंगे? पापा के दादाजी का वह नौकर कौन है? और वह क्या जानता है? आखिर उस यात्रा का क्या हुआ?
काम करते करते वह उस खोये हुए पन्नों का भी खास खयाल करता जाता था. वह हर एक चीज को बारीकी से देखता जा रहा था. आखिर वे पन्ने गए कहाँ? अगर वे मिल जाए तो कुछ बात बने. वह मन में ही बुदबुदा रहा था. आखिर में उसने कृष्णा अंकल से कुछ जानकारी प्राप्त करने की सोची.
यहाँ हम अपनी कहानी के मुख्य पात्रों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त कर लेते हैं.
राजू के पापा हसमुख चौहान और कृष्णा शेरावत दोनों बहुत ही खास दोस्त थे. दोनों की पढ़ाई एक साथ ही हुई थी. उनके यूँ तो कई दोस्त थे, पर वे दोनों अपनी छोटी से छोटी बात सायद किसी को न बताए, पर एक दूसरे को अवश्य बताया करते थे.
हसमुख के पिताजी परबत एक जानेमाने नाविक का बेटा हुआ करता था. वह खुद भी एक अच्छा नाविक था. पर उसने अपने बेटे हसमुख को इजनेर बनाकर समुद्र से दूर ही रखा.
हसमुख एक जानीमानी कंपनी में इजनेर के रूप में काम करता था और दो माह पूर्व ही निवृत्त हुआ था.
जब की कृष्णा के पिताजी व्यापारी थे. कृष्णा ने भी अपने पिताजी के व्यवसाय को अपनाया था और दस साल पूर्व अपने परिवार सहित UK में जा बसा था. हर एक दो साल में कृष्णा अपने परिवार सहित इंडिया आता था तब दोनों परिवार करीब करीब साथ ही रहते थे. कहीं घूमने जाना हो तब भी दोनों परिवार साथ ही चलते थे.
कृष्णा को दो बेटियाँ थी जेसिका और याना. जेसिका Biological anthropology में आदिवासियों पर PHD कर रही थी और याना अभी फर्धर एज्युकेशन (हाई स्कूल) की छात्रा थी. ये दोनों बहिनों और राजू में बचपन से गहरी दोस्ती हो गई थी.
राजू अपने मम्मी पापा की एक लौटी संतान थी. उसने इंजीनियरिंग समाप्त करने के बाद इसी साल सी कप्तान की तालीम ली थी. और अब जॉब के लिए अप्लाई कर रहा था.
साम को राजू ने फुर्सत पा कर उनके पापा के खास मित्र कृष्णा अंकल, जो अब UK में बस गए थे, उन्हें फोन मिलाया. कृष्णा हसमुख के देहांत की वजह से इंडिया आया हुआ था और अभी तीन दिन पूर्व ही UK लौटा था.
"हेल्लो बेटा! कैसे हो?" सामने से आवाज आई.
"बढ़िया... वहां सब के हाल कैसे हैं?" राजू ने पूछा.
"यहाँ सब ओके है. बताओ तुम्हारी मम्मी का हाल तो ठीक है न?" अंकल बोले.
थोड़ी देर इधर उधर की बात की. फिर राजू ने मूल बात छेड़ी.अंकल, आप भी पापा के साथ उस सफर पर गए थे न?" राजू ने थोड़ा तेड़ा सवाल किया.
"कौन सी सफर?" अंकल ने अनभिज्ञता प्रगट की.
"वहीँ, १९८० वाली..." राजू ने बताया.
कुछ देर चुप्पी रही. फिर आवाज आई.
"नहीं! में तो ऐसी कोई सफर पर नहीं गया था!" अंकल ने अनजान बनते हुए कहा.
पर राजू ने कृष्णा अंकल की आवाज़ में हलकी लड़खड़ाहट महसूस की.
"फिर पापा के साथ कौन कौन गए थे? क्या आप को पता है?" राजू ने फिर सवाल दागा.
"पर तुम यह सब क्या पूछ रहे हो? तुम्हारे पापा कहीं घूमने गए होंगे! आखिर वह खारवा का ही तो बेटा था. पर इन सब बातों का अब क्या मतलब?" अंकल ने थोड़े जुन्जलाते हुए कहा.
"बस, ऐसे ही. सिर्फ उत्सुक्तावश पूछ रहा हूँ." राजू ने बात टालते हुए कहा.
फिर थोड़ी राजू के जॉब सम्बन्धी बातें हुई और कोल डिस्कनेक्ट हो गया.
राजू निराश हो कर बैठा. सोचने लगा; या तो अंकल बात छिपा रहे है या फिर वें सचमुच में कुछ नहीं जानते. पर इस दोनों स्थिति में उसके हाथ कुछ नहीं लगने वाला हैं.
रात्रि भोजन के बाद राजू टेलिविज़न पर मूवी देखते हुए बैठा था की उसको अपने मोबाइल की याद आ गई. आज उसने सुबह से कोई वोत्सेप मेसेज चेक ही नहीं किये थे. उसने अपना मोबाइल उठाया. देखा, कृष्णा अंकल की बड़ी बेटी जेसिका का मेसेज था.
"क्या बात है? तुम्हारी पापा के साथ बात हो रही थी तब मैं वहीँ बैठी हुई थी! तुम्हारी बात सुनकर पापा गभरा गए थे. ऐसी क्या बात हो गई?"
 
OP
B
Member

0

0%

Status

Offline

Posts

125

Likes

33

Rep

0

Bits

0

3

Years of Service

LEVEL 2
80 XP
क्या बात है? तुम्हारी पापा के साथ बात हो रही थी तब मैं वहीँ बैठी हुई थी! तुम्हारी बात सुनकर पापा गभरा गए थे. ऐसी क्या बात हो गई?"
"ओह! जेसिका. अच्छा हुआ जो तुमने मेसेज छोड़ा. अब फ्री हो तो रूबरू ही थोड़ी बात करते हैं ." इतना टाइप करते ही उसने सेंड बटन दबा दिया.
थोड़ी देर तक जवाब का इन्तेजार किया. पर कोई रिप्लाय न पा कर वह सोने चला. डायरी की ही गुत्थी में उल्जा वह करवटे बदल रहा था, तभी मोबाइल की रिंग बज उठी. उसने स्क्रीन पर नजर डाली. फोन जेसिका का था. फ़टाफ़ट से उसने मोबाइल रिसीव किया.
राजू: "हेल्लो जेसिका! क्या बता रही थी? क्या मेरी बात सुनकर अंकल सचमुच गभरा गए थे?"
जेसिका: "जी हाँ, पर बात क्या है?"
राजू ने डायरी वाली और वह रहस्यमय सफर वाली बात जेसिका को बता दी. वह भी सोच में पड़ गई.
जेसिका: "पापा ने भी ऐसे कोई सफर की बात का जिक्र हम लोगों से कभी किया नहीं. पर जिस प्रकार से तुम्हारी बात सुनकर पापा गभरा गए थे उससे एक बात तो तै है की पापा ऐसे किसी सफर के बारें में कुछ न कुछ जानते अवश्य हैं."
राजू: "फिर सवाल यह उठता है की वें इस बात को छिपा क्यूँ रहे हैं ?"
जेसिका के मन में भी इस रहस्यमय सफर को लेकर बड़ी खलबली मच गई थी. दोनों इस रहस्य को सुल्जाने के लिए थोड़ी देर तक बातें करते रहे. पर यह रहस्य जस का तस रहा.
"अच्छा, तो मैं कल मम्मी से कुछ पता लगाने की कोशिश करूंगी. सायद उसे कुछ पता हो!" कहते हुए जेसिका ने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया.
उस रात जेसिका ने अपनी छोटी बहन याना को भी इस रहस्यमय सफर से अवगत किया. पर जैसी उम्मीद थी, उसे भी इस सफर के बारें में कुछ पता नहीं था.
दूसरे दिन जब कृष्णा अंकल अपने व्यवसाय पर चले गए, तब जेसिका ने मौका देखकर अपनी मम्मी से इस बात का जिक्र किया. और राजू को मिली हुई पुरानी डायरी, वह रहस्यमय समुद्री सफर और पापा का इस सफर के बारें में सुनकर गभरा जाना; सारा घटनाक्रम कह सुनाया. और जानना चाहा की यदि वह उस रहस्यमय सफर के बारें में कुछ जानती हो!
जेसिका की मम्मी ने दिमाग पर जोर डाला. और कुछ याद करने की कोशिश की. पर आखिर उसने भी वहीँ बात दोहराई की उसे भी इस सफर के बारें में कुछ नहीं पता. कुछ देर बाद अचानक उसे जैसे कुछ याद आया हो, उसने जेसिका को आवाज़ लगाई.
"अरे हाँ, जेसिका! एक बात है!"
"जब कभी तुम्हारे पापा किसी पार्टी में से ड्रिंक का ओवरडोज़ लेकर लौटते हैं, तब वह कई बार नशे की हालत में बहुत कुछ अनापसनाप बकते हैं. जो मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता, पर कई बार वह किसी विनु और जगा नाम के अजनबी आदमियों से रोते हुए बहुत माफी मांगता है. और अपने को कायर बताता है. कहता है: "हम सब कायर थे इसलिए तुम दोनों को वहां मरने के लिए छोड़ कर भाग निकले. हमें माफ़ कर दो. फिर छोटे बच्चे की भांति रोने लगता है. पर मैं सुबह इस सन्दर्भ में कोई जिक्र करती हूँ तो वें अनजान बनकर बात को ताल जाते हैं."
जेसिका के दिमाग को जैसे बिजली का करंट लगा! "एक और रहस्य! जरूर कोई राज़ की बात तो है!" सोच में पड़ती हुई जेसिका अपने आप ही बुदबुदाई. इस का ताग तो अवश्य लगाना ही पड़ेगा!
तुरंत जेसिका ने राजू को फोन मिलाया. और विनु और जगा नाम के दो अजनबियों और उसकी मौत के बारें में सूचित किया. यह सुन, राजू का भेजा भी चक्कर्गिनी की भांति घूम गया. दोनों ने इस गुत्थी के तार मिलाने की कोशिश की,. पर दोनों ने महसूस किया की इसमें अभी भी बहुत कुछ मिसिंग है.
"अंकल तो सायद कुछ न बताएँगे. इसलिए अब तो संकरचाचा, हरीचाचा या लखन अंकल से ही इस बारें में कुछ पता लगाने की कोशिश करनी पड़ेगी." राजू बोला.
"हाँ, सायद वे कुछ बताएं! तुम उससे मिलकर कोई इन्फार्मेशन निकालने की कोशिश करो." जेसिका ने कहा.
घर की मरम्मत में एक हफ्ता निकल गया. इस दौरान राज़ के बारें में आगे कोई प्रगति न हो सकी. पर राजू का दिमाग इस रहस्य के बारें में बहुत कुछ सोचता रहा. दरम्यान उसने एक योजना बनाई. उसने अपने पापा की याद में एक छोटी सी पार्टी ""मेमरीज़ विथ पापा"" का आयोजन किया. और अपने पापा के करीबी दोस्तों को निमंत्रकुछ दिन बाद वह दिन भी आ पहुंचा. उसके पापा के फेवरेट बीच पर ही उसने टेबल खुरसियाँ लगा दी थी. राजू ने शराब की बोतलें भी अपने पापा के पसंद की ही ला रखी थी. पार्टी में ज्यादा तड़कभड़क तो नहीं थी; मगर मंचिंग में गोल्डन चिकन फ्राई; जो हसमुख को पसंद थी; ऑर्डर देकर बनवा ली थी. राजू अपने पापा के साथ कई बार पार्टियों में सरीक होता था. वह बड़ों के सामने ड्रिंक तो नहीं करता था पर अपने लिए कोल्ड ड्रिंक मंगवा लेता था. वह अपने पापा और उसके दोस्तों की लिमिटेशन के बारें में भी सब कुछ जानता था. किसके लिए कितने पेग ओवर हो जायेंगे; उसे पता था.
रात्रि नौ बजे लखन अंकल, संकरचाचा, हरीचाचा आ पहुंचे. कृष्णा अंकल UK में होने की वजह से अनुपस्थित थे. राजू अपने हाथों से शराब के पेग बना बना कर सर्व करता जा रहा था. और सब हसमुख के साथ की यादों को शेर कर रहे थे.
जैसे ही राजू को पता चला की अब इन लोगों पर नशा हावी है. ज्यादा सोचने समझने की हालत नहीं रह गई है. हो सकता है वे नशे की हालत में कोई राज़ खोल दें! इस उम्मीद में उसने मूल बात छेड़ी.
राजू ने लखन अंकल को सॉफ्ट टारगेट के रूप में चुना. क्यूंकि वह लखन अंकल के भावुक स्वभाव से भलीभांति परिचित था. उसने धीरे से लखन अंकल को पूछा:
"अंकल, आप भी उस सफर में शामिल थे न! जिसमे जगा और विनु अंकल की डेथ हो गई थी?" राजू ने पुरानी यादों को छेदते हुए पूछा.
यह सुनते ही लखन को जैसे बिजली का जोरदार झटका लगा. वह कुर्सी में से उछला. उनसे अपना संतुलन बनाए न रखा जा सका और दाहिनी बाजू लुड़क पड़ा. उसके बाएं पैर की ठोकर टेबल में ऐसे लगी की प्लास्टिक का टेबल उछल कर संकरचाचा की और बढ़ा. टेबल को यूँ अपना ग्रास करने बढ़ता देख, उससे बचने के चक्कर में संकरचाचा खुद हांफता चीखता कटे पेड़ की तरह मुंहफाड़े गिर पड़ा. शराब के गिलास सब इधर उधर बिखर गए. चिकन फ्राई की डिसें मिट्टी में मिल गई.
यह हालत देखकर हरीचाचा चिल्ला उठे: "ये लख्खू भी साला दो पेग ज्यादा क्या चढ़ लेता है, मुर्गा बनकर आसमान में उड़ चलता है. साले ने पार्टी में पंकचर कर दिया. और भेजे की हवा निकाल दी."
राजू ने लखन अंकल और संकरचाचा को उठाकर बैठाया. उनका हालचाल पूछा. कपड़े से मिट्टी साफ़ की. फिर मामले को संभालने की कोशिश करते हुए हरीचाचा को शांत करवाने लगा. टेबल ठीक करके उसने नए पेग बनाए.
"अंकल, आप उस बात से इतने गभराते क्यूँ हो? अब तो उस बात को इतने साल गुजर गए! वह तो एक दुर्घटना थी; पापा ने एकबार मुझे बताया था." राजू ने लखन अंकल की और देखते हुए उसी बात को आगे बढ़ाया.
फिर चिकन फ्राई की दिश बनाने लगा.
हरीचाचा और संकर्चाचा ने भी सुना. पर राजू किस बात की बात कर रहा है वह उन्हें समझ में सायद न आया; इसलिए वें अचरज से उन दोनों की और देखने लगे.
पर राजू की बात सुनते ही लखन अंकल जोर जोर से रोने लगे:हाय रे मेरे दोस्त जगला...! विनिया...! हमने थोड़ी सी, बस इत्ती सी ही तुम्हारी मदद की होती तो तुम लोग भी आज यहाँ, मेरे पास, इधर बैठकर पेग लगा रहे होते... जब से तुम बिछड़े हो तब से यहाँ, (अपने ह्रदय पर हाथ रखते हुए) इस कलेजे में आग लगी हुई है! क्या करूँ? कैसे बुझाऊ इस आग को!?" वह रोने लगता है.
लखन अंकल बहुत भावुक हो उठे. उन्हें रोता देख और विनु एवं जगा का नाम लेते देख हरीचाचा और संकरचाचा को भी बात समझ में आ गई. वें भी बहुत अफसोस प्रगट करते हुए रोने लगे.
राजू भी अपने पापा, विनु और जगा अंकल को याद करते हुए संताप करने लगा. भावुक होकर वह भी सभी से बारी बारी से लिपटा. और सब को आश्वासन दिया.
थोड़ी देर बाद राजू स्वयं शांत हुआ और सभी को दिलासा देते हुए शांत करवाने लगा. कहने लगा:
"शायद यहीं नियति को मंजूर था. आप लोगों ने भी वहीँ किया जो उस वक्त उचित था." असल घटना से परिचित न होने पर भी राजू ने जैसे सब कुछ जानता हो वैसे तुक्का लगाया.
राजू की बात का अच्छा प्रभाव पड़ा. उनकी बात सुनकर सब के मन को आराम मिला. वे शांत हुए. और नाक से सिस्याते हुए सब ने अपनी अपनी कुर्सी में ठीक से स्थान ग्रहण किया.
राजू ने फिर से पेग बनाकर सब को आग्रह करते हुए सर्व किए. फिर बोला:
"एक बार पापा बहुत दुखी हो रहे थे तब मैंने आग्रह किया तो उसने यह बात बताई थी. पर फिर पापा बहुत इमोशनल हो गए इसलिए पूरी बात बता न पाए. उस दिन पापा की हालत देखते हुए मैंने भी उसे ज्यादा कुछ न पूछा. और उसे आराम करने दिया. पर फिर मेरी स्कूल शुरू हो गई और मैं होस्टल चला गया. इसलिए फिर कभी पूरी बात जानने का मौका ही न मिला." राजू ने तुक्का लगाया.
"मैं तुम को पूरी बात बताता हूँ. बेटा आज तुम्हारी बात सुनकर मेरे कलेजे को ठंडक मिली है." कहते हुए लखन अंकल ने हरीचाचा और संकरचाचा की और देखा.
"संकरचाचा हाँ में सर हिलाते हुए बोले. "हाँ... हाँ... बताओ. हम भी कब तक इस बोझ को उठाये फिरते रहेंगे! दिल को हलका हो जाने दो आज तो.
लखन अंकल ने शराब का गिलास उठाते हुए घडी में देखा. रात्रि के बारह बजने को हुए थे. उसने शुरू किया.
क्रमशः
क्या हसमुख और उनके दोस्त कोई सफर पर गए थे? और गए थे तो सफर का हाल क्या हुआ? जगलो और विनु कौन हैं? और उनके साथ क्या हुआ? जानने के लिए पढ़ते रहिए.
 
OP
B
Member

0

0%

Status

Offline

Posts

125

Likes

33

Rep

0

Bits

0

3

Years of Service

LEVEL 2
80 XP
लखन अंकल ने शराब का गिलास उठाते हुए घडी में देखा. रात्रि के बारह बजने को हुए थे. उसने शुरू किया.
कहानी शुरू होती है हसमुख के दादा मेघ्नाथ्जी के लिखे पत्रों से. हसमुख के दादाजी जो "खारवा" (दरियाखेदु) प्रजाति से आते थे. और वह गोवा के एक बड़े व्यापारी के नावों के काफिले के मुख्य टन्देल हुआ करते थे. उस व्यापारी का बड़ा व्यवसाई अफ्रीका के देशों में चल रहा था. इसलिए परबत का अफ्रीका और इंडिया में लगातार आनाजाना लगा रहता था. यूँ कहिए, उसने अपना एक घर यहाँ तो दूसरा घर अफ्रीका के मोजाम्बिक में बसा रखा था. उसने अपनी कमाई में से दो छोटे जहाज बसा लिए थे. जो उसी काफिले के साथ प्रवास किया करते थे. और उसी व्यापारी के जहाजों के साथ उसके जहाज भी इंडिया और अफ्रीका के मडागास्कर व मापुतो में सामान एवं प्रवासियों को लाया ले जाया करते थे. इस प्रकार उसकी भी बहुत अच्छी कमाई हो जाया करती थी.
यह तब की बात है जब हम सब कॉलेज के फ़स्ट यर में थे. एक बार पुराना सामान खँगालते हुए हसमुख के हाथों में सं 1943 का उसकी दादी के नाम का एक कवर आया. उसने खोलकर देखा तो वह कुछ दिन के अंतराल पर उसके दादा मेघनाथजी के लिखे हुए कुछ कागज थे. एक कागज में कुछ स्थानों का चित्रण था और बाकी के कागज में लिखावट थी. उसने पढ़ना शुरू किया.
यह पत्र दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान लिखे गए थे. शुरुआत में औपचारिक संबोधन के बाद परिवार के हालचाल पूछे गए थे और फिर मुख्य विषयवस्तु थी.
तुम्हें भी सायद पता होगा. अभी पूरी दुनियाँ में लड़ाई छिड़ चुकी है. सारे समंदर पर लड़ाके जहाज़ों का कब्जा हो गया हैं. इस मौके का बदमुराद लश्कर वाले और समुद्री चोर लुटेरे भी अच्छा फायदा उठा रहे हैं. चारों और लूटफाट मच गई है. व्यापारियों के जहाज भी या तो लुट लिए जा रहे हैं या डुबो दिए जा रहे हैं. इस हाल में व्यापार करना अब तो बहुत मुश्किल हो गया है. हम भी अब घर को लौट रहे हैं. पर हमारे काफिले के पीछे लुटेरे पड़ गए थे. मुश्किल से हम उससे जान छुड़ाकर बरसों की मेहनत को एक समंदरभूमि में एक देवता के हवाले करने में सफल हुए हैं.
देखो; यहाँ चारों और मौत अपना खेल खेल रही है. मैं लौटूं या न भी लौटूं; तुम इसको सम्हालकर रखना. और कभी मौका मिले तो किसी बड़े की मदद लेकर खोज निकालना. या फिर जब परबत बड़ा हो जाये तब उसे बताना.
दूसरा कागज़, जो कुछ दिन बाद लिखा हुआ था, उसमे लिखा था:
इसके साथ जो मैं तुम्हें भेज रहा हूँ; वह पिछले वाले को पूरा करता है. समझो, पहला वाला ताला है तो यह कुंजी है. इसको भी उसके साथ ही सम्हाल कर रखना. मेरी जिंदगी भर की मेहनत है इसमें; इसको किसी गलत आदमी के हत्थे न चढ़ने देना; वर्ना उसका अंजाम वह भोकतेगा. इस कार्य में हमारा वह नौकर का बेटा तुम्हारी मदद करेगा. उसे तुम जानती हो. वह छोटा है इसलिए उसकी जिंदगी को मुसीबत में डालना मुझे मंजूर नहीं है. इसलिए हमने उसे वेस्ट इंडीज़ के नजदीकी एक जेन्गा बेत पर उतार दिया है.
पर उसके बाद हसमुख के दादाजी कभी लौट के नहीं आये. न तो उसका कोई अता पता मिला.
हसमुख ने अपनी दादी को पूछा था कि "क्या पिताजी ने इस धन को खोज निकालने की कभी कोशिश नहीं की?" जिसके उत्तर में उनकी दादी ने बताया था कि इस घटना के कुछ साल बाद हसमुख के दादाजी के जहाज पर काम करने वाले उनके कुछ नौकरों की रहस्यमय तरीके से मृत्यु हो गई थी. इन लोगों की मृत्यु पर गाँव में बात कुछ यूँ फैली थी कि उन लोगों ने अपने मालिक मेघ्नाथ्जी के धन को बेईमानी से प्राप्त करने की कोशिश की थी. जब उनको यह पता चला था कि अब मेघ्नाथ्जी की मृत्यु हो गई हैं और अब वे कभी नहीं लौटने वाले, तब वे उनके छिपे खज़ाने को धुन्धने गए थे. तो उन लोगों को वह धन तो मिला नहीं, पर उनके कुछ साथियों की रहस्यमय तरीके से मृत्यु हो गई. और जो भी ज़िन्दा रह गए, उनकी हालत भी ज्यादा ठीक नहीं रही. ऐसा कहा जाने लगा कि कोई अदृश्य सकती ने वह धन गायब कर दिया. और इस बेईमान नौकरों को भी उसी ने मारा. इसलिए मैं तुम्हारे बाप को कैसे जाने देती? हाँ, ये चाबी, तस्वीर और नक्शा भी मेघनाथजी ने इसी नौकरों के ज़रिये भेजा था. तभी उन्होंने धन का रास्ता पता कर लिया होगा. और वहां तक पहुंच गए होंगे.इतना कहते हुए लखन अंकल ने एक पूरा गिलास मुंह में उढ़ेल दिया. फिर शुरू किया.
सायद पुराने जमाने में धन का उतना मूल्य नहीं था या उस जमाने के लोगों को धन का कोई मोह नहीं था. इसलिए हसमुख के पिताजी ने इस धन को खोज निकालने की कोई कोशिश नहीं की. सायद उनकी माँ ने ही उसे ऐसा करने से रोका भी था. वह खुद एक अच्छा नाविक बन गया था और अच्छी कमाई कर रहा था. इसलिए सायद उसको उतनी फुर्सत ही न मिली हो.
एक दिन जब हम कॉलेज में गुल्ली मार कर कॉलेज की पिछवाड़े वाली झाड़ियों में बैठे हुए नीरा पी रहे थे, तब हसमुख ने यह सारी बात हमें बताई. उसकी बात सुनकर हम तो आसमान में उड़ने लगे. जैसे हमें किसी रहस्यमय तिलस्म का पता मिल गया हो! हम लोगों ने हसमुख को भी इसमें आगे कुछ प्रगति करने के लिए राजी कर लिया. फिर तो क्या था! हसमुख ने अपनी भोली दादी से बातों ही बातों में सारा राज उगलवा लिया. अपने दादाजी की वह सारी ख़ास ख़ास चीजें भी देख ली, जो उसकी दादी ने एक बड़े से बक्से में अन्य चीजों के साथ बहुत सम्हालकर रखी थी. उस नौकर के बेटे का परिचय भी प्राप्त कर लिया.
वह उसके दादाजी के एक वफादार नौकर का बेटा था. उसका परिवार भी मोजाम्बिक में हसमुख के दादाजी के पड़ोस में ही रहता था. जब नानू नौ दस साल का था तब उसके माँ बाप एक बीमारी में चल बसे थे इसलिए उसकी देखभाल की जिम्मेदारी हसमुख के दादाजी ने उठा ली थी. वह भी हसमुख के दादाजी के छोटे मोटे काम उत्साह से किया करता था. उसका जेन्गा बेत पर रहने का कोई अतापता तो था नहीं, पर उसके हुलिये का परिचय मिल गया.
वह अफ्रीका की सीदी जाती से था. उसके माथे पर एक गहरी चोट का उभरा हुआ निशान था. काले रंग का पूरा बदन था. उसके बाल घुंघराले थे. बाएं पैर का पंजा बाईं और मुड़ा हुआ था और वह ज़रा सा लंगड़ाते हुए चलता था. उसके नाम का तो पता नहीं था. पर वह उस नावों के ख़लासियों में सबसे छोटा होने की वजह से उसे सब नानू कहकर बुलाते थे. इतना हुलिया काफी था.
उसने अपनी दादी से यह भी जान लिया की दादाजी के पहले ख़त में एक पीतल की चाबी भी थी और दूसरे ख़त में एक सुन्दर फ्रेम से मढ़ी हुई चर्च की तस्वीर थी.
एक दिन मौका पाकर हसमुख ने दादी की गेर्हाज़री में दादी की वह बक्से वाली चाबी उठाई. और सभी जरूरी नक्शे और तस्वीरों एवं वह चाबी निकाल ली. फिर हमने उस सभी चीजों की नक़ल बनवाई और असल चीजें फिर से वहां रख दी. जिससे किसी को पता न चले. हम लोगों ने उन सब चीजों की एक से ज्यादा नक़ल बनवा ली थी जिससे की अगर कोई जरूरत पड़ जाए तो काम आ जाए.
हम सब एक साथ बैठकर उन सब चीजों को मिलाकर उस गुत्थी को सुल्जाने की कोशिश करने लगे. हसमुख के दादाजी ने वह सब कुछ सरल भाषा में लिखा हुआ न था. सायद यह इसलिए हो की अगर वें पत्र किसी दूसरे के हाथों में पड़ जाएँ तो वह सरलता से उस धन को प्राप्त न कर सके.पहली किसी नक्शे नुमा तस्वीर में रात्रि का चित्रण था. चाँद सितारे थे. उफान मारता समंदर था. और एक आग का गोला था जो आसमान तक पहुँच रहा था. इस आग के गोले के चारों और कुछ ख़ास तरह की आकृतियाँ बनी हुई थी, जिसकी किनारियाँ चमकीले रंगों से बनी हुई थी. इन सब आकृतियों में से एक आकृति और वह आग के गोले के बीच में दो मुख वाली एक सर्प की आकृति बनी हुई थी. जिनकी आँखों का रंग भी चमकीला था, जैसे उस आकृतियों की किनारियाँ थी. उस सर्प का एक मुख दाहिनी और था और दूसरा मुख फन उठाये आग के गोले की और देख रहा था. हमने ध्यान से देखा तो उस सर्प की पूंछ और उसका दाहिने वाला मुख नब्बे डिग्री के कोण पर एक दूसरे से बिलकुल खड़ी रेखा में थे. इसे देखकर लगता था जैसे उस सर्प की आकृति का उद्देश्य दिशा निर्देश करना हो. बाकी की आकृतियों का मतलब हमें समझ नहीं आया. पर हमें लगा जैसे वह तस्वीर किसी भौगोलिक स्थान का निर्देश करती हो. इसलिए हमने पृथ्वी का नक्शा निकाला और उस तस्वीर को नक्शे से मिलाने लगे. एक जगह पर हमारा ध्यान अटक गया.
केरेबियन सागर में एक जगह पर हमने तस्वीर से मिलता जुलता स्थान देखा. वहां उसी स्थान पर कुछ छोटे बड़े द्वीप थे जैसे तस्वीर में आकृतियाँ बनी हुई थी. और बीच में एक ज्वालामुखी परबत था. हम सब खुशी के मारे उछल पड़े. हमने वह गुत्थी सुल्जा ली थी. हमें उस ज्वालामुखी और उसके सामने वाले द्वीप के बिलकुल बीच में आना था और फिर वहां से दाहिनी और बिलकुल सीधे जाना था.
दूसरी चर्च वाली तस्वीर में एक खूबसूरत प्राकृतिक दृश्य था. उत्तर दक्षिण में हरी भरी पहाड़ियां थी. नदी नाले थे. इस प्रकृति की गोद में बसा एक सुन्दर गाँव. और बीच गाँव में एक चर्च. चर्च में लोग प्रार्थना कर रहे थे. चर्च के ऊपर भगवान ईशु का क्रोस बना हुआ था. हमने ध्यान से देखा तो उस क्रोस का सिरहाना और उत्तर वाली पहाड़ी का सिरहाना बिलकुल मिल रहा था. ये तस्वीर हमारी समझ में ज्यादा कुछ न आई पर हमने सोचा सायद इसी पहाड़ी के किसी स्थान पर हसमुख के दादाजी ने वह धन छिपाया हो! और हमें फिर नानू से तो मिलना ही है! वह इस तस्वीर का रहस्य अवश्य जानते ही होंगे!
फिर यह तै हुआ की अब सारी गुथ्थियाँ सुलझ गई हैं. तो अब हमें सफर की तैयारी करनी चाहिए.
हमारे घर में पैसों की कोई कमी न थी; सिर्फ बंदूकें और कुछ गोलाबारूद की जरुरत थी. अगर किसी मौके पर समुद्री लुटेरे या जंगली प्राणी से भेंट हो जाये. इसलिए वह हमने अन्दर्वल्ड के आदमियों से कोन्टेक्ट कर किसी तरह प्राप्त कर लिया. बाकी की चीजों का इन्तज़ाम पैसों के दम पर अपने आप ही होता रहा. ज्यादा कुछ मुश्किलियाँ न आई. मुसीबत सिर्फ इतनी ही थी की हमारे परिवार वाले इस सफर पर अकेले जाने की अनुमति न देते. इसलिए अफ्रीका की सेर पर जा रहे हैं, इतना जूठ बोल कर हमने अपने परिवार वालों को राजी कर लिया.
हम सात दोस्त थे. हसमुख, कृष्णा, संकर, हरी, विनु, जगलो और मैं. सब नौजवान थे. हमें पैसों की कोई कमी न थी. फिर भी एक रोमांच की तलाश में हमने उस धन को खोज निकालने का बीड़ा उठाया था. बस, फिर क्या था! चल पड़े.
तै दिन पर हमारी नाव ने समुद्र की लहरों पर उछलते, नाचते कूदते, अठखेलियाँ करते हुए अपना सफर आरम्भ किया. नाव में मशीन लगा हुआ था. हवा का रुख भी अनुकूल था इसलिए हमारी राह में बाधा भी कोई न थी. हम सब बहुत खुश थे. उस सफर में हम सब ने पहली बार बीयर और सिगरेट का मजा लिया. अपने दैनिक कार्यों को न्याय देना, बोट की संभाल लेना, मशीन में डीज़ल और ओइल की जांच करना, खाना बनाना, यहीं हमारा काम था. बाकी पूरे दिन रात हम नाव पर सेर करते, समुद्री दृश्यों और व्हेलों को उछलते देखते, मछलियों का शिकार करते, उसे भूनते, खाते, नाचते और मजे करते. बीच बीच में हम मार्ग में आने वाले बेटों पर ठहरते और जरूरी चीज वस्तुएँ प्राप्त कर लेते.वेस्ट इंडीज़ के टापुओं तक हमारा सफर निर्विघ्न रहा. हम यह मानकर चल रहे थे की हमें सिर्फ नानू को धुंध निकालना है. फिर वह हमें उस चर्च वाली जगह तक ले चलेगा. जहां हसमुख के दादाजी ने अपना सारा धन छिपाया है. पर हमें क्या पता था की यहाँ पहुंचकर हमारा नसीब कौन सी करवट बैठने वाला है!
***
हम जेन्गा बेट के नजदीकी ही किसी बेट पर पहुँच चुके थे. रात्रि का समय था इसलिए हमने सुबह होने का इंतजार किया. उस रात हम इतने खुश थे की ठीक से सो भी न पाएं. मुश्किल से रात कटी. सुबह हुई तो हम जल्दी जल्दी तैयार हो कर किनारे पर पहुँच गए. देखने में तो यह कोई बहुत बड़ा बेट नहीं लगता था.
सब से पहले हमने यह पता करने की कोशिश की कि यह बेट कौन सा है. किनारे पर हमें कुछ मछवारे मिल गए. उन्हें पूछने पर मालूम हुआ की यह जेन्गा (काल्पनिक) बेट ही है. जेन्गा बेट का नाम सुनकर हमारे चेहरे पर खुशी चमक उठी. आखिरकार हम अपने पहले लक्ष्य पर पहुँच ही गए थे.
किनारे पर टहलते हुए हम थोड़ा आगे निकले. हमने वहां कुछ स्थानीय नासते की दुकानें देखी. कई स्थानीय लोग वहां खड़े नमस्ते का लुप्त उठा रहे थे. वहां किसी चाय नुमा पेय भी मिल रहा था. हमने वह पेय और नास्ते का ऑर्डर दिया और हमारी बारी आने तक इंतज़ार करते खड़े रहे.
इस दौरान हमने वहां लोगों से बातचीत करने की कोशिश की. बातचीत शुरू करने के इरादे से वहां खड़े एक आदमी से हमने इस जेन्गा बेट पर घूमने लायक स्थानों के बारें में पूछा. उसने कुछ समुद्री बीच और चर्च के बारें में बताया.
इतने में एक मछवारे ने हमसे बातचीत में जुड़ते हुए बताया की वहां हम सुन्दर तालाब और खूबसूरत परिंदों के दर्शन भी कर सकते हैं.
पहले वाले आदमी ने हमें पूछा की हम कहाँ से आये हैं और क्यूँ आये हैं ?
हमने बताया: "हम इंडिया से समुद्र की सेर के लिए निकले हैं. और यूँ तो हमें सेंट किट्ट्स घूमने जाना हैं. पर मार्ग में जेन्गा बेट आ रहा था तो सोचा यहाँ हमारा एक परिचित रहता है उससे मिलते चले."
फिर हमने नानू के बारें में जानना चाहा. नानू का नाम सुनते ही उन लोगों के चेहरे पे अपरिचितता का भाव उमड़ आया. वें सायद नानू नाम के किसी आदमी को नहीं जानते थे.
हमने अपनी कोशिश जारी रखी. और उसका और ज्यादा परिचय दिया. और बताया की वह पंद्रह सोलह साल की उम्र का था तब से अफ्रीका से यहाँ आ बसा है.
अफ्रीका का नाम पड़ते ही वह मछ्वारा बोल उठा:
"हां, एक अफ्रीका का आदमी है जो बचपन से ही किसी जहाज में से भागकर यहाँ बस गया है.
हमारी आंखे खुशी से चमक उठी. हमने बताया:
"हां, हाँ, वहीँ! उसका एक पाँव थोड़ा सा मुड़ा हुआ है न?" हमने पूछा.
"जी हाँ, वही. वह भी मछ्वारा है इसलिए मैं उसे थोड़ा जानता हूँ." उसने कहा.
"हाँ, हम उसी के बारें में पूछ रहे हैं. वह हमें कहाँ मिलेगा?"
उस मछवारे ने आगे बताते हुए कहा:
"वह यहाँ से पूर्व में आठ नौ किमी. दूर सेंट लुबरतो चर्च के पास रहता है. वहां आप नाव के ज़रिये या टाँगे में पहुँच सकते है. किनारे पर वहां किसी से पूछ लीजिएगा; मिलवा देंगे."
जब हमारी वहां बातचीत चल रही थी, तभी कृष्णा को ऐसा लगा जैसे कोई उन्हें देख रहा हो. उसने मुड़कर एक नजर देखा; और तुरंत ही अपना चेहरा वापस मोड़ लिया. उनके चेहरे पर नापसंदगी के भाव उभर आये थे. उसने हमें आँखों के इशारे से उस और देखने को कहा. हमने जब कृष्णा की बताई दिशा में देखा तो हमारे बदन में से एक भय का जलजला गुजर गया. वहां अधेड़ सा दिखने वाला एक आदमी खड़ा था. वह अजीब सी नज़रों से हमें ही घूर रहा था. हमें उसकी नज़रों में भय का एहसास हुआ. हम लोगों ने तुरंत ही अपनी आंखें वहां से मोड़ ली. और बातचीत में अपना ध्यान लगाया.क्रमशः
हसमुख और उनके दोस्तों के साथ क्या होने वाला है? क्या वे नानू को धुंध पाएंगे? वह मनहूस सकल वाला आदमी कौन है? और उनको देखकर हसमुख और उनके दोस्त क्यूँ दर गए? जानने के लिए पढ़ते रहे.
 
OP
B
Member

0

0%

Status

Offline

Posts

125

Likes

33

Rep

0

Bits

0

3

Years of Service

LEVEL 2
80 XP
जब हमारी वहां बातचीत चल रही थी, तभी कृष्णा को ऐसा लगा जैसे कोई उन्हें देख रहा हो. उसने मुड़कर एक नजर देखा; और तुरंत ही अपना चेहरा वापस मोड़ लिया. उनके चेहरे पर नापसंदगी के भाव उभर आये थे. उसने हमें आँखों के इशारे से उस और देखने को कहा. हमने जब कृष्णा की बताई दिशा में देखा तो हमारे बदन में से एक भय का जलजला गुजर गया. वहां अधेड़ सा दिखने वाला एक आदमी खड़ा था. वह अजीब सी नज़रों से हमें ही घूर रहा था. हमें उसकी नज़रों में भय का एहसास हुआ. हम लोगों ने तुरंत ही अपनी आंखें वहां से मोड़ ली. और बातचीत में अपना ध्यान लगाया.
तब तक नाश्ता आ गया. हमने उन दोनों को भी ऑफर किया. नाश्ते के दौरान बेत के बारें में और बातचीत चलती रही. नाश्ता और वह पेय के प्यालों को खत्म कर, पैसे चुका कर हमने दोनों की रजा ली.
फिर हम जेन्गा बेट पर आगे बढ़े. दोपहर तक हम वहां टहलते रहे. कुछ आवश्यक चीज़वस्तुएं ली और बोट की और रुख किया.
बोट पर लौट आते ही बोट को किनारे के नजदीक रखते हुए पूर्व की और मोड़ दिया. थोड़ी ही देर में चर्च का सिराना दिखाई देने लगा. बोट किनारे लगाई और हम उतर पड़े.
वहां भी कई मछवारे थे. हमने एक मछवारे से अफ्रीका वाले नानू के बारें में पूछा. उसे नानू के बारें में ज्यादा जानकारी की जरूरत न पड़ी; वह तुरंत ही पहचान गया. उसने कहा:
"जी हाँ! वह अफ्रीका वाला नानू यहीं रहता है."
हमने नानू का पता पूछा. उसने एक लड़के को हमारे साथ कर दिया.
जब हम उस लड़के को लेकर बस्ती की और चले; तब एक पेड़ की आड़ से हमारी और ही घूरता हुआ वह आदमी दिखाई पड़ा. हम सब एकबार फिर से सहम गए. हमें लगा की वह अजीब आदमी हमारा ही पीछा कर रहा है.
हम लोगों ने इधर उधर देखा, वहाँ कुछ पेय पदार्थ बेचने वाले खड़े थे. पेय पदार्थ पीने के बहाने हम वहां रुके और खड़े खड़े तुरंत ही यह तै किया की हम सात में से तीन लोग नानू से मिलने जायेंगे. और चार लोग अब बोट पर ही रहेंगे. यदि उस मनहूस आदमी का विचार हमारी गैरहाजिरी में बोट पर हाथ फेरने का कोई बद इरादा हो. इसलिए हसमुख, संकर और मैं नानू को मिलने चले. और बाकी के चार लोग बोट पर लौटे.
हम नानू के घर पहुंचे.
हमने देखा; वहां छोटे बड़े अपनी अपनी प्रवृतियों में व्यस्त थे. एक अधेड़ औरत लकड़ियाँ काट रही थी. इतने में अन्दर से एक अधेड़ उम्र का आदमी निकला. उसे देखते ही हम पहचान गए. वह नानू ही था. उसका एक तेड़ा पाँव और सर पर चोट का निशान ही उसकी पहचान थी. नानू अब पचास की उम्र को पार कर चूका था. बाहर जो लोग थे वे सायद उनके बाल बच्चे और पोते पोतियाँ थी.
नानू के पास जाते हुए हसमुख ने अपना परिचय दिया.
अपने पुराने मालिक का नाम सुन, और उनका कोई रिश्तेदार आया है यह जान वह बड़ा भावुक हो उठा. उनहोंने बड़ी खुशी से हमें घर मे बिठाया. हम सब की उसने अच्छी आगता स्वागता की. उसने हसमुख की दादी और पिताजी का हालचाल पूछा. फिर उनके पुराने मालिक मेघनाथजी के गुणों और अहसान को याद करते हुए अपने मालिक के साथ गुज़ारे पुराने दिनों को याद करने लगा. उसने कहा:
"आज मैं जो भी हूँ उनकी वजह से ही हूँ. मेरा उसने अपने बेटे समान ही पालन किया था. उन्होंने ही मेरी शादी करवा दी और मुझे एक घर व नाव भी दिलवा दी थी. जिससे मेरा गुजारा होता रहे." इतना कहते ही वह भावुक हो उठा.
काफी देर तक हमारी और नानू की बातचीत चलती रही. फिर हसमुख ने अपने यहाँ आने का उद्देश्य जाहिर किया. हमारा मकसद जानकर वह बोला:
"बहुत खुशी की बात है! मैं भी मालिक की दी हुई आख़री जिम्मेदारी को जीते जी पूरा कर मालिक के ऋण से मुक्त होना चाहता हूँ. हाँ, तो वह मालिक की पहचान वाली कड़ी कहाँ है?" उसने पूछा.
फिलहाल तो वह सब हमारी बोट पर है. कल ले आते हैं. हसमुख ने खुश होते हुए कहा.
"अच्छा, तुम कल सुबह आओ." उसने कहा.
नानू से बिदा होकर हम खुशी खुशी बाहर निकले. कुछ ही कदम आगे बढ़ाए थे की नानू के घर के पिछवाड़े से वहीं मनहूस आदमी को तेजी से बाहर निकल कर एक गली में जाते हुए हमने देखा. हम सहम गए.
"तो वह हमारा ही पीछा कर रहा है." मैं बोला.
"आखिर वह हमसे चाहता क्या है? न तो हम उसे जानते हैं न वो हमें जानता है. फिर वह हमारा पीछा क्यूँ कर रहा है?" हसमुख बोला.
"उसने हमारी बोट पर तो कुछ नहीं किया न? हमें जल्दी लौटना चाहिए." संकर ने आशंका प्रगट की.
हम जल्दी जल्दी अपनी बोट की और चले. बोट पर लौटते ही हमने सब कुछ सलामत पाया.
तब अन्य दोस्तों को भी वह मनहूस आदमी वाली बात बताई. वे लोग भी सोच में पड़ गए.
फिर हमने नानू हमारी मदद करने के लिए तैयार है यह खुशी की खबर सुनाई. यह जानकर वे भी बहुत खुश हुए. हमने खाना खाया और सुबह का इंतज़ार करते हुए सो गए. हमारी रात बेचैनी में गुजरी. मुश्किल से नींद आई. बहुत इंतजारी के बाद ख़ुशियाँ लेकर सुबह का किरण निकला. हमने जल्दी जल्दी दैनिक कार्यों का निपटारा किया. और किनारेपर उतर आए.
हमारे अन्दर उस मनहूस आदमी का इस तरह दर बैठ गया था की इस बार भी चार लोग बोट पर ही रहे. हसमुख, संकर और मैं एक बार फिर से वह सब सामान लेकर नानू के घर की और चले.
नानू ने हस्ते हुए हमारा स्वागत किया. हम बैठे. फिर उसने कहा:
"हाँ, तो दिखाइये? वह कड़ी कहाँ है?"
हसमुख ने वह विचित्र नक्शा, तस्वीर और चाबी निकालकर सामने रख दी.
नानू ने इन चीजों को एक नजर देखा, और हसमुख कोई और चीज निकाले इसके इंतज़ार में उसकी और टकटकी लगाए देखता रहा. हसमुख भी प्रश्न सूचक दृष्टि से उनकी और देखने लगा. जरा वक्त बीतने पर जब हसमुख ने कुछ और निकालने की चेष्टा न की तो नानू बोल उठा:
"वह असल कड़ी कहाँ है?" नानू ने पूछा.
"कौन सी कड़ी?" हसमुख ने द्विधा में पड़ते हुए पूछा.
"वही कड़ी, जो सबसे महत्वपूर्ण है. जिसके बिना तुम वहां पहुँच ही नहीं पाओगे." नानू ने कहा.
"हमें तो यही सब मिला है. और दादी ने भी मुझे यही चीजों के बारें में बताया हैं. इससे ज्यादा कोई बात होती तो वह मुझे जरूर बताती. दादी को भी सायद यही चीजें प्राप्त हुई थी." दुविधाग्रस्त हसमुख ने कहा.
"सारी चीजें नकली हैं. इसके दम पर तुम अपने आप को मालिक की संपती का दावेदार नहीं साबित कर सकते." नानू ने रूखे लहजे से कहा.
हम अचरज में पड़ गए! एक नजर में ही चीजों के नकली होने की परख उसने कर ली थी. पर हमारे लिए नकली चीजें भी असल समान ही थी. और हम मान रहे थे की इस नकली चीजों से भी वहीँ काम निकल सकता है जो असल चीजों से निकलता.
फिर तो हम सब ने उसे बहुत समझाया. बहुत बिनती की. उँच नीच भी समझाई. असल चीजें घर पर ही छोड़ आने का मकसद भी समझाया. हसमुख उसके पुराने मालिक मेघनाथजी का ही पोता है, इसके लिए जो भी हमारे पास दस्तावेज उस वक्त उपलब्ध थे, वे भी दिखाए. पर वह बिलकुल न पिघला.
हम बहुत निराश होकर वहां से लौटे. बोट पर लौटकर सारा मामला अपने दोस्तों को कह सुनाया. वे भी इस बात से ज़ेम्प गए. हमारी यहाँ तक पहुँचने की सारी मेहनत पानी में जाता देख हम गुस्से से बिलबिला रहे थे. पर हम कर भी क्या सकते थे?
नानू की नियत पर भी हमें सक पैदा हुआ. हमें लगा की वह मनहूस आदमी और नानू मिलकर हमारे साथ कोई फरेब रचा रहे हैं. दो पांच दिनों तक हम अपने ही बल पर उस धन तक पहुँचने की संभावनाओं को सोचते हुए वहां ठहरे रहे.
***
एक सुबह जब हम सो कर उठे ही थे कि नानू अपने कुछ आदमियों सहित हमारी बोट पर आ धमका. उन लोगों ने हमें बंदी बना लिया. और वे हमें मारने पीटने एवं डराने धमकाने लगे.
नानू ने हमसे पूछा: "वह तस्वीर कहाँ है?"
उनकी बात सुनकर हम सब आश्चर्य और प्रश्नार्थ दृष्टि से उन्हें देखने लगे. हमें यूँ घूरता देख वह चिल्ला उठा:
"वहीँ जो तुम लोगों ने कल रात मेरे घर से चुराई है."
"हमने तुम्हारी कोई तस्वीर नहीं चुराई. हसमुख और विनु ने कहा.
इस पर वह आगबबूला हो उठा. उसने अपने आदमियों को कुछ इशारा किया. उन लोगों ने फिर से हमें बहुत मारा पीटा और दांत डपट लगाकर हमें सच बोलने के लिए और वह तस्वीर लौटा देने के लिए दबाव बनाया. पर हम एक ही बात दोहराते रहे की हमने तुम्हारे घर से कोई चोरी नहीं की है. हमने माँ बाप और कुलदेवता की कसम भी खाई. फिर उन्होंने हमारी बोट का चप्पा चप्पा छान मारा. हमारा पूरा सामान रेंड फेंड दिया. आखिर कुछ न पाकर वे लौट गए.नानू अब दगाबाजी पर उतर आया था. सबसे पहले हम लोगों ने अपने नक्शे, चाबी और तस्वीर को ढूंढा. हमारी सभी नक़ल सलामत थी. फिर हमने अपने सामान को देखा. वह भी सब सलामत था.
तब हम सोच में पड़े. अगर वह हमारी चीजों पर कब्जा करने के उद्देश्य से ही आया था, तो वह कोई चीज ले क्यूँ नहीं गया? फिर हमने खयाल किया की सायद वह असली चीजों की तलाश में आया हो, पर वह तो हमारे पास है ही नहीं?
हम देर तक सोच विचार करते रहे. हमारे मन में बहुत से संदेह पैदा हो रहे थे. उस मनहूस आदमी और नानू की मिलीभगत पर भी हमने सोचा. पर हम कुछ तै नहीं कर पा रहे थे. अगर नानू सचमुच में दगाबाजी पर उतर आया था तो हमारे पास जो असली चीजों की नक़ल थी वह भी असल समान ही थी, उसकी मदद से वह उस धन तक पहुँच सकता था, फिर वह उसे ले क्यूँ नहीं गया? यहीं हमारे लिए बड़ी भेद की बात बनी रही.
क्रमशः
अब क्या होगा? नानू की सहायता के बिना वे कैसे धन तक पहुंचेंगे? क्या नानू के घर से सच में कोई तस्वीर की चोरी हुई है? अगर हुई है तो किसने की? उस तस्वीर में ऐसा क्या था कि वह इतनी महत्वपूर्ण बन गई? क्या मनहूस सकल वाले आदमी के साथ मिलकर नानू कोई षड्यंत्र रच रहा है? जानने के लिए पढ़ते रहे.
 
OP
B
Member

0

0%

Status

Offline

Posts

125

Likes

33

Rep

0

Bits

0

3

Years of Service

LEVEL 2
80 XP
दूसरी सुबह जब हम किनारे पर उतरे. वहां हमारी ही उम्र का एक लड़का नीरा बेच रहा था. उससे नीरा खरीद कर हम पीने लगे. वह लड़का हमसे बातें करने लगा. हम भी उन से बातें कर रहे थे. उसने अपना नाम मेथ्यु बताया. वह बहुत बातूनी था. उनकी बातों से हम बहुत प्रभावित हुए. उनकी बातें सुनकर हमें अच्छा मालूम हो रहा था. एक तो वह हमारी ही उम्र का था और उसकी बातें ऐसा आकर्षण पैदा कर रही थी की हम उनसे गुल मिल गए. एक दो ही दिनों में हम दोस्त बन गए. फिर तो हम काफी देर तक उनसे बातें करते. बातों बातों में हमारा यहाँ आने का मकसद, वह नक्शे वाली बात, नानू का दगाबाजी पर उतर आना, इत्यादि हमने उसे कह सुनाया.
एक दिन हमने तै किया की अब चाहे हम उस धन तक पहुँच पाये या ना पाये, पर उस स्थान तक पहुँचने की आखरी कोशिश तो जरूर करनी चाहिए. इसलिए दूसरे दिन हमने जेन्गा बेट से लौटने का फैसला किया.
उस दिन जब हम किनारे पर गए तो हमने मेथ्यु को हमारी बोत पर आने का न्योता दिया. क्यूंकि यह हमारी आखरी मुलाकात थी. उसने साम को आने का वादा किया. वह आया. हमारे लिए वह बेहतरीन नीरा लाया था. हमने उसके लिए मीज़बानी की व्यवस्था की थी. उस साम हमने मिलकर मीज़बानी की. हम अब लौट जाने वाले है यह भी उसे बताया. यह जानकर उसने वह नक्शा और तस्वीर देखनी चाही. हमने उसे दिखाया. उस चर्च वाली तस्वीर को देखकर वह बोल पड़ा:
"इस चर्च वाले स्थान को मैं जानता हूँ. अगर तुम इस चर्च तक ही पहुंचना चाहते हो तो मैं तुम लोगों की मदद कर सकता हूँ."
उसकी बात सुन, हम तो बहुत खुश हो गए. हसमुख ने उन्हें वादा किया की अगर वें लोग उस धन तक पहुँच जाते है तो उसमे से एक हिस्सा उन्हें भी दिया जायेगा. वह भी खुश हो गया.
फिर तो उस रात हमने देर तक मीज़बानी की. देर रात हम सोए. मेथ्यु भी हमारे साथ ही सो गया था.
दूसरे दिन जब हमारी आंखें खुली तो हमने पाया की सूरज सर पर आ गया है. हम हड़बड़ी में उठे, पर हमने वहां मेथ्यु को न पाया. हमने सोचा वह जल्दी जाग कर अपने घर को निकल गया होगा.
पर हमें तब बड़ा सोक लगा जब हमने अपने नक्शे, चाबी और तस्वीर को वहां न पाया. तब हमारी समझ में आया की मेथ्यु हमारे साथ दगा कर गया. सायद वह नीरा में कोई नींद वाली दवा मिलाकर लाया था जिससे की हम देर तक सोते रहे. हमें फिर से उस मनहूस आदमी की याद आ गई. क्या मेथ्यु उनके साथ मिला हुआ था? क्या पता?हमने अपने नक्शे, चाबी और तस्वीर की दूसरी नक़ल देखी. वह सलामत थी. इसलिए हमें थोड़ी राहत हुई.
मेथ्यु की तलाश में हम किनारे पर उतरे. पर वहां हमें मेथ्यु न दिखाई दिया. हम उसकी इधर उधर तलाश करने लगे.
इतने में हमने नानू को किनारे की और आते हुए देखा. उसकी नजर हम पर पड़ी. हम भी उसे देख खड़े रह गए. फिर हम उसके पास गए. और वह नक्शे, चाबी और तस्वीर की चोरी हो जाने की और उस मेथ्यु के गायब हो जाने की बात कही. यह सुनकर उनका चहरा तन गया. वह किसी गहरी सोच में पड़ गया था. फिर वह कुछ सोचकर जल्दी जल्दी में वापस मुड़ गया. हमें उसके ऐसे बर्ताव और यूँ मुड़ जाने से आश्चर्य हुआ. पर हम क्या कर सकते थे.
खेर हमारी कोई कोशिश सफल न हुई. मेथ्यु तो न मिला. पर नानू के बर्ताव ने हमें बड़े ताज्जुब में दाल दिया था. आखिर हम बोत पर लौट आए.
अचानक हमें खयाल आया की अगर मेथ्यु धन प्राप्त करने के इरादे से नक्शा, तस्वीर आदि चुरा कर भागा है तो वह जरूर उस बेट तक पहुँचने की कोशिश करेगा. हमें भी वहां जल्दी ही पहुंचना चाहिए. इसलिए हमने तुरंत ही वहां से चलने का इरादा किया. पर फिर हमने आवश्यक खाने पीने का सामान और डीज़ल, मशीन का ओइल इत्यादि को पर्याप्त मात्रा में बोत पर रखना उचित जाना. क्यूंकि अब हमारी डगर मुश्किल होने वाली थी. यह सब सोचकर हम सारा सामान लेने के लिए बेट पर लौटे. सारा सामान खरीद कर जब तक हम बोत पर वापस हुए, तब तक रात हो चुकी थी. फिर भी हमने रुकना उचित न जानकर निकल पड़े.
हमारे दिन रात बड़ी बेचैनी में गुजर रहे थे. पूरे तीन दिन और चार रात लग गए हमें उस नक्शे में चिन् हित ज्वालामुखी वाले परबत तक पहुँचने में. फिर वहां से हम नब्बे डिग्री के कोण पर दक्षिण की और मुड़े. मार्ग में हम आने जाने वाली नाव को देखते जा रहे थे. अगर मेथ्यु या उसका कोई साथी उस धन तक पहुँचने की कोशिश करेगा तो वह भी किसी न किसी नाव के ज़रिये ही वहां पहुँचने की कोशिश करेगा. फिर एक दिन और एक रात गुज़रे. तब हमें कई छोटे बड़े टापुओं का समूह दिखाई दिया. हम मेथ्यु की या उसके कोई साथी के होने की उम्मीद कर रहे थे. हमने ध्यान से देखा. वहां किसी मनुष्य आबादी या उनकी कोई चहल पहल दिखाई न पड़ रही थी.
अचानक हरी का ध्यान पड़ा. उसे अपने दूरबीन में एक बेट पर कुछ नाव जैसा दिखाई दिया था. बाकी सबने भी देखा. वहां सचमुच में कुछ नाव जैसा था. अपनी बोत को हमने उस बेट के नजदीक लिया. जी हाँ, वह एक नाव ही थी. उसके कुछ अंतर पर हमने अपनी बोत को रोका. और किनारे पर उतरने की तैयारी करने लगे.
उसी वक्त हमें याद आया की यह सब टापुओं पर आदी कालीन मनुष्यों की बस्ती हो सकती है, जो किसी बाहरी मनुष्य की हाजिरी को अपने यहाँ ज़रा भी सहन नहीं करती. उस संभावित खतरे को ध्यान में रखते हुए हमने उस समय जो भी हथियार हमारे पास उपलब्ध थे, ले लिए. थोड़ा बहुत ड्राई फूड, नाश्ता, पानी, दिशा सूचक यन्त्र, टोर्च, आग सुलगाने का सामान इत्यादि भी ले लिया.किनारे का पानी बहुत दुर्गम वनस्पतियों से गिरा हुआ था. उस वक्त समुद्र में पानी भी किनारे से बहुत दूर था. इस वजह से बोत को किनारे के नजदीक लेना मुश्किल था. इसलिए बोत को किनारे से थोड़ा दूर रखकर रस्सियों के सहारे हम अपने सामान को संभाले पानी में उतर पड़े. तैरते हुए हम किनारे की और बड़ी सावधानी से बढ़ते जा रहे थे. किनारे के नजदीक पहुंचकर हमें बहुत मुश्किलियों का सामना करना पड़ रहा था, क्यूंकि किनारे के नजदीक दरियाई लताओं और वनस्पतियों का जंगल सा बना हुआ था. जो हमारे हाथ पैरों में उलझ कर हमारी मुसीबतें बढ़ा रहे थे. जैसे तैसे हम किनारे पर पहुंचे.
किनारा भी घनी झाड़ियों से छना हुआ था. उन्हें देखकर हम सोच में पड़ गए. ऐसे बीहड़ की हमने कल्पना नहीं की थी. इसमें तो हमें विषैले जीवों का सामना करना पड़ सकता है! हमारी हिम्मत जवाब दे रही थी. हम किसी सुरक्षित मार्ग की तलाश कर रहे थे. फिर हम उस नाव की दिशा में बढ़े. हमने ध्यान से देखा, वहां की मिट्टी और ज़मीं पर बीछे वनस्पतियों के पत्तों पर कोई निशान बने हुए थे. वह किसी इंसान के बूट के निशान समान लग रहे थे. लगता था जैसे यहाँ से कई आदमी गुज़रे हो! हमने उन लोगों का पीछा करने की सोची.
उस जगह थोड़ी कम झाड़ियाँ थी, पर हमारे लिए तो यह भी बहुत था. फिर भी हम हिम्मत कर के वहां से घुसे. घुटनों और कमर तक फैले हुए घाँस पर हम आगे बढ़ते जा रहे थे. बहुत चौकन्ने होकर हम इधर उधर दृष्टि डालते जा रहे थे, कहीं हम पर कोई हमला न कर दे. थोड़ा आगे बढ़ने पर घनी झाड़ियाँ शुरू हो गई. हम रुके. सोचने लगे, अब किधर से जाए. इधर उधर दृष्टि डाली. और हम सहम गए.
हमसे बायीं और करीब बीस तीस मीटर के फासले पर घनी झाड़ियों में पेड़ के टनों और पत्तियों पर सूख चुके खून के बड़े बड़े दाग थे. हम गभरा गए. अपनी अपनी बंदूकों को जोर से थाम लिया. हम उस दिशा में आगे बढ़े.
"अरे ये क्या? ये तो लाश है!" कृष्णा और विनु जो आगे थे, चिल्ला उठे.
सब ने देखा. वहां औंधे मुंह एक आदमी की लाश पड़ी थी. उसके बदन पर कई जगह बन्दूक की गोलियों के निशान थे और लहू सुख चूका था. सायद कुछ घंटे पहले ही इन की हत्या की गई थी. हमने इधर उधर देखा, वहां कई पेड़ों के टनों पर भी गोलियों के निशान थे. सायद कि सीने अंधाधुंध गोलियां चला कर इन लोगों की हत्या की थी.
हमारे बदन में दहशत की लहर दौड़ गई. हिम्मत न हुई की उस लाश को पलट कर उसका चेहरा देखे. इधर उधर नजर डाली तो नजदीक में ही दो और आदमी मरे पड़े थे. हम नजदीक गए. उनकी मृत्यु भी गोलियां लगने से ही हुई थी. लेकिन इस बार हम चोंके! हम सब आश्चर्य और दर के मारे कांप गए!
"अरे! ये तो मर गया! इसकी हत्या किसने की!?" हसमुख चीख पड़ा.
क्रमशः
हसमुख और उनके दोस्तों ने किसकी लाश देखी? उन लोगों की हत्या किसने की? अब आगे क्या होगा? जानने के लिए पढ़ते रहे.
 
OP
B
Member

0

0%

Status

Offline

Posts

125

Likes

33

Rep

0

Bits

0

3

Years of Service

LEVEL 2
80 XP
अरे! ये तो मर गया! इसकी हत्या किसने की!?" हसमुख चीख पड़ा.
तुरंत हम सब की नजर उस लाश पर पड़ी.
"ओ...ह गोद...!" एक उद्गार के साथ सब की आंखें आश्चर्य से फट गई.
वह लाश उस मनहूस आदमी की थी. जो हमारा पीछा किया करता था. और जिसने हमें अब तक बहुत डराकर रखा था. पर अब वह हमारे सामने मरा पड़ा था.
इन सब लाशों को देख हमारे बदन दहशत से कांपने लगे. वह बेट हमें मौत का घर लगने लगा.
इसकी हत्या किसने की? यह सवाल सब के मन में था. पर उत्तर किसी के पास नहीं था.
मेथ्यु की भी लाश मिलने की उम्मीद में हमने हिम्मत करके उन दोनों लाशों को पलट कर उनके चेहरे देखे, पर उसमे मेथ्यु नहीं था.
नजदीक में ही एक खुला हुआ बक्सा एवं घाँस और लताओं में बिखरा हुआ सामान भी पड़ा था. लगता था जैसे किसी ने उस सामान की तलाशी ली हो.
हम उस सामान को देखने लगे. हमारे आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा! उस सामान में हमारी चुराई हुई तस्वीर और नक्शा भी था, पर चाबी का पता न था. उस बीहड़ में चाबी मिलना भी मुश्किल था, इसलिए हमने कोई कोशिश भी न की. हमने वह नक्शा और तस्वीर उठा ली.
तो क्या! मेथ्यु हमारा पीछा करने वाले उस मनहूस आदमी से मिला हुआ था? फिर मेथ्यु अब कहाँ है? और इन लोगों की हत्याएँ किसने की? क्या वह हत्यारा भी इस नक्शे, तस्वीर और चाबी के पीछे पड़ा हुआ था, इसलिए इन लोगों की हत्या की? फिर वह हत्यारा नक्शा और तस्वीर ले क्यूँ नहीं गया? पर चाबी वहां न थी, तो क्या वह हत्यारे को सिर्फ चाबी की ही जरूरत थी? वह मनहूस आदमी इसी टापू पर ही क्यूँ आया? क्या हसमुख के दादाजी के द्वारा धन छिपाए जाने के बारें में यह मनहूस आदमी कुछ जानता था? क्या यह वहीँ टापू है जिस पर हसमुख के दादाजी ने धन छिपाया है? फिर उस चर्च वाली तस्वीर और इस टापू में कोई समानता क्यूँ दिखाई न पड़ रही है? तो क्या उस तस्वीर का मतलब कुछ और है? ढेर सारे प्रश्न हमारे मन में उबल रहे थे. जिनके कोई उत्तर हमारे पास नहीं थे.
हमने उस हत्यारे का पीछा करने की सोची. पर इस बीहड़ में उनके मिलने की संभावना बिलकुल कम थी.
प्रिय पाठक मित्रों, इस कहानी में आगे चलकर आपको वह मनहूस आदमी कौन था? मेघनाथजी से उनका क्या रिश्ता था? और उनकी हत्या किसने की थी? इन प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे.
आगे हमने थोड़ा सा ऊँचाई वाला स्थान देखा. जैसे कोई छोटी पहाड़ी हो. हम उसी और बढ़े. सायद ऊँचाई से हमें इस टापू पर होने वाली कोई गतिविधि मालूम पड़े! मुश्किल से हम ऊपर पहुँचे. इस चढ़ाई में बहुत वक्त गुजर गया था. पर आखिर में ऊँचाई से भी पेड़ों के अलावा हमें कुछ हाथ न लगा. और न कुछ हाथ लगने की उम्मीद दिख रही थी.
हाँ, दूसरी और एक तालाब नजर जरूर आया. पर अब हम में वहां तक पहुँचने की ताकत रही न थी. हम बहुत थक चुके थे. इसलिए एक बड़े से पेड़ की मोती टहनियों के सहारे सुस्ताने बैठे. जो थोड़ा सा ड्राई फूड हमारे पास था, वह खाया और बोटल से पानी पिया. थोड़ी देर सुस्ताने के बाद हम लौटने के लिए उठे. और किनारे की और बढ़ना आरम्भ किया.
मार्ग में हम कई पशु प्राणियों को देख रहे थे, पर किसी बड़े हिंसक पशु को न देखा. इसलिए हमें राहत थी. कहीं कहीं पेड़ पर लटकते हुए सर्प दिखाई दे जा रहे थे.
लौटते वक्त भी हम वे लाशें दिखने की उम्मीद कर रहे थे, पर इस बार हमें वें लाशें कहीं नजर न आई. हमने सोचा सायद हम थोड़ा इधर उधर हो गए हैं, इसलिए वे लाशें नजर नहीं आ रही हैं.
हम देर तक चलते रहे पर हमें किनारा नजर नहीं आया. अब हम गभराए. आकाश की और देखा तो सूरज पेड़ों के पीछे छिपने ही वाला था. हमने दिशा सूचक यंत्र में देखा तो सूरज जिस दिशा में था, वह पश्चिम दिशा ही थी. हम दर गए. साम होने को आई थी, पर किनारे का कोई पता न था. जब हम किनारे से चले थे तो इतना भी दूर निकल गए न थे, की इतनी देर तक चलने पर भी किनारे तहमने जल्दी जल्दी पाँव बढ़ाना शुरू किया. पर थोड़ी ही देर में सूरज ढल गया. चारों और गहरा अंधकार फैलने लगा. रात हो गई थी. पर हम उस बीहड़ से बाहर नहीं निकल पाए थे. सायद हम उस बीहड़ी भूलभुलैया में खो कर रह गए थे. अब तो यह तै हो गया था की रात हमें इसी जंगल में बितानी पड़ेगी.
इस बीहड़ में एक पाँव रखने लायक भूमि भी न दिखाई दे रही थी. इसलिए हम एक विशाल पेड़ को देखकर उसकी मोती मोती टहनियों पर जा बैठे. अब तो इसी पेड़ के सहारे रात काटनी थी. टॉर्च सुलगाई. नाश्ता किया. अचानक मच्छरों का झुंड आया और भिनभिनाते हुए हमें काटने लगा. बहुत से कीड़े मकोड़े भी हमारे बदन पर चढ़ जाते और काटने लगते. क्या करें! आग सुलगाने की भी संभावना न थी. क्यूंकि चारों और सिर्फ और सिर्फ पेड़ पौधे ही थे. अगर हम आग सुलगाते तो आग पूरे जंगल में फ़ैल सकती थी. और उस आग में हम ही जल मरते.
अब हम सोच में पड़े. रात को कोई हिंसक पशु आ गया तो क्या करेंगे? इस दर में सब जागते बैठे रहे. सोचने लगे: कौन सी मनहूस घड़ी में निकले थे? यहाँ हमें आना ही नहीं चाहिए था. हमारा धैर्य जवाब देने लगा.
जैसे जैसे रात बढ़ती चली, तरह तरह के जंगली जीवों की सरसराहट एवं पशु पंखियों की डरावनी आवाजें आनी शुरू हो गई. थोड़ी देर तक हम वह आवाजें सुनते बैठे रहे.
तभी हमें अपने सर के ऊपर ही सरसराहट सुनाई दी. हम दर गए. तुरंत टॉर्च की रोशनी ऊपर की तो हमारी सांस हलक में ही अटक गई. हमारे सामने स्वयं काल आकर खड़ा हो गया था.
ऊपर वाली टहनी पर करीब चार पांच मीटर लम्बा एक भयंकर काला और मोटा साँप सरक रहा था. हम लोगों ने गभराहट में तुरंत ही अपनी बंदूकें उस और तान दी. पर वह साँप दूसरी और बढ़ गया.
अचानक परिंदों की फरफराहट और चीख़ों से रात का सन्नाटा टूट गया. हमारे बदन में सिहरन दौड़ गई. उस साँप ने किसी परिंदे के घोंसले पर धावा बोला था. जिनका यह सब शोर शराबा था.
थोड़ी देर में फिर चारों और शांति हो गई. अब वह साँप भी कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. हमने राहत की सांस ली.
पर थोड़ी थोड़ी देर में कहीं न कहीं से ऐसी ही आवाजें आती रहती थी. हमें अगल बगल में कोई न कोई साँप दिखाई दे जा रहा था. दिन में हमने यहाँ इतने साँप होंगे ऐसी कल्पना भी नहीं की थी. पर रात बीतते तो ऐसा लग रहा था जैसे इस टापू पर सिर्फ साँप का ही बसेरा हो. सिर्फ साँप अन्य जीवों का ही शिकार नहीं कर रहे थे, हमारे बगल वाले पेड़ पर एक शिकारी साँप हमारे देखते खुद ही दूसरे बड़े साँप का शिकार हो गया. साँप भी ऐसे, की फुफकार भी लग गई तो प्राण बदन का बैरी हो जाए.
हमने इसके इलाज के लिए कुछ टहनियां काट ली. और उसे पेड़ के तने एवं टहनियों पर पटक कर आवाज़ पैदा करने लगे. जिससे की वें हमसे दूर रहे. यह तरीका काम कर गया. फिर हमारे नजदीक कोई सर्प दिखाई न दिया.
वक्त वक्त पर किसी न किसी प्राणी या रेंगने वाले जीवों की गतिविधि से घाँस, लताओं, पौधों और बिखरे पड़े कूड़े में खलबली मच जाती थी. उल्लूओं और अन्य निशाचर पक्षियों की आवाज़ें रात को और भयावह बना रही थी. और ऐसे माहौल में वहां की बड़ी बड़ी और मोटी मोटी बिल्लियों की चमकती हुई आंखे हंे दहशत की लहर दौड़ा देती थी. ऐसी ही एक मोती काली बिल्ली ने हमें डरा दिया था. वह चुपके से हमारी सामने वाली दाल पर आ बैठी और हमें घूरकने लगी. पर हमने कोई हिलचाल करना उचित न जाना. सायद उसने किसी इंसान को पहली बार देखा था. वह देर तक हमें घूरकने के बाद हमारी कोई प्रतिक्रिया न पाकर हमारी उपर वाली दाल पर कूद आई. तब विनु ने दर कर बंदूक तानी. वह इस नवीन चीज को देखकर दरी, पीछे हटी और भाग चली.रात के सन्नाटे में दूर से एक और घोर गंभीर आवाज सुनाई देनी शुरू हुई. वह समुद्र की लहरों की आवाज थी. इस आवाज़ से एक बात तो तै थी, की हम समुद्र से ज्यादा दूर नहीं थे. पर दिन भर वहीँ घूमते भटकते रहे थे.
रात को एक और अचरज की बात हुई. हमें कहीं से रोशनी आती हुई दिखाई दी. हमने जरा देर के लिए टॉर्च क्या बुझाई, हमारी दिमाग की बत्ती जल उठी. हम लोगों से कितनी बड़ी भूल हो गई थी, इस बात का एहसास हुआ. उस नक्शे में जो आकृतियों की चमकीली किनारियाँ थी, वह जुगनू की रोशनी का संकेत कर रही थी. जो हम अभी इस टापू पर भी देख रहे थे. वास्तवमें इन सभी टापुओं के किनारे पर समुद्री वनस्पतियां इस जुगनू का बसेरा थी. और इसलिए टापुओं की किनारियाँ चमकीली नजर आ रही थी. इससे हमसे जो नक्शे का अर्थघटन करने में ग़लतियाँ हुई थी वह भी समझ में आ गई.
हम बहुत थक चुके थे. नींद भी आ रही थी. पर दर के मारे सो नहीं पा रहे थे. लगता था, जैसे चारों और मौत अपनी जाल फैलाए खड़ी हो! जरा सी लापरवाही और जान से हाथ धोया.
रात बीतते ठंड भी बहुत बढ़ने लगी. हमारे पास काँपते हुए बैठे रहने के अलावा कोई चारा न था. आग सुलगा न सकते थे. थकान से हाल भी बहुत बुरा था. मुझे और हसमुख को तो बुखार भी चढ़ आया. अब हम यहाँ आने पर बहुत पछता रहे थे. क्या करें? कैसे यहाँ से निकले? हम एक दूसरे पर गुस्सा हो रहे थे. आपस में ही झगड़ने लगे. एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे थे. धन की खोज का खयाल भी अब तो मन से बिलकुल निकल गया था. बस, कैसे भी कर के अब तो यहाँ से निकलना था.
जैसे तैसे डरते काँपते रात बीती. सवेरा हुआ. हम में जैसे प्राणों का संचार हुआ. सूरज की पहली किरण निकलते ही नए जोश के साथ हम पेड़ से कूद पड़े. दिशा सूचक यंत्र से दिशा का पता लगाया और फिर किनारे तक पहुँचने की कोशिश में निकल पड़े.
पर हम इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ थे की सिर्फ रात बीत जाने से शिकारियों का खतरा जाता नहीं रहा. यह सवेरा हमारी जिन्दगी में सब से बड़ा मनहूस सवेरा बन कर जिंदगी भर के लिए एक काले साए की तरह दर्ज हो जाने वाला था.
हमने किनारे की तलाश में प्रयाण शुरू किया. घंटा भर बीता होगा. मैं और जगो सब से पीछे चल रहे थे.
अचानक जगा की जोर जोर की कान फोड़ने वाली चीखें वातावरण में गूंज उठी. हम सब दहशत से थरथरा गए.
क्या हो गया? सब के मन में एक ही प्रश्न था.
क्रमशः
जगा के साथ क्या हुआ? हसमुख और उनके दोस्तों के साथ क्या होने वाला है? क्या इन सब दुर्घटनाओं की वजह वह अभिशाप है? जिसने मेघनाथजी के नौकरों की बुरी वले की थी? जानने के लिए पढ़ते रहिए. .
 
OP
B
Member

0

0%

Status

Offline

Posts

125

Likes

33

Rep

0

Bits

0

3

Years of Service

LEVEL 2
80 XP
अचानक जगा की जोर जोर की कान फोड़ने वाली चीखें वातावरण में गूंज उठी. हम सब दहशत से थरथरा गए.
क्या हो गया? सब के मन में एक ही प्रश्न था.
मैंने तुरंत मुड़कर जगा की और देखा! उनके चेहरे पर मौत का दर साफ़ दिखाई दे रहा था. तुरंत मेरी नजर नीचे गई.
वहां दो बड़ी बड़ी आँखों वाला एक विकराल जबड़ा था. जो जगा के पाँव को नुकीले दांतों में जकड़े हुए था. और जगो उससे पीछा छुड़ाने की नाकाम कोशिश कर रहा था.
वह एक ज़मीं पर रेंगने वाला घड़ियाल था. जो इस झाड़ियों में कहीं छिपकर बैठा हुआ था. और जगो अब उसके जबड़े में फँस चूका था.
मैंने तुरन ही अपनी बंदूक से गोलियां चलाई, पर उसकी मोटी चमड़ी में जैसे कुछ हुआ ही नहीं.
उसी वक्त विनु उस पर हमला करने के इरादे से जरा सा पीछे क्या हटा, तुरंत जैसे कि सीने उसे जोर से उठाकर फेंक दिया. विनु एक पेड़ के साथ टकरा कर गिरा. वह भी बहुत घायल हो गया. उठ ही नहीं पा रहा था.
उस घड़ियाल ने अपनी पूंछ से विनु पर जोरदार प्रहार किया था.
कृष्णा और हसमुख विनु की मदद के लिए दौड़े.
यहाँ मैं टहनी से उस घड़ियाल की ठुड्डी पर जोर जोर से प्रहार करने लगा. तुरंत ही वह जगा के पाँव को छोड़ कर पीछे हटा. हरी ने मौका न गँवाते हुए जगा को संभालकर उसके जबड़े से खिंच लिया.
वह घड़ियाल जबड़ा फाड़े फिर से हमले की तैयारी करने लगा.
संकर को मौका मिला. घड़ियाल का मुंह खुला देख, उसने तुरंत ही अपनी बंदूक से घड़ियाल के खुले मुख में गोलियां दाग दी. वह वहीँ तड़प ने लगा.
अब हमारा ध्यान जगा और विनु की और गया. वे दोनों गंभीर रूप से घायल थे. हमने दोनों को उठाया और दूर भागे.
अब हमारे लिए मुश्किलियाँ बढ़ गई थी. दोनों को उठाकर हमें चलना पड़ रहा था. विनु की सायद हड्डी टूट गई थी और जगा का बहुत खून बह रहा था. दोनों को गंभीर चोटें आई थी. थोड़े दूर निकल कर हमने अपने अपने रूमाल उनके घावों पर कसकर बाँध दिए.
इस बार हमारा नसीब खुल गया था. हमें समुद्र की लहरों की आवाज सुनाई देने लगी. हम जोश से भर गए और जल्दी जल्दी आवाज़ की दिशा में बढ़े. थोड़ी ही देर में हम बीहड़ से निकल गए और सामने ही किनारा दिखाई देने लगा. हमारी आंखें चमक उठी. हमने ईश्वर को शुक्रिया कहा.
किनारे पर पहुंचकर अपनी बोट को ढूंढने लगे. पर हमें अपनी बोट कहीं दिखाई नहीं दे रही थी. न वो नाव दिखाई दे रही थी. फिर गभराए. मुसीबत ने अब तक हमारा पीछा न छोड़ा था. सायद हम किसी और जगह निकल आये थे. इधर उधर देखने लगे. कोई संकेत दिखाई नहीं दे रहा था की हम कहाँ निकल आये है.
तभी हमारा ध्यान समुद्र में खड़े एक छोटे खड़क पर पड़ा. जो हमने बोट से भी देखा था. बोट से वह खड़क पश्चिम में दूर दिखाई दे रहा था, पर अब वह हमें नजदीक दिखाई दे रहा था. इससे तै हो गया की हम जहां से चले थे वहां से पश्चिम में निकले है.
हम पूर्व की और चले. करीब घंटे भर चलने के बाद हमें अपनी बोट दिखाई दी. वह नाव भी वहीँ खड़ी थी. बोट के नजदीक पहुंचकर हम पानी में उतरे. अब तैरते हुए बोट पर जाना था.
मैंने और संकर ने जगा को और कृष्णा - हसमुख ने विनु को अपनी अपनी पीठ पर लादा. हरी सबसे पीछे हमें सहारा देने के लिए रहा. हम पानी में उतरे. बोझ को पीठ पर लादे तैरना मुश्किल हो रहा था, इसलिए हम धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे. समुद्री वनस्पतियां भी हमारी गति अवरुद्ध कर रही थी. फिर भी हम धीरे धीरे बोट के नजदीक पहुँचे. हम बोट से बस, थोड़े ही दूर थे, तभी हमारी जिन्दगी की सबसे मनहूस घड़ी आ पहुंची.
हमें पानी में सफेद सा तैरता हुआ कुछ दिखाई दिया. वह चीज और ऊपर आई. और हरी की चीख निकल गई. हमारी दृष्टि पड़ी. जैसे हमने स्वयं यमदूत को देख लिया हो, वैसे हम जम से गए. वहां साक्षात् मौत खड़ी थी. वह एक शार्क थी. जगा के पैर से रिसते खून की महक पा कर वह यहाँ आ पहुंची थी.
हमने चीख पुकार मचा दी. जोर जोर से हाथ पैर मारकर बोट की और भागे. बोट पर लटकती हुई रस्सियाँ थाम कर हमने अपने बदन को तेजी से ऊपर की और खींचा. आखिर में हम जैसे तैसे बोट पर पहुँच गए. पर इस हड़बड़ी में हमसे एक बहुत बड़ी गलती हो गई थी.
जब हमने ऊपर चढ़ कर देखा तो विनु और जगा को न पाया. हम को अपने प्राण बचाने के चक्कर में उन दोनों का खयाल ही नहीं रहा था. वह दोनों हमसे सदा के लिए बिछड़ चुके थे.पानी में जब देखा तो वहां एक बड़े लाल रंग के धब्बे के अलावा कुछ न था. न तो जगा या विनु का कोई निशान था न वह बैरी शार्क का.
यह दृश्य याद करते ही संकरचाचा, हरीचाचा और लखन अंकल फिर से रो पड़े. थोड़ी देर रुकने के बाद लखन अंकल ने फिर शुरू किया.
हम पांचों वहीँ बोट पर गिर पड़े. जोर जोर से रोते रहे. हम पुरी तरह से टूट चुके थे. न जाने कब तक रोते बिलखते पड़े रहे. फिर किसी को कोई सुद्धबुद्ध न रही. कब तक ऐसे ही पड़े रहे, यह भी पता न चला. जब मुझे हरी ने जगाया तब रात्रि होने को आई थी. मुश्किल से हम सब उठे. और वहां से चले.
जब हम घर पहुँचे तब हमने सिर्फ इतना ही बताया की तैरने के दौरान एक शार्क के हमले में वे दोनों मारे गए. पर हम कायरों की यह बताने की हिम्मत आज तक नहीं हुई की वास्तव में हम उस टापू पर क्यूँ गए थे. और वहां जगा और विनु के साथ क्या हुआ था.
इस दुर्घटना के बाद हम भी समझने लगे कि मेघनाथजी का वह धन सचमुच शापित है. इसलिए हम सब ने तै किया कि अब इस बात का जिक्र जिंदगी में किसी से नहीं करेंगे. और अपनी भावी पीढ़ी को भी इस मेघनाथजी के छिपे धन के बारें में कुछ न बताएँगे. जिस से कि वे इस धन को प्राप्त करने की कोशिश में हमारी तरह कोई जान का जोखिम न उठाये.
इस तरह मेघनाथजी के उस धन को जमाने के लिए सदा सदा के लिए लापता कर दिया गया.
पर आज तुम्हारे समक्ष इस राज़ का इजहार कर हम अपने गुनाहों पर शर्मिन्दगी प्रगट करते हैं."
इतना कह, लखन अंकल ने अश्रु भरी आँखों के साथ अपनी कथा समाप्त की.
यह वितक कथा सुन, राजू भी दुःख से विह्वल हो उठा. वह सबको आश्वासन देने लगा:
"देखो अंकल, यह तो एक अकस्मात् था. आप लोगों ने जानबूझकर तो कुछ नहीं किया. आप लोगों की जगह और कोई भी होता तो उनसे भी यहीं गलती होती. इसलिए जो कुछ हो चूका, उसे ईश्वर की मरज़ी ही समझे."
और राजू ने वादा भी किया कि वह भी इस बात को राज़ ही रखेगा.
जब लखन अंकल ने अपनी बात पुरी की तब तक रात्रि के ढाई बज चुके थे. राजू ने सब को अपने अपने घर पर छोड़ा. और स्वयं घर पहुंचकर लेट गया.
पर उसके दिमाग से अपने प्रदादाजी के धन और वह दुर्घटना के विचारों ने पीछा न छोड़ा था. वह सोच रहा था. उसके पापा इस धन को क्यूँ प्राप्त न कर पाए.
तभी उनके दिमाग में बिजली चमकी. उसके होंठों पर एक मुस्कुराहट उभर आई. फिर वह गहरी सोच में डूब गया. ऐसे सोचते सोचते ही वह सो गया.
उसके दिमाग में मेघनाथजी की रची इस पहेली घर कर गई थी. जो अब उनका पीछा नहीं छोड़ने वाली थी.
दूसरे दिन उसने सारा माजरा जेसिका को कह सुनाया. और ताकीद भी की कि इस बात का ज्यादा प्रचार न हो और राज़ ही बना रहे.
"क्या तुम इस धन तक पहुँचने की कोशिश करोगे?" जेसिका ने पूछा.
"मैं सोच रहा हूँ, मुझे भी एक कोशिश अवश्य करनी ही चाहिए. आखिर मेरे प्रदादाजी की भी आखरी इच्छा यही थी कि उनके परिवार का कोई वारिस इस धन तक पहुँचे." राजू ने अपनी मनसा जाहिर की.
"हाँ, मेरी भी यहीं राय है. पर क्या उस अकस्मात् के बाद आंटी तुम्हें मंजूरी देगी?" जेसिका ने अहम संदेह प्रगट किया.
"तुम्हारी बात तो सही है. मेरे लिए भी यह एक बड़ा प्रश्न है. पर कोई न कोई तरीका तो ढूँढना ही पड़ेगा न!" राजू कुछ सोचते हुए बोला.
"फिर तो यह अकस्मात् की बात जहां तक छिपी रहे उतना ही बेहतर रहेगा." जेसिका ने बताया.
"मैं भी यहीं चाहता हूँ. और अब तो मेरे पास सफल होने की वजहें भी ज्यादा हैं. क्यूंकि इस पर मैंने बहुत कुछ पता लगाया है. राजू ने कहा.
"अच्छा! वो क्या!?" जेसिका ने खुश होते हुए बड़ी बेताबी से पूछा.
क्रमशः
राजू को ऐसी कौन सी बात पता चली थी की वह धन को प्राप्त कर लेने के सपने देखने लगा था? क्या वह धन को प्राप्त कर पाएगा? जानने के लिए पढ़ते रहे.
 
OP
B
Member

0

0%

Status

Offline

Posts

125

Likes

33

Rep

0

Bits

0

3

Years of Service

LEVEL 2
80 XP
अच्छा! वो क्या!?" जेसिका ने खुश होते हुए बड़ी बेताबी से पूछा.
इसके उत्तर में राजू कहने लगा.
"जब नानू ने उस तस्वीर, चाबी और नक्शे को देखा, तभी वह इसके नकली होने के बारें में समझ गया था. और तुरन ही उसने मदद करने से इंकार भी कर दिया. वह सही भी तो था! क्यूंकि कोई भी ऐसी नकली चीजें बनाकर ला सकता था. और मेरे प्रदादाजी ने भी इस बारें में कुछ न कुछ विचार तो अवश्य ही किया होगा न! इसलिए इस मामले में असली चीजों के बिना काम नहीं निकल सकता था. पर पापा असल सब चीजें घर पर ही छोड़ गए थे. ये उनकी पहली गलती थी."
"दूसरी बात यह की नानू के घर से भी एक तस्वीर चोरी हुई थी. उस चोरी के इल्जाम में नानू ने उनके पापा और उनके दोस्तों पर ही पहला शक किया. और जब मेथ्यु के द्वारा बोट से चाबी, तस्वीर और नक्शे चुराए जाने की बात सुनी तो वह बड़ी सोच में पड़ गया. और कुछ सोचकर वहां से वापस लौट गया. इन सब बातों से एक बात तै होती है कि नानू के पास वाली तस्वीर की भी इस मामले में बड़ी भूमिका अवश्य होनी चाहिए. इसलिए उस तस्वीर के बिना इस पहेली को सुलझाया नहीं जा सकता. जो नानू की मदद के बिना नहीं मिल सकती."
"तीसरी बात यह की जैसे लखन अंकल ने बताया, सर्प की आकृति की बताई दिशा में वे गए और ऐसे टापू पर पहुँच गए, जहां बहुत सर्प थे. यानी वह सर्प की आकृति सिर्फ भुलावा देने के लिए थी. और वह आकृति का गलत अर्थघटन हुआ था."
"चौथी बात यह की वे सब आकृतियों की किनारियाँ चमकीले रंगों से बनी हुई थी. और लखन अंकल के मुताबिक वह चमक जुगनू की रोशनी का संकेत करती थी. पर जुगनू की रौशनी तो सिर्फ रात को ही दिखाई देती है! मतलब रात के वक्त ही उस पहेली को सुलझाया जा सकता था. पर पापा और उनके दोस्तों ने तो बैठे बैठे ही इसे सुल्जाने की कोशिश की थी. ऐसे तो पहेली कैसे सुलज सकती थी?"
"देखो, यह चार वजहों से पापा को विफलता मिली है."
इतना कहते हुए राजू चुप हुआ.
"यह तो बढ़िया बात हुई! और फिर तुमने सी कप्तान की तालीम भी तो ली है, जो तुम्हारे लिए बेनिफीट का काम करेगी." जेसिका बोली.
"हाँ, यह भी है!" राजू ने कहा. और आगे दोहराया.
"पर सच्चाई तो यह है कि मैंने उस नक्शे, चाबी और तस्वीर को कभी नहीं देखा. और वे सब चीजें अभी कहाँ है वह भी मैं नहीं जानता." राजू ने दुविधा में पड़ते हुए अपना अज्ञान प्रगट किया.
"ओह! तो तुम उसके बारें में कुछ नहीं जानते!?" जेसिका ने आश्चर्य प्रगट किया.
"तब तो तुम्हें सब से पहले वे सारी चीजें धुंध निकालनी होंगी. उसके बाद ही बात कुछ आगे बढ़ सकती है." जेसिका ने आगे बताया.
"हाँ, पर वे सारी चीजें आखिरकार घर में ही कहीं होनी चाहिए." राजू बोला.
दोनों की बात समाप्त होती है.
फिर राजू उन सब चीजों के बारें में सोचने लगा. थोड़ी देर बाद वह खड़ा हुआ. और घर में पुराना सामान जहां पड़ा रहता था, उस तहखाने में पहुंचा.
वहां काफी सारा पुराने जमाने का सामान पड़ा हुआ था. इन सामान में ज्यादातर उनके दादाजी का समुद्र और नौका में काम आने वाला सामान ही था. उस सामान में कुछ पुरानी संदूकें भी थी. इन सब सामान और संदूकों को वह पहले भी कई बार घर की सफाई के दौरान देख चूका था, पर उसने कभी किसी नक्शे, तस्वीर, चाबी इत्यादि को नहीं देखा था. वह फिर से एक के बाद एक हर संदूकों को देखने लगा. पर उस संदूकों में ऐसा कुछ नहीं था, जो वह धुंध रहा था.
तभी उसका ध्यान एक संदूक पर गया. उस संदूक पर हरदम एक ताला लगा रहता था,. उसने कई बार अपने पापा को उस संदूक खोलने के लिए कहा था, पर चाबी नहीं है, यह कहकर उसके पापा हरदम बात को ताल दिया करते थे. इसलिए उस संदूक में क्या है, वह कभी देख नहीं पाया था.उसने संदूक को देखा. उस पर पीतल का पुराने जमाने का एक मजबूत ताला लगा हुआ था. पर अब वह धूल मिट्टी लग जाने से काला पड़ चूका था, मगर आज भी साबुत था.
उसने एक अन्य संदूक खोला. और उसमे से पुरानी चाबियों का एक जुड़ा निकाला. वह एक के बाद एक चाबी लगाता जा रहा था. काफी मेहनत के बाद आखिरकार एक चाबी से वह ताला खोलने में सफल हो गया. संदूक में बहुत सा पुराना सामान भरा हुआ था. जिन पर काफी दस्त जमा हो गई थी. वह एक के बाद एक सब सामान को निकालकर देखने लगा. धीरे धीरे उनके लबों पर मुस्कुराहट फैलने लगी. वह जिस चीज को धुंध रहा था, वे सब उसमे से एक एक करते निकलती गई. उनके परदादा के लिखे हुए वें पत्र, वह नक्शा, तस्वीर, चाबी इत्यादि सारी चीजें उसमे सलामत थी. सारी आवश्यक चीजों को उसने अपने पास रखा. और बाकी सामान को वापस संदूक में बंध कर दिया.
रात को उसने सारा सामान का पता मिल जाने के बारें में बहुत उत्साह से जेसिका को अवगत कराया. वह भी बहुत खुश हुई. फिर तो आगे क्या किया जाना चाहिए इस पर दोनों के बीच बहुत विचारों का आदान प्रदान हुआ.
"जेसिका : "तुमने इस आपरेशन में तुम्हारा साथ दे सके ऐसे लोगों के बारें में क्या सोचा है?"
राजू: "अभी तक तो इस बारें में कुछ नहीं सोचा, पर मेरे कई दोस्त इसमें जुड़ना पसंद करेंगे."
जेसिका: क्या तुम्हारी किसी से बात हुई?"
राजू: "नहीं अभी तो इसका पूरा मुसद्दा ही कहाँ तैयार हुआ है!"
जेसिका को भी इस आपरेशन का हिस्सा बनने की तीव्र इच्छा थी. आखिर उसने राजू को पूछ ही लिया कि "क्या वह इस अभियान में शामिल हो सकती है?" और राजू ने भी बहुत खुशी से उसे वेलकम किया. आगे बताया कि वह उसके आपरेशन में जुड़ने वाली पहली सदस्य हुई है. और अभी मुझे आगे कई साथिओं की आवश्यकता रहेगी.
पर राजू को जेसिका को अंकल आंटी से अनुमति मिलने में संदेह था, इसलिए उसने पूछा.
राजू: "मगर जेसिका, क्या अंकल आंटी तुम्हें अनुमति देंगे?"
जेसिका: "देखो मैं (Biological anthropology) में PHD कर रही हूँ. और फिलहाल केरेबियन सागर के द्वीपों पर आदिवासियों की बस्ती में मेरा रिसर्च चल रहा है. इसलिए मुझे तुमसे जुड़ने में कोई ज्यादा दिक्कत नहीं आएगी. और मैं तुम्हारा काम भी आसान कर सकती हूँ. क्यूंकि मैं अपने रिसर्च की वजह से जितनी आसानी से कहीं भी पहुँच सकती हूँ, उतनी आसानी से तुम सायद न पहुँच पाओ."
जेसिका का कहना अहम था. उनकी बात ने राजू को सोच में दाल दिया. जेसिका की बात को बिलकुल नकारा नहीं जा सकता था. अब बहुत से इलाकों में जाने के लिए उस क्षेत्र की सरकार से पूर्व अनुमति लेनी पड़ती है. ऐसे में वे किस बहाने से ऐसे क्षेत्रों में प्रवेश कर सकते है?
"हाँ, तुम्हारी बात तो बिलकुल सही है." राजू ने कहा.
दोनों की बात ख़त्म हुई.
फिर राजू बाकी की तैयारियों में लग गया. वह अब इस आपरेशन का नेतृत्व कर रहा था. उसने अपनी टीम के सदस्यों की तलाश शुरू कर दी. इस संदर्भ में अपने कुछ ख़ास ख़ास दोस्तों से बात भी की. कुछ भरोसेमंद लोगों को भी वेतन पर रखने की सोची.गोवा में रहनेवाले अपने दोस्त के पिताजी, जिनका टूरिस्टों को किराए पर याट देने का व्यवसाय था, उनसे बात कर एक याट की भी व्यवस्था कर ली. अपने पिताजी की तरह हर ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए सब आवश्यक सामान की भी पूर्ति कर ली, जो आपरेशन के दौरान काम आ सकती थी. याट पर कुछ आपातकालीन नौका की भी व्यवस्था रखी. और अगर कहीं रानी पशुओं से पाला पड़ जाए तो उसे डरा कर भगाने के लिए पटाखे एवं अश्रु गोले की भी सुविधा रखी. घुटनों तक के बूट एवं हेलमेट भी बसा लिए. राजू ने एक और बुद्धिमानी का काम यह किया कि उसने कुछ टेंट फौजी के कपड़ों के रंग वाले बना लिए, जिससे कि जंगल में इसे लगाया जाए तो आसानी से किसी की नजर में न पड़े. और जंगल में आग जलाने की जरूरत पड़ी और वह अनियंत्रित हो कर फैलने लगे तो उसे बुझाने के लिए कार्बन डायऑक्साइड के गोले भी ले लिए. बहुत सोच समझकर वह बेहद बारीकियों से तैयारी कर रहा था.
इस दौरान राजू के सामने सबसे बड़ी दिक्कत अपनी मम्मी और रिश्तेदारों को राजी करने में आई. पर मेघनाथजी की अंतिम इच्छा की बात कहकर उसने सब को रजामंद कर लिया. मेघनाथजी की आखरी इच्छा के नाम पर सब के मुंह सिल जाते थे.
इस आपरेशन में समुद्री लुटेरों एवं अन्य दुश्मनों से भेंट होने की संभावना भी पुरी थी. उसके लिए बंदूकों, गोलियों और अन्य हथियारों की आवश्यकता रहती थी, पर वह अब आसानी से प्राप्त नहीं हो सकता था. इस बारें में उसने अपने दोस्तों से भी बात की, पर कोई हल न मिला.
क्रमशः
अब राजू जरूरी हथियार कैसे प्राप्त करेगा? क्या वह हथियार आसानी से प्राप्त कर लेगा? उनके सामने क्या क्या दिक्कतें आएगी? जानने के लिए पढ़ते रहे...
 

55,891

Members

318,017

Threads

2,666,583

Posts
Newest Member
Back
Top