Member
LEVEL 1
85 XP
खैर, अंततः वह दिन भी आया जब मुझे संध्या को ब्याहने उसके घर जाना था। निकलने से पूर्व, एक इवेंट ऑर्गेनाइजर को बुला कर विवाहोपरांत रिसेप्शन भोज के निर्देश दिए और अपने घर की चाबियाँ हाउसिंग सोसाइटी के सेक्रेटरी को सौंप कर वापस उत्तराँचल चल पड़ा। उनसे यह निवेदन भी किया कि व मेरे पीछे घर की साफ़ सफाई, और पौधों और चिड़ियों की देखभाल करवाते रहें। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं निश्चिंत हो कर जाऊँ और अपने विवाह का आनंद उठाऊँ।
बारात के नाम पर मेरे दो बहुत ही ख़ास दोस्त ही आ सके। खैर, मुझे बारात जैसे तमाशे की आवश्यकता भी नहीं थी। कोर्ट में ज़रूरी कागजात पर हस्ताक्षर करना मेरे लिए काफी था। विवाह, दरअसल मन से होता है, नौटंकी से नहीं। एक सफल विवाह के लिए पारस्परिक प्रेम, एक दूसरे के लिए आदर सम्मान, और अपनी अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होना सबसे आवश्यक है। मंत्र पढ़ने, आग के सामने चक्कर लगाने से विवाह में प्रेम, आदर और सम्मान नहीं आते – वो सब प्रयास कर के लाने पड़ते हैं। लेकिन मैं यह सब उनके सामने नहीं बोल सकता था – उन सबके लिए अपनी बड़ी लड़की का विवाह करना बहुत ही बड़ी बात थी, और वो सभी इस अवसर को अधिक से अधिक पारंपरिक तौर-तरीके से मनाना चाहते थे। मेरे मित्रों ने देहरादून शक्ति सिंह जी के घर तक स्वयं ही गाड़ी चलाई, और मुझे नहीं चलाने दी।
शक्ति सिंह जी के बहुत बार कहने पर भी मैंने उनसे हमारे रुकने ठहरने की कोई व्यवस्था न करने को कहा। जिससे उन पर अलग से कोई आर्थिक बोझ न पड़े। वैसे भी उन पर कोई कम बोझ नहीं था। उस कस्बे में वही, अपने वाले होटल में हमने तीन सबसे बड़े कमरे हमने बुक कर लिए थे, जिससे कोई कठिनाई नहीं हुई। संध्या के आभूषणों के लिए भी पहले से ही मैंने शक्ति सिंह जी को बोल दिया था कि वो व्यवस्था मैं करूँगा। पत्नी को आभूषण पति पहनाता है, पिता नहीं। शुरू में उन्होंने थोड़ी आनाकानी करी, लेकिन फिर मान गए।
विवाह सम्बन्धी क्रिया विधियां और संस्कार, शादी के दो दिन पहले से ही प्रारंभ हो गई - ज्यादातर तो मुझे समझ ही नहीं आई, कि क्यों करी जा रही हैं। पारंपरिक बाजे गाजे, संगीत इत्यादि कभी मनोरम लगते तो कभी बेहद चिढ़ पैदा करने वाले! दोस्तों के डांस करने में मज़ा आता। कभी कभी नीलम भी साथ दे देती। संध्या तो न जाने कहाँ गायब हो गई थी। खैर, इतने दिनों में कम से कम एक दर्जन, लम्बी चौड़ी विवाह रीतियाँ (मुझे नहीं लगता कि आपको वह सब विस्तार में जानने में कोई रुचि होगी) जब संपन्न हुईं, तब कहीं जाकर मुझे संध्या को अपनी पत्नी कहने का अधिकार मिला। यह सब होते होते इतनी देर हो चली थी कि मेरा मन हुआ कि बस अब जाकर सो जाया जाए। ऐसी हालत में भला कौन आदमी सेक्स अथवा सुहागरात के बारे में सोच सकता है! लेकिन जब मैंने अपनी घड़ी पर नज़र डाली, तो देखा कि अभी तो मुश्किल से सिर्फ दस बज रहे थे - और मुझे लग रहा था कि रात के कम से कम दो बज रहे होंगे। सर्दियों में शायद पहाड़ों पर रात जल्दी आ जाती है, जिसकी मुझे आदत नहीं थी। खैर, अगले आधे घंटे में हमने खाना खाया और शुभचिंतकों से बधाइयाँ स्वीकार कर के, विदा ली। मेरा प्लान तो संध्या को अपने होटल के कमरे में लिवा लाने का था, लेकिन उन्होंने आग्रह किया कि हम होटल न जाएँ, बल्कि घर पर ही रहें। यह बात मैंने मान ली।
खैर, तो मेरी सुहागरात का समय आ ही गया, और संध्या जैसी परी अब पूरी तरह से मेरी है - यह सोच सोच कर मैं बहुत खुश हो रहा था। दिल में एक अनोखी सी गुदगुदी हो रही थी। अब, भई, यहाँ मेरी कोई भाभी या बहन तो थी नहीं, अन्यथा सोने के कमरे में जाने से पहले भारी चुंगी देनी पड़ती। मुझे नीलम ने सोने के कमरे का रास्ता दिखाया। मैंने नीलम को एक हज़ार रुपए का नोट दिया, उसको गुड नाईट और धन्यवाद कहा, और अपने कमरे में प्रवेश किया। हमारे सोने का इंतजाम उसी घर में एक कमरे में कर दिया गया था। यह काफी व्यवस्थित कमरा था - उसमें दो दरवाज़े थे और एक बड़ी खिड़की थी। कमरे के बीच में एक पलंग था, जो बहुत चौड़ा नहीं था (मुश्किल से चार फीट चौड़ा रहा होगा), उस पर एक साफ़, नयी चादर, दो तकिये और कुछ फूल डाले गए थे। संध्या उसी पलंग पर अपने में ही सिमट कर बैठी हुई थी। संध्या ने लाल और सुनहरे रंग का शादी में दुल्हन द्वारा पहनने वाला जोड़ा पहना हुआ था। मैं कमरे के अन्दर आ गया और दरवाज़े को बंद करके पलंग पर बैठ गया। पलंग के बगल एक मेज रखी हुई थी, जिस पर मिठाइयाँ, पानी का जग, गिलास, और अगरबत्तियां लगी हुई थी। पूरे कमरे में एक मादक महक फैली हुई थी। बाहर हाँलाकि बहुत ठंडक थी, लेकिन इस कमरे में ठंडक नहीं लग रही थी। संभव है कि पत्थर, और चूने जैसे पारम्परिक पदार्थों से बना होने के कारण यहाँ ठंडक कम लग रही हो।
बारात के नाम पर मेरे दो बहुत ही ख़ास दोस्त ही आ सके। खैर, मुझे बारात जैसे तमाशे की आवश्यकता भी नहीं थी। कोर्ट में ज़रूरी कागजात पर हस्ताक्षर करना मेरे लिए काफी था। विवाह, दरअसल मन से होता है, नौटंकी से नहीं। एक सफल विवाह के लिए पारस्परिक प्रेम, एक दूसरे के लिए आदर सम्मान, और अपनी अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होना सबसे आवश्यक है। मंत्र पढ़ने, आग के सामने चक्कर लगाने से विवाह में प्रेम, आदर और सम्मान नहीं आते – वो सब प्रयास कर के लाने पड़ते हैं। लेकिन मैं यह सब उनके सामने नहीं बोल सकता था – उन सबके लिए अपनी बड़ी लड़की का विवाह करना बहुत ही बड़ी बात थी, और वो सभी इस अवसर को अधिक से अधिक पारंपरिक तौर-तरीके से मनाना चाहते थे। मेरे मित्रों ने देहरादून शक्ति सिंह जी के घर तक स्वयं ही गाड़ी चलाई, और मुझे नहीं चलाने दी।
शक्ति सिंह जी के बहुत बार कहने पर भी मैंने उनसे हमारे रुकने ठहरने की कोई व्यवस्था न करने को कहा। जिससे उन पर अलग से कोई आर्थिक बोझ न पड़े। वैसे भी उन पर कोई कम बोझ नहीं था। उस कस्बे में वही, अपने वाले होटल में हमने तीन सबसे बड़े कमरे हमने बुक कर लिए थे, जिससे कोई कठिनाई नहीं हुई। संध्या के आभूषणों के लिए भी पहले से ही मैंने शक्ति सिंह जी को बोल दिया था कि वो व्यवस्था मैं करूँगा। पत्नी को आभूषण पति पहनाता है, पिता नहीं। शुरू में उन्होंने थोड़ी आनाकानी करी, लेकिन फिर मान गए।
विवाह सम्बन्धी क्रिया विधियां और संस्कार, शादी के दो दिन पहले से ही प्रारंभ हो गई - ज्यादातर तो मुझे समझ ही नहीं आई, कि क्यों करी जा रही हैं। पारंपरिक बाजे गाजे, संगीत इत्यादि कभी मनोरम लगते तो कभी बेहद चिढ़ पैदा करने वाले! दोस्तों के डांस करने में मज़ा आता। कभी कभी नीलम भी साथ दे देती। संध्या तो न जाने कहाँ गायब हो गई थी। खैर, इतने दिनों में कम से कम एक दर्जन, लम्बी चौड़ी विवाह रीतियाँ (मुझे नहीं लगता कि आपको वह सब विस्तार में जानने में कोई रुचि होगी) जब संपन्न हुईं, तब कहीं जाकर मुझे संध्या को अपनी पत्नी कहने का अधिकार मिला। यह सब होते होते इतनी देर हो चली थी कि मेरा मन हुआ कि बस अब जाकर सो जाया जाए। ऐसी हालत में भला कौन आदमी सेक्स अथवा सुहागरात के बारे में सोच सकता है! लेकिन जब मैंने अपनी घड़ी पर नज़र डाली, तो देखा कि अभी तो मुश्किल से सिर्फ दस बज रहे थे - और मुझे लग रहा था कि रात के कम से कम दो बज रहे होंगे। सर्दियों में शायद पहाड़ों पर रात जल्दी आ जाती है, जिसकी मुझे आदत नहीं थी। खैर, अगले आधे घंटे में हमने खाना खाया और शुभचिंतकों से बधाइयाँ स्वीकार कर के, विदा ली। मेरा प्लान तो संध्या को अपने होटल के कमरे में लिवा लाने का था, लेकिन उन्होंने आग्रह किया कि हम होटल न जाएँ, बल्कि घर पर ही रहें। यह बात मैंने मान ली।
खैर, तो मेरी सुहागरात का समय आ ही गया, और संध्या जैसी परी अब पूरी तरह से मेरी है - यह सोच सोच कर मैं बहुत खुश हो रहा था। दिल में एक अनोखी सी गुदगुदी हो रही थी। अब, भई, यहाँ मेरी कोई भाभी या बहन तो थी नहीं, अन्यथा सोने के कमरे में जाने से पहले भारी चुंगी देनी पड़ती। मुझे नीलम ने सोने के कमरे का रास्ता दिखाया। मैंने नीलम को एक हज़ार रुपए का नोट दिया, उसको गुड नाईट और धन्यवाद कहा, और अपने कमरे में प्रवेश किया। हमारे सोने का इंतजाम उसी घर में एक कमरे में कर दिया गया था। यह काफी व्यवस्थित कमरा था - उसमें दो दरवाज़े थे और एक बड़ी खिड़की थी। कमरे के बीच में एक पलंग था, जो बहुत चौड़ा नहीं था (मुश्किल से चार फीट चौड़ा रहा होगा), उस पर एक साफ़, नयी चादर, दो तकिये और कुछ फूल डाले गए थे। संध्या उसी पलंग पर अपने में ही सिमट कर बैठी हुई थी। संध्या ने लाल और सुनहरे रंग का शादी में दुल्हन द्वारा पहनने वाला जोड़ा पहना हुआ था। मैं कमरे के अन्दर आ गया और दरवाज़े को बंद करके पलंग पर बैठ गया। पलंग के बगल एक मेज रखी हुई थी, जिस पर मिठाइयाँ, पानी का जग, गिलास, और अगरबत्तियां लगी हुई थी। पूरे कमरे में एक मादक महक फैली हुई थी। बाहर हाँलाकि बहुत ठंडक थी, लेकिन इस कमरे में ठंडक नहीं लग रही थी। संभव है कि पत्थर, और चूने जैसे पारम्परिक पदार्थों से बना होने के कारण यहाँ ठंडक कम लग रही हो।