Romance कायाकल्प

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खैर, अंततः वह दिन भी आया जब मुझे संध्या को ब्याहने उसके घर जाना था। निकलने से पूर्व, एक इवेंट ऑर्गेनाइजर को बुला कर विवाहोपरांत रिसेप्शन भोज के निर्देश दिए और अपने घर की चाबियाँ हाउसिंग सोसाइटी के सेक्रेटरी को सौंप कर वापस उत्तराँचल चल पड़ा। उनसे यह निवेदन भी किया कि व मेरे पीछे घर की साफ़ सफाई, और पौधों और चिड़ियों की देखभाल करवाते रहें। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं निश्चिंत हो कर जाऊँ और अपने विवाह का आनंद उठाऊँ।

बारात के नाम पर मेरे दो बहुत ही ख़ास दोस्त ही आ सके। खैर, मुझे बारात जैसे तमाशे की आवश्यकता भी नहीं थी। कोर्ट में ज़रूरी कागजात पर हस्ताक्षर करना मेरे लिए काफी था। विवाह, दरअसल मन से होता है, नौटंकी से नहीं। एक सफल विवाह के लिए पारस्परिक प्रेम, एक दूसरे के लिए आदर सम्मान, और अपनी अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होना सबसे आवश्यक है। मंत्र पढ़ने, आग के सामने चक्कर लगाने से विवाह में प्रेम, आदर और सम्मान नहीं आते – वो सब प्रयास कर के लाने पड़ते हैं। लेकिन मैं यह सब उनके सामने नहीं बोल सकता था – उन सबके लिए अपनी बड़ी लड़की का विवाह करना बहुत ही बड़ी बात थी, और वो सभी इस अवसर को अधिक से अधिक पारंपरिक तौर-तरीके से मनाना चाहते थे। मेरे मित्रों ने देहरादून शक्ति सिंह जी के घर तक स्वयं ही गाड़ी चलाई, और मुझे नहीं चलाने दी।

शक्ति सिंह जी के बहुत बार कहने पर भी मैंने उनसे हमारे रुकने ठहरने की कोई व्यवस्था न करने को कहा। जिससे उन पर अलग से कोई आर्थिक बोझ न पड़े। वैसे भी उन पर कोई कम बोझ नहीं था। उस कस्बे में वही, अपने वाले होटल में हमने तीन सबसे बड़े कमरे हमने बुक कर लिए थे, जिससे कोई कठिनाई नहीं हुई। संध्या के आभूषणों के लिए भी पहले से ही मैंने शक्ति सिंह जी को बोल दिया था कि वो व्यवस्था मैं करूँगा। पत्नी को आभूषण पति पहनाता है, पिता नहीं। शुरू में उन्होंने थोड़ी आनाकानी करी, लेकिन फिर मान गए।

विवाह सम्बन्धी क्रिया विधियां और संस्कार, शादी के दो दिन पहले से ही प्रारंभ हो गई - ज्यादातर तो मुझे समझ ही नहीं आई, कि क्यों करी जा रही हैं। पारंपरिक बाजे गाजे, संगीत इत्यादि कभी मनोरम लगते तो कभी बेहद चिढ़ पैदा करने वाले! दोस्तों के डांस करने में मज़ा आता। कभी कभी नीलम भी साथ दे देती। संध्या तो न जाने कहाँ गायब हो गई थी। खैर, इतने दिनों में कम से कम एक दर्जन, लम्बी चौड़ी विवाह रीतियाँ (मुझे नहीं लगता कि आपको वह सब विस्तार में जानने में कोई रुचि होगी) जब संपन्न हुईं, तब कहीं जाकर मुझे संध्या को अपनी पत्नी कहने का अधिकार मिला। यह सब होते होते इतनी देर हो चली थी कि मेरा मन हुआ कि बस अब जाकर सो जाया जाए। ऐसी हालत में भला कौन आदमी सेक्स अथवा सुहागरात के बारे में सोच सकता है! लेकिन जब मैंने अपनी घड़ी पर नज़र डाली, तो देखा कि अभी तो मुश्किल से सिर्फ दस बज रहे थे - और मुझे लग रहा था कि रात के कम से कम दो बज रहे होंगे। सर्दियों में शायद पहाड़ों पर रात जल्दी आ जाती है, जिसकी मुझे आदत नहीं थी। खैर, अगले आधे घंटे में हमने खाना खाया और शुभचिंतकों से बधाइयाँ स्वीकार कर के, विदा ली। मेरा प्लान तो संध्या को अपने होटल के कमरे में लिवा लाने का था, लेकिन उन्होंने आग्रह किया कि हम होटल न जाएँ, बल्कि घर पर ही रहें। यह बात मैंने मान ली।

खैर, तो मेरी सुहागरात का समय आ ही गया, और संध्या जैसी परी अब पूरी तरह से मेरी है - यह सोच सोच कर मैं बहुत खुश हो रहा था। दिल में एक अनोखी सी गुदगुदी हो रही थी। अब, भई, यहाँ मेरी कोई भाभी या बहन तो थी नहीं, अन्यथा सोने के कमरे में जाने से पहले भारी चुंगी देनी पड़ती। मुझे नीलम ने सोने के कमरे का रास्ता दिखाया। मैंने नीलम को एक हज़ार रुपए का नोट दिया, उसको गुड नाईट और धन्यवाद कहा, और अपने कमरे में प्रवेश किया। हमारे सोने का इंतजाम उसी घर में एक कमरे में कर दिया गया था। यह काफी व्यवस्थित कमरा था - उसमें दो दरवाज़े थे और एक बड़ी खिड़की थी। कमरे के बीच में एक पलंग था, जो बहुत चौड़ा नहीं था (मुश्किल से चार फीट चौड़ा रहा होगा), उस पर एक साफ़, नयी चादर, दो तकिये और कुछ फूल डाले गए थे। संध्या उसी पलंग पर अपने में ही सिमट कर बैठी हुई थी। संध्या ने लाल और सुनहरे रंग का शादी में दुल्हन द्वारा पहनने वाला जोड़ा पहना हुआ था। मैं कमरे के अन्दर आ गया और दरवाज़े को बंद करके पलंग पर बैठ गया। पलंग के बगल एक मेज रखी हुई थी, जिस पर मिठाइयाँ, पानी का जग, गिलास, और अगरबत्तियां लगी हुई थी। पूरे कमरे में एक मादक महक फैली हुई थी। बाहर हाँलाकि बहुत ठंडक थी, लेकिन इस कमरे में ठंडक नहीं लग रही थी। संभव है कि पत्थर, और चूने जैसे पारम्परिक पदार्थों से बना होने के कारण यहाँ ठंडक कम लग रही हो।
 
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‘क्या सोच रही होगी ये? क्या इसके भी मन में आज कि रात को लेकर सेक्सुअल भावनाएं जाग रही होंगी?’

मैं यही सब सोचते हुए बोला - “संध्या ..?”

“जी”

“आई लव यू.....”

जवाब में संध्या सिर्फ मुस्कुरा दी।

“मैं आपका घूंघट हटा सकता हूँ?” संध्या ने धीरे से हाँ में सर हिलाया।

मैंने धड़कते दिल से संध्या का घूंघट उठा दिया - बेचारी शर्म से अपनी आँखें बंद किये बैठी रही। अपने साधारण मेकअप और गहनों (माथे के ऊपरी हिस्से से होती हुई बेंदी, मस्तक पर बिंदी, नाक में एक बड़ा सा नथ, कानो में झुमके) और केसरिया सिन्दूर लगाई हुई होने पर भी संध्या बहुत सुन्दर लग रही थी - वस्तुतः वह आज पहले से अधिक सुन्दर लग रही थी। उसके दोनों हाथों में कोहनी तक मेहंदी की विभिन्न प्रकार की डिज़ाइन बनी हुई थी, और कलाई के बाद से लगभग आधा हाथ लाल और स्वर्ण रंग की चूड़ियों से सुशोभित था। उसके गले में तीन तरह के हार थे, जिनमे से एक मंगलसूत्र था।

“प्लीज अपनी आँखें खोलो...” मैंने कम से कम तीन-चार बार उससे बोला तब कहीं उसने अपनी आँखें खोली। आँखें खुलते ही उसको मेरा चेहरा दिखाई दिया।

‘क्या सोच रही होगी ये? और क्या सोचेगी? शायद यही कि यह आदमी इसका कौमार्य भंग करने वाला है।’

यह सोचकर मेरे होंठों पर एक वक्र मुस्कान आ गई। ऐसा नहीं है कि संध्या को पाकर मैं उसके साथ सिर्फ सेक्स करना चाहता था – लेकिन सुहागरात के समय पुरुष मन की दशा न जाने कैसी हो जाती है, कि सिर्फ सम्भोग का ही ख़याल रहता है। संध्या ने दो पल मेरी आँखों में देखा। संभवतः उसको मेरे पौरुष, और मेरी आँखों में कामुक विश्वास और संकल्प का आभास हो गया होगा, इसलिए उसकी आँखें फिर से नीचे हो गईं।

“मे आई किस यू?” मैंने पूछा।

उसने कुछ नहीं बोला।

“ओके। देन यू किस मी।” मैंने आदेश देने वाली आवाज़ में कहा।

संध्या एक दो सेकंड के लिए हिचकिचाई, फिर आगे की तरफ थोडा झुक कर मेरे होंठो पर जल्दी से एक चुम्बन दिया, और उतनी ही जल्दी से पीछे हट गई। उसका चेहरा अब और भी नीचे हो गया।

‘भला यह भी क्या किस हुआ!’ मैंने सोचा और उसके चेहरे को ठुड्डी से पकड़ कर ऊपर उठाया।

कुछ पल उसके भोले सौंदर्य को देखता रहा और फिर आगे की तरफ़ झुक कर उसके होंठो को चूमना शुरू कर दिया। यह कोई गर्म या कामुक चुम्बन नहीं था - बल्कि यह एक स्नेहमय चुम्बन था - एक बहुत ही लम्बा, स्नेहमय चुम्बन। मुझे समय का कोई ध्यान नहीं कि यह चुम्बन कब तक चला। लेकिन अंततः हमारा यह पहला चुम्बन टूटा।

लेकिन, बेचारी संध्या का हाल इतने में ही बहुत बुरा हो चला था - वह बुरी तरह शर्मा कर काँप रही थी, उसके गाल इस समय सुर्ख लाल हो चले थे और साँसे भारी हो गई थी। संभवतः यह उसके जीवन का पहला चुम्बन रहा होगा। उसकी नाक का नथ हमारे चुम्बन में परेशानी डाल रहा था, इसलिए मैंने आगे बढ़कर उसको उतार कर अलग कर दिया। ऐसा करने हुए मुझे सहसा यह एहसास हुआ कि थोड़ी ही देर में इसी प्रकार संध्या के शरीर से धीरे-धीरे करके सारे वस्त्र उतर जायेंगे। मेरे मन में कामुकता की एक लहर दौड़ गई।

“संध्या?”

“जी?”

“आपको इंग्लिश आती है?”

“थोड़ी-थोड़ी ... आपने क्यों पूछा?”

“बिकॉज़, आई वांट टू सी यू नेकेड” मैंने उसके कान के बहुत पास आकर फुसफुसाती आवाज़ में कहा।

“जी?” उसकी बहुत ही भयभीत आवाज़ आई।

“मैं आपको बिना कपड़ो के देखना चाहता हूँ.... पूरी नंगी” मैंने वही बात हिन्दी में दोहरा दी, और उसको आँखें गड़ा कर देखता रहा। वह बेचारी घबराहट और शर्म के मारे कुछ भी नहीं बोल पा रही थी। मैंने कहना जारी रखा, “मैं आपके सारे कपड़े उतार कर, आपके निपल्स चूमूंगा, आपके बम और ब्रेस्ट्स को दबाऊंगा और फिर आपके साथ ज़ोरदार सेक्स करूंगा...”

मेरी खुद की आवाज़ यह बोलते बोलते कर्कश हो गई, और मेरे शिश्न में उत्थान आना शुरू हो गया।
 
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“ज्ज्ज्जीईई .. म्म्ममुझे बहुत डर लग रहा है” बड़े जतन से वह सिर्फ इतना ही बोल पाई।

“आई कैन अंडरस्टैंड दैट डिअर। मैं आपको किसी भी ऐसी चीज़ को करने को नहीं कहूँगा, जिसके लिए आप रेडी नहीं हैं।”

संध्या ने समझते हुए बहुत धीरे से सर हिलाया। कुछ कहा नहीं।

मैंने उसकी लाल गोटेदार साड़ी का पल्लू उसकी छाती से हटा दिया। लाल रंग के ही ब्लाउज में कैद उसके युवा स्तन, उसकी तेज़ी से चलती साँसों के साथ ही ऊपर नीचे हो रहे थे। मेरा बहुत मन हुआ कि उसके कपड़े उसके शरीर से चीर कर अलग कर दूँ, लेकिन मेरे अन्दर उसके लिए प्यार और जिम्मेदारी के एहसास ने मुझे ऐसा करने से रोक लिया। लिहाज़ा, मेरी गति बहुत ही मंद थी। वैसे मेरे खुद के हाथ कांप रहे थे, लेकिन मैंने यह निश्चय किया था कि इस परम सुंदरी परी को आज तो मैं प्यार कर के रहूँगा।

मैंने उसकी साड़ी को उसकी कमर में बंधे पेटीकोट से जैसे तैसे अलग कर दिया और उसके शरीर से उतार कर नीचे फेंक दिया। इस समय वह सिर्फ ब्लाउज और पेटीकोट में बैठी हुई थी। मेरी अगली स्वाभाविक पसंद (उतारने के लिए) उसका ब्लाउज थी। कितनी ही बार मैंने कल्पना कर कर के सोचा था कि मेरी जान के स्तन कैसे होंगे, और इस समय मुझे बहुत मन हो रहा था कि उसके स्तनों के दर्शन हो ही जाएँ। मैं कांपते हुए हाथ से उसके ब्लाउज के बटन धीरे-धीरे खोलने लगा। करीब तीन बटन खोलने के बाद मुझे एहसास हुआ कि उसने अन्दर ब्रा नहीं पहनी है।

“आप ब्रा नहीं पहनती?” मैंने बेशर्मी से पूछ ही लिया।

संध्या घबराहट और शर्म के मारे कुछ भी नहीं बोल पा रही थी। उसका चेहरा नीचे की तरफ झुका हुआ था, मानो वह उसके ब्लाउज के बटन खोलते मेरे हाथों को देख रही हो। उसकी तेज़ी से चलती साँसे और भी तेज़ होती जा रही थी। उसने उत्तर में सिर्फ न में सर हिलाया - और वह भी बहुत ही हलके से। खैर, यह तो मेरे लिए अच्छा था - मुझे एक कपड़ा कम उतारना पड़ता। मैंने उसकी ब्लाउज के बचे हुए दोनों बटन भी खोल दिए। उसकी त्वचा शर्म या उत्तेजना के कारण लाल होती जा रही थी। मैंने अंततः उसके ब्लाउज के दोनों पट अलग कर दिए, और मुझे उसके स्तनों के दर्शन हो गए।

संध्या के स्तन अभी भी छोटे थे - मध्यम आकार के सेब जैसे, और ठोस। उसकी त्वचा एकदम दोषरहित थी। उन पर गहरे भूरे रंग के अत्यंत आकर्षक स्तनाग्र (निप्पल्स) थे, जिनका आकार अभी छोटा लग रहा था। महिलाओं के स्तन बढ़ती उम्र, मोटापे, अक्षमता और गुरुत्व के मिले जुले कारणों से बड़े हो जाते हैं, और कई बार दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से नीचे लटक से जाते हैं। लेकिन संध्या इन सब प्रभावों से दूर, अभी अभी यौवन की दहलीज़ पर आई थी। लिहाज़ा, उसके स्तनों पर गुरुत्व का कोई प्रभाव नहीं था, और उसके स्तनाग्र भूमि के समानांतर ही सामने की ओर निकले हुए थे। संध्या के स्तन उसकी तेज़ी से चलती साँसों के साथ ही ऊपर नीचे हो रहे थे। यह सारा नज़ारा देख कर मुझे नशा सा आ गया - वाकई इन स्तनों को किसी भी ब्रा की आवश्यकता नहीं थी।

“संध्या ... यू आर सो प्रीटी! आप मेरे लिए दुनिया कि सबसे सुन्दर लड़की हैं!” यह सब कहना स्वयं में ही कितना उत्तेजनापूर्ण था - खास तौर पर तब, जब यह सारी बातें सच थी।

मुझसे अब और रहा नहीं जा रहा था। उसके जवान, ठोस स्तनों पर मैंने अपने मुंह से हमला कर दिया। मेरा सबसे पहला एहसास उसके स्तनों की महक का था - आड़ू जैसी महक! उसके चिकने चूचक पहले मुलायम थे, लेकिन मेरे चूसे और चुभलाए जाने से कड़े होते जा रहे थे। मेरे इस क्रियाकलाप का सकारात्मक असर संध्या पर भी पड़ रहा था, क्योंकि उसने उन्मादित हो कर अपने दोनों हाथों से मेरे सर को पकड़ लिया था। मैंने कुछ देर तक उसके स्तनों को ऐसे ही दुलार किया - लेकिन इतना होते होते संध्या और मेरा, दोनों का ही, गला एकदम शुष्क हो गया। मैंने रुक कर पास ही रखे गिलास से पानी पिया और संध्या को भी पिलाया। उसके बाद मैंने उसके ब्लाउज को उसके शरीर से अलग कर के ज़मीन पर फेंक दिया। ऐसा होते ही मेरी जान अपने में ही सिमट गई और अपने हाथो से अपनी नग्न अवस्था को छुपाने की कोशिश करने लगी। चूड़ियों और मेहंदी से भरे हाथों से ऐसा करते हुए वह और भी प्यारी लग रही थी। मैंने उसके हाथ हटाने की कोशिश नहीं की, लेकिन उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों में लेकर उसके होंठों पर एक गहरा चुम्बन किया, और फिर सिलसिलेवार तरीके से चुम्बनों की बौछार कर दी।

शुरू में उसका शरीर, होंठ, चेहरा - सब कुछ - एकदम से कड़ा हो गया, शायद नर्वस होने से ... लेकिन चुम्बनों की संख्या बढ़ते रहने से वह भी धीरे-धीरे शांत होने लगी। उसने मेरी आँखों में देखा, और फिर आँखें बंद कर के चुम्बन में यथासंभव सहयोग देने लगी। उसके होंठ गर्म और मुलायम थे - एकदम शानदार! उसके मुख से मीठी सी महक आ रही थी। चुम्बन करते हुए मैं अपनी जीभ को उसके मुंह में डालने का प्रयास करने लगा। संभवतः उसको यह बात समझ में आ गई - उसने अपने होंठ ज़रा से खोल दिए। मैंने बहुत सावधानीपूर्वक अपनी जीभ उसके मुंह में प्रविष्ट कर दी। एक बात और हुई, उसने अपने हाथ अपने सीने से हटा कर, मुझे अपनी बाहों में भर लिया। संध्या के मुंह का स्वाद बहुत अच्छा था - हल्की सी मिठास लिए हुए। मैं बयान नहीं कर सकता कि यह अनुभव कितना बढ़िया था। यह एक कामुक चुम्बन था, जिसके उन्माद में अब हम दोनों ही बहे जा रहे थे। मेरे हाथ उसके चेहरे से हट कर उसकी कमर पर चले गए और वहां से धीरे धीरे उसके नितम्बों पर। मेरी उत्तेजना मुझे संध्या को अपनी तरफ भींचने को मजबूर कर रही थी। मैंने उसको अपनी तरफ खीच लिया - मुझे अपने सीने पर संध्या के स्तनों का एहसास होने लगा। इस तरह से संध्या को चूमना और भी सुखद लग रहा था।

खैर, ऐसे ही कुछ देर चूमने के बाद हम दोनों के मुंह अलग हुए। मैंने संध्या की कमर पर नज़र डाली - उसके पेटीकोट का नाड़ा ढूँढने के लिए। नाड़ा उसकी कमर से बाएं तरफ था, जिसको मैंने तुरंत ही खीच कर ढीला कर दिया। अब पेटीकोट उसके शरीर पर बस नाम-मात्र के लिए ही रह गया। उसकी स्थिति अब गया कि तब गया वाली हो गई थी। इसलिए मैंने उसको उतारने में ज़रा भी देर नहीं की। लेकिन मेरी इस जल्दबाजी में संध्या बिस्तर पर चित होकर गिर गई। पेटीकोट के उतरते ही उसने अपना चेहरा अपने हाथों से ढक लिया - शायद अब उसको अपने स्तनों के प्रदर्शन पर उतना एतराज नहीं था, लेकिन ऐसी नग्न अवस्था में वह मुझे अपना चेहरा नहीं दिखाना चाहती थी। मेरी आशा के विपरीत, संध्या ने चड्ढी पहनी हुई थी। चड्ढी का रंग काला था। उसमें कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था - बस रोज़मर्रा पहनी जाने वाली सामान्य सी चड्ढी थी। हाँ लेकिन एक बात है - वह चड्ढी नयी थी। सामने से देखने पर उसकी चड्ढी अंग्रेजी के "V" जैसी, कमर कि तरफ फैलाव लिए और वहां, जहाँ पर उसकी योनि थी, एक सौम्य उभार लिए हुए थी। संध्या के नितम्ब स्त्रियोचित फैलाव लिए हुए प्रतीत होते थे, लेकिन उसका कारण यह था कि उसकी कमर पतली थी। उसके शरीर का आकर वस्तुतः एक कमसिन, छरहरी और तरुण लड़की जैसा था।

मैंने और नीचे नज़र डाली। संध्या के दोनों पाँव भी मेहंदी से अलंकृत थे। दोनों ही टखनों में चांदी की पायलें थीं। उसके पैरों में मैंने ही बिछिया पहनाई थी। उसके दोनों पाँव के निचली परिधि लाल रंग (महावर) से रंगे हुए थे। मेरी दृष्टि वापस उसके योनि क्षेत्र पर चली गई। मेरा मन हुआ कि उसकी चड्ढी भी उतार दी जाए - मेरे लिंग का स्तम्भन और कसाव बढ़ता ही जा रहा था, और मैं अब संध्या के अंदर समाहित होने के लिए व्याकुल हुआ जा रहा था। लेकिन मुझे अभी कुछ और देर उसके साथ खेलने का मन हो रहा था। मैंने पलंग पर संध्या के काफी पास अपने घुटने पर बैठ कर, अपना कुर्ता उतार दिया। अब मैंने सिर्फ चूड़ीदार पजामा और उसके अन्दर स्लिम फिट चड्ढी पहनी हुई थी।

“संध्या ..?” मैंने उसको आवाज़ लगाई।

“जी?” बहुत देर बाद उसने अपना चेहरा ढके हुए ही बोला।

“आपको मेरा एक काम करना होगा ....” मेरे आगे कुछ न बोलने पर उसने अपने चेहरे से हाथ हटा कर मेरी तरफ देखा।

“जी ... बोलिए?” मेरे कसरती शरीर को देख कर उसको और भी लज्जा आ गई, लेकिन इस बार उसने छुपने का प्रयास नहीं किया।

“अपने हाथ मुझे दीजिए”

उसने थोड़ा सा हिचकिचाते हुए अपने हाथ आगे बढ़ाए, जिनको मैंने अपने हाथों में थाम लिया, और फिर अपने पजामे के कमर के सामने वाले हिस्से पर रख दिया।

“यह पजामा आपको उतारना पड़ेगा। आपके कपड़े उतार-उतार कर मैं तो थक गया।” मैंने मुस्कुराते हुए उससे कहा।

उसने पहले तो थोड़ा सा संकोच दिखाया, लेकिन फिर मेरी बात मान कर इस काम में लग गई। उसने बहुत सकुचाते हुए मेरे पजामे का नाड़ा ढीला कर दिया और मेरे पजामे को धीरे से सरका दिया। मेरी चड्ढी के अन्दर मेरा लिंग बुरी तरह कस जा रहा था, और अब मेरा मन था कि लिंग को मेरी चड्ढी के बंधन से अब मुक्त कर संध्या के नरम, गरम और आरामदायक गहराई में समाहित कर दिया जाए। मेरी चड्ढी के वस्त्र को बुरी तरह से धकेलते हुए मेरे लिंग को संध्या भी बड़े कौतूहल से देख रही थी।

“इसे भी..” मैंने उसको उकसाया। मेरा इशारा मेरी चड्ढी की तरफ था।

संध्या को फिर से घबराहट होने लग गई.. उसने न में सर हिलाया। यह देख कर मैंने उसके हाथ पकड़ कर जबरदस्ती अपनी चड्ढी कि इलास्टिक पर रख दिया और उसको नीचे कि तरफ खीच दिया। और इसके साथ ही मेरा अति-उत्तेजित लिंग मुक्त हो गया।

“बाप रे!” संध्या के मुंह से निकल ही गया, “इतना बड़ा!”

संध्या की दृष्टि मेरे कस के तने हुए लिंग पर जमी हुई थी।

जैसा कि मैंने पहले भी उल्लेख किया है, मेरा शरीर शरीर इकहरा और कसरती है। और उसमें से इतने गर्व से बाहर निकले हुए मेरा लिंग (गाढ़े भूरे रंग का एक मोटा स्तंभ, जिसकी लम्बाई सात इंच और मोटाई संध्या की कलाई से भी ज्यादा है) देखकर वह निश्चित रूप से घबरा गई थी। चड्ढी नीचे सरकाने कि क्रिया में मेरे लिंग का शिश्नग्रछ्छद स्वयं ही थोड़ा पीछे सरक गया और लिंग के आगे का गुलाबी चमकदार हिस्सा कुछ-कुछ दिखाई देने लगा। संध्या को मेरे लिंग को इस प्रकार देखते हुए देख कर मेरा शरीर कामाग्नि से तपने लग गया - संभवतः संध्या भी इसी तरह कि तपन खुद भी महसूस कर रही थी।

उसको अचानक ही अपनी कही हुई बात, अपनी स्थिति, और अपने साथ होने वाले क्रियाकलाप का ध्यान हो आया। उसने लज्जा से अपना मुंह तकिये में छुपा लिया। लेकिन उसका हाथ मुक्त था - मैंने उसको पकड़ कर अपने लिंग पर रख दिया। उसकी हथेली मेरे लिंग के गिर्द लिपट गई। घेरा पूरा बंद नहीं हुआ। मेरा संदेह सही था - संध्या का हाथ तप रहा था। उसके हाथ को पकडे-पकडे ही मैंने अपने लिंग को घेरे में ले लिया और ऐसे ही घेरे हुए अपने हाथ को तीन चार बार आगे पीछे किया, और अपना हाथ हटा लिया। संध्या अभी भी मेरे लिंग को पकड़े हुए थी, हाँलाकि वह आगे पीछे वाली क्रिया नहीं कर रही थी। मेरे लिंग की लम्बाई का कम से कम आधा हिस्सा उसके हाथ की पकड़ से बाहर निकला हुआ था। लेकिन इस तरह से सजे हुए कोमल हाथ से घिरा हुआ मेरा लिंग मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।

“जी.... हमें शरम आती है” उसने अंततः तकिये से अपना चेहरा अलग करके कहा। उसकी आवाज़ पहले जैसी मीठी नहीं लगी - उसमे अब एक अलग ही तरह की कर्कशता थी - मैंने सोचा कि शायद वह खुद भी उत्तेजित हो रही है। लिहाजा मैंने इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर दिया।

“अपने पति से शर्म? ह्म्म्म ... चलिए, आपकी शर्म दूर कर देते हैं।” कहते हुए मैंने उसकी चड्ढी को नीचे सरका दी।

मेरी इस हरकत से संध्या शर्म से दोहरी होकर अपने में ही सिमट गई। कहाँ मैंने उसकी शरम मिटानी चाही थी, और कहाँ यह तो और भी अधिक शरमा गई। कोई दो पल बाद ही मुझे उसका शरीर थिरकता हुआ लगा - ठीक वैसे ही जैसे सुबकने या सिसकियाँ लेते समय होता है। मारे गए..... संभवतः मेरी हरकतों ने उसकी भावनाओं को किसी तरह से ठेस पहुंचा दी थी।
 
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“संध्या ...”

कोई उत्तर नहीं! मेरे मन में अब उधेड़बुन होने लगी।

‘क्या यार! सब कचरा हो गया। एक तो यह एक छोटी सी लड़की है, और ऊपर से इतने धर्म-कर्म मानने वाले परिवार से। इसको आज तक शायद ही किसी लड़के ने छुआ हो। मेरी जल्दबाजी और जबरदस्ती ने सारा मज़ा खराब कर दिया।’

सारा मज़ा सचमुच ख़राब हो चला था - मेरा लिंगोत्थान तेज़ी से घटने लग गया। खैर अभी इस बात की चिंता नहीं थी। चिंता तो इस बात की थी, कि जिस लड़की को मैं प्रेम करता हूँ, वह मेरे ही कारण दुःखी हो गई थी। अब यह मेरा दायित्व था कि मैं उसको मनाऊँ, और अगर किस्मत ने साथ दिया तो संभवतः सेक्स भी किया जा सके। मैं संध्या के बगल ही लेट गया, और प्यार से उसको अपनी बाहों में भर लिया। थोड़ी देर पहले उसका तपता शरीर अपेक्षाकृत ठंडा लग रहा था। अच्छा, एक बात बताना तो भूल ही गया - मैं पलंग पर अपने बाएं करवट पर लेटा हुआ था, और संध्या मेरे ही तरफ मुंह छुपाए लेटी हुई थी।

“संध्या ... मेरी बात सुनिए, प्लीज!”

उसने मेरी तरफ देखा - मेरा शक सही था, उसकी आँखों में आँसू उमड़ आये थे, और उसके काजल को अपने साथ ही बहाए ले जा रहे थे।

“श्ह्ह्ह्ह .... प्लीज मत रोइये। मेरा आपको ठेस पहुंचाने का कोई इरादा नहीं था। आई ऍम सो सॉरी! ऑनेस्ट! मैंने आपको प्रॉमिस किया था कि मैं आपको किसी भी ऐसी चीज़ को करने को नहीं कहूँगा, जिसके लिए आप रेडी नहीं हैं। शायद इसके लिए आप रेडी नहीं हैं। मैं आपको बहुत प्यार करता हूँ, और आपको कभी दुःखी नहीं देख सकता।”

ऐसी बातें करते हुए मैं संध्या को चूमते, सहलाते और दुलारते जा रहा था, जिससे उसका मन बहल जाए और वह अपने आपको सुरक्षित महसूस कर सके।

मेरा मनाना न जाने कितनी देर तक चला, खैर, उसका कुछ अनुकूल प्रभाव दिखने लगा, क्योंकि संध्या ने अपने में सिमटना छोड़ कर अपने बाएँ हाथ को मेरे ऊपर से ले जाकर मुझे पकड़ लिया - अर्ध-आलिंगन जैसा। उसके ऐसा करने से उसका बायाँ स्तन मेरी ही तरफ उठ गया। मेरा मन तो बहुत हुआ कि पुनः अपने कामदेव वाले बाण छोड़ना शुरू कर दूं, लेकिन कुछ सोच कर ठहर गया।

“अगर आप चाहें, तो हम लोग आज कि रात ऐसे ही लेटे रह कर बात कर सकते हैं।”

उसने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।

“ऐसा नहीं है कि मैं आपके साथ सेक्स नहीं करना चाहता - अरे मैं तो बहुत चाहता हूँ। लेकिन आपको दुःख देने के एवज़ में नहीं। जब तक आप खुद कम्फ़र्टेबल न हो जाएँ, तब तक मुझे नहीं करना है यह सब ...”

मेरी बातों में सच्चाई भी थी। शायद उसने उस सच्चाई को देख लिया और पढ़ भी लिया।

“नहीं ... आप मेरे पति हैं, और आपका अधिकार है मुझ पर। और हम भी आपको बहुत प्यार करते हैं और आपका दिल नहीं दुखाना चाहते। मैं डर गई थी और बहुत नर्वस हो गई थी।” उसकी आँखों से अब कोई आंसू नहीं आ रहे थे।

‘सचमुच कितनी ज्यादा प्यारी है यह लड़की!’ मैंने प्रेम के आवेश में आकर उसकी आँखें कई बार चूम ली।

“आई लव यू सो मच! और इसमें अधिकार वाली कोई बात नहीं है। हम दोनों अब लाइफ पार्टनर हैं – बराबर के। मैं आपके साथ कोई जबरदस्ती नहीं कर सकता हूँ।”

“नहीं..........” वह थोड़ा रुकते हुए बोली, “आपको मालूम है कि मैंने कभी शादी के बारे में सोचा ही नहीं था। सोचती थी, कि खूब पढ़ लिख कर माँ, पापा और नीलम को सहारा दूँगी। माँ और पापा बहुत मेहनत करते हैं, लेकिन यहाँ पहाड़ो में उनको उस मेहनत का फल नहीं मिलता। ...... लेकिन, फिर आप आए, और मेरी तो सुध बुध ही खो गई। सब कुछ इतना जल्दी जल्दी हुआ है कि मैं खुद को तैयार ही नहीं कर सकी ...”

मैंने समझाते हुए कहा, “संध्या, मैंने आपसे पहले भी कहा है कि मैं आपको पढ़ने लिखने से कभी नहीं रोकूंगा। बल्कि मैं तो चाहता हूँ कि आप अपने सारे सपने पूरे कर सकें। मैं तो बस उन सारे सपनो का हिस्सा बनना चाहता हूँ।”

संध्या ने अपनी झील जैसी गहरी आँखों से मुझे देखा - बिना कुछ बोले। उसने अपनी उंगली से मेरे गाल को हलके से छुआ - जैसे छोटे बच्चे जब किसी नयी चीज़ को देखते हैं, तो उत्सुकतावश उसको छूते हैं।

“आपसे एक बात पूछूँ?” आखिरकार उसने कहा।

“हाँ .. पूछिए न?”

“आपके जीवन में बहुत सी लड़कियां आई होंगी? ... देखिए सच बताइएगा!”

“हाँ ... आई तो थीं। लेकिन मैंने उनके अन्दर जिस तरह की बेईमानी और मानव हीनता देखी है, उससे मेरा स्त्री जाति से मानो विश्वास ही उठ गया था। शुरू शुरू में मीठी मीठी बातें करने वाली लड़कियों की हकीकत पर से जब पर्दा हटता है, तो दिल टूट जाता है। लेकिन ... फिर मैंने आपको देखा ... आपको देखते ही मेरे दिल को ठीक वैसे ही ठंडक पहुंची, जैसे धूप से बुरी तरह तपती हुई ज़मीन को बरसात कि पहली बूंदो के छूने से पहुंचती होगी। आपको देख कर मुझे यकीन हो गया कि आप ही मेरे लिए बनी हैं - और आपका साथ पाने के लिए मैं अपनी पूरी उम्र इंतज़ार कर सकता था।”

मेरे बोलने का तरीका और आवाज़ बहुत ही भावनात्मक हो चले थे। यह सब सुन कर संध्या ने मेरे चेहरे को अपने हाथों में ले लिया और मेरे होंठो पर एक छोटा सा मीठा सा चुम्बन दे दिया।

“आई लव यू ....” उसने बहुत धीरे से कहा, “.... मैं आपसे एक और बात पूछूं? .... आपने ... आपने कभी.... पहले भी .... आपने कभी सेक्स किया है?” संध्या ने बहुत हिचकिचाते हुए पूछा।

“नहीं ... मैंने कभी किसी के साथ सेक्स नहीं किया।”

यह बात आंशिक रूप से सच थी - ऐसा नहीं है कि मैंने मेरी भूतपूर्व महिला मित्रों के साथ किसी भी तरह का कामुक सम्बन्ध नहीं बनाया था। मेरा यह मानना था कि यदि किसी चीज़ में समय और धन का निवेश करो, तो कम से कम कुछ ब्याज़ तो मिलना ही चाहिए। इसलिए, मैंने कम से कम उन सभी के स्तनों का मर्दन और चूषण तो किया ही था। एक के साथ बात काफी आगे बढ़ गई थी, तो उसके दोनों स्तनों के बीच में अपने लिंग को फंसा कर मैथुन का आनंद भी उठाया था, और एक अन्य ने मेरे लिंग को अपने मुंह में लेकर मुझे परम सुख दिया था। लेकिन कभी भी किसी भी लड़की के साथ योनि मैथुन नहीं किया।

मैंने कहना जारी रखा, “...... कुछ एक के साथ मैं थोड़ा क्लोज़ तो था, लेकिन उनके साथ भी ऐसा कुछ नहीं किया है। मेरा यह मानना है कि फर्स्ट-टाइम सेक्स को एक स्पेशल दिन और एक स्पेशल लड़की के लिए बचा कर रखना चाहिए।”

संध्या चुप रही ... लेकिन उसके चेहरे पर एक गर्व का भाव मुझे दिखा।

“और मैं सोच रहा था कि वह स्पेशल दिन आज है .... क्या मैं सही सोच रहा हूँ?” मैंने अपनी बात जारी रखी।

संध्या ने कुछ देर सोचा और फिर धीरे से कहा, “जी .....? जी हाँ ... लेकिन .. लेकिन मुझे लगता नहीं कि ‘ये’ मेरे अन्दर आ भी पाएगा।”

“वह मुझ पर छोड़ दो ... बस यह बताइए कि क्या हम आगे शुरू करें ..?” मैंने पूछा, तो उसने सर हिला कर हामी भरी।
 
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मेरा मन ख़ुशी के मारे नाच उठा। बीवी तो तैयार है, लेकिन मुझे सावधानी से आगे बढ़ना पड़ेगा। इसके लिए मुझे इसके सबसे संवेदनशील अंग को छेड़ना पड़ेगा, जिससे यह खुद भी उतनी कामुक हो जाए कि मना न कर सके। इसके लिए मैंने संध्या के स्तनों पर अपना दाँव फिर से लगाया। जैसा कि मैंने पहले भी बताया है कि संध्या के स्तन अभी भी छोटे थे - मध्यम आकार के सेब जैसे और उन पर गहरे भूरे रंग के अत्यंत आकर्षक स्तनाग्र थे। वाकई उसके स्तन बहुत प्यारे थे .... खास तौर पर उसके निप्पल्स। इतने प्यारे और स्वादिष्ट, जैसे कस्टर्ड भरी कटोरी पर चेरी सजा दी गई हो। उसके स्तनों को अगर पूरी उम्र भर चूसा और चूमा जाए, तो भी कम है।

अतः मैंने यही कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया। मैंने पहले संध्या के बाएं निप्पल को अपनी जीभ से कुछ देर चाटा, और फिर उसको मुंह में भर लिया। संध्या के मुह से हलकी सिसकारी निकल पड़ी। मैं बारी बारी से उसके दोनों स्तनों को चूसता जा रहा था। जब मैं एक स्तन को अपने होंठो और जीभ से दुलारता, तो दूसरे को अपनी उँगलियों से। साथ ही साथ मैंने अपने खाली हाथ को संध्या की योनि को टटोलने भेज दिया। संध्या के समतल पेट से होते ही मेरा हाथ उसकी योनि स्थल पर जा पहुंचा। उसकी योनि पर बाल तो थे, लेकिन वह अभी घने बिलकुल भी नहीं थे। योनि पर हाथ जाते ही कुछ गीलेपन का एहसास हुआ। कुछ देर तक मैंने उसकी योनि के दोनों होंठों, और उसके भगनासे को सहलाया, और फिर अपनी उंगली संध्या की योनि में धीरे से डाल दी। मेरे ऐसा करते ही संध्या हांफ गई। उंगली मुश्किल से बस एक इंच जितनी ही अन्दर गई होगी, लेकिन उसके यौवन का कसाव इतना अधिक था, कि संध्या को हल्का सा दर्द महसूस हुआ। उसके गले से आह निकल गई।

मैंने अपनी उंगली रोक ली, लेकिन उसको योनि से बाहर नहीं निकलने दिया। साथ ही साथ उसके स्तनों का आनंद उठाता रहा। कोई एक दो मिनट में मैंने महसूस किया कि संध्या अब तनाव-मुक्त हो गई है। मैंने धीरे धीरे अपनी उंगली को उसकी योनि के अन्दर बाहर करना शुरू कर दिया। इन सभी क्रियाओं का सम्मिलित असर यह हुआ कि संध्या अब काफी निश्चिन्त हो गई थी और उसकी योनि कामरस कि बरसात करने लगी। मेरी उंगली पूरी तरह से भीग चुकी थी और आसानी से अन्दर बाहर हो पा रही थी।

उंगली अन्दर बाहर होते हुए मुश्किल से दो मिनट हुए होंगे कि इतने में ही संध्या ने पहली बार चरमसुख प्राप्त कर लिया। उसकी सांस एक पल को थम गई, और जब आई तो उसके गले से एक भारी और प्रबल आह निकली। मुझे पक्का यकीन है कि बाहर अगर कोई बैठा हो या जाग रहा हो, तो उसने यह आह ज़रूर सुनी होगी। फिर वह निढाल होकर बिस्तर पर गिर गई और गहरी गहरी साँसे भरने लगी। मैंने उंगली की गति धीमी कर दी, जिससे उसकी योनि की उत्तेजना ख़तम न हो।

“जस्ट रिलैक्स! अभी ख़तम नहीं हुआ है। असली काम तो बाकी है।” मैंने प्यार से बोला।

लगता है अभी अभी मिले आनंद से वह प्रोत्साहित हो गई थी, लिहाजा उसने हाँ में सर हिलाया।

मैं उठ कर बैठ गया, और थोड़ा सुस्ताने लगा। थोड़ी देर के आराम के बाद मैंने उसकी दोनों जांघो को फैला दिया, जिससे उसकी योनि के होंठ खुल गए थे। उसकी योनि के बाहर का रंग उसके निप्पल के जैसा ही था, लेकिन योनि के अन्दर का रंग ‘सामन’ मछली के रंग के जैसा था। मेरा मन हुआ कि कुछ देर यहीं पर मुखमैथुन किया जाए, लेकिन मेरी खुद की दशा ऐसी नहीं थी कि इतनी देर तक अपने आपको सम्हाल पाता। मुझे यह भी डर लग रहा था कि कहीं शीघ्रपतन जैसी समस्या न आ खड़ी हो जाए। मेरा लिंग अब वापस खड़ा हो चुका था, और अपने गंतव्य को जाने को व्याकुल हो रहा था। एक गड़बड़ थी - मेरा लिंग उसकी योनि के मुकाबले बहुत विशाल था, और अगर मैं जरा सी भी जबरदस्ती करता, या फिर अगर लिंग अन्दर डालने में कोई गड़बड़ी हो जाती तो यह लड़की पूरी उम्र भर मुझसे डरती रहती।

मेरे पास अपने लिंग को चिकना करने के लिए कुछ भी नहीं था ..... ‘एक सेकंड ... मैं अपने लिंग को ना सही, लेकिन उसकी योनि को तो अच्छे से चिकना कर सकता हूँ न!’ मेरे दिमाग में अचानक ही यह विचार कौंध गया।

मैंने उसकी योनि पर हाथ फिराया - संध्या की सिसकारी छूट पड़ी। उसके शरीर के सबसे गुप्त और महफूज़ स्थान में आज सेंध लगने जा रही थी। यहाँ छूना कितना आनंददायक था - कितना कोमल .. कितना नरम! मैं वासना में अँधा हुआ जा रहा था .. मैंने उसके भगोष्ठ के होंठों को अपनी उँगलियों से पुनः जांचना आरम्भ कर दिया। मैंने उसकी योनि से रस निकलता हुआ देखा, और समझ गया कि अब यह सही समय है।

मैंने बिस्तर पर लेटी संध्या के नग्न रूप का पुनः अवलोकन किया। उसकी आँखें बंद थी, लेकिन लिंग प्रवेश की स्थिति में होने वाली पीड़ा की घबराहट में उसके शरीर की विभिन्न मांसपेशियां कसी हुई थी। उसको पूरी तरह शांत और शिथिल करने के लिए मैंने उसके कान को चूमना आरम्भ किया। ऐसे करते करते, धीरे धीरे उसकी ठोढ़ी की तरफ बढ़ते हुए मैं उसके होंठो को चूम रहा था, और गले से होते हुए शरीर के ऊपरी भाग को चूमना और हलके हलके चाटना जारी रखा। कुछ देर ऐसे ही करते हुए, इस समय मैं संध्या के निप्पल्स को चूम और चूस रहा था। संध्या की आहें छूट पड़ीं और मेरे होंठो पर एक मुस्कान आ गई। चूसते चूसते मैंने उसके स्तन पर दांत से हल्का सा काट लिया और उसकी सिसकी निकल गई। संध्या अब मूड में आने लग गई थी - उसकी साँसे भारी हो गई थी, बढ़ते रक्त-संचालन के कारण उसके गोरे गोरे शरीर में लालिमा आ गई थी। लेकिन अभी मैं उसको छोड़ने के मूड में नहीं था, और लगातार उसके शरीर के साथ लगातार छेड़-छाड़ करता जा रहा था।

संध्या को चूमते, चाटते और छेड़ते हुए जब मैं उसके योनि क्षेत्र पर पहुंचा तो उसने योनि द्वार को दो तीन बार चाटा और फिर उसकी जांघों के अंदरूनी हिस्से को चूमने और चाटने लगा। संध्या वापस अपनी उत्तेजना के चरम बिंदु पर पहुच चुकी थी। मैं कभी उसकी जांघों, तो कभी उसकी योनि को चूमता-काटता जा रहा था। संध्या का शरीर अब थर थर कांप रहा था और साँसे भारी हो गई। लेकिन फिर भी मैं अगले दो तीन मिनट तक उसकी योनि के साथ खिलवाड़ करता रहा। उसकी आँखें अब बंद थी और शरीर बुरी तरह थरथरा रहा था। यह मेरे लिए संकेत था कि अब वाकई सही समय आ गया है। मैंने उसकी टांगों को फैला दिया। उसकी योनि का खुला हुआ मुख काम-रस से भीगने के कारण चमक रहा था।

“जस्ट ट्राई टू रिलैक्स! ओके?”

कह कर मैंने एक हाथ से उसकी योनि को थोड़ा और फैलाया और अपने लिंग को उसकी योनि मुख से सटा कर धीरे-धीरे आगे की तरफ जोर लगाया, जिससे मेरा लिंग अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। मेरे लिंग का सुपाड़ा, लिंग के बाकी हिस्सों से बड़ा है, अतः संध्या को सबसे अधिक पीड़ा शुरू के एक दो इंच से ही होनी चाहिए थी। लेकिन यह लड़की अभी भी छोटी थी, और उसके शरीर की बनावट परिपक्वता की तरफ भी अग्रसर थी। यह बात मुझसे छिपी हुई नहीं थी। लेकिन वासना के अंधे को रोकना बड़ा दुष्कर है। मैंने सुपाड़े का बस आधा हिस्सा ही अन्दर डाला और उसकी योनि से निकलते रस से उसको अच्छी तरह से भिगो लिया। सबसे खतरनाक बात यह थी कि मुझमें अब इतना धैर्य नहीं बचा हुआ था। मुझे लग रहा था कि अगर कुछ देर मैंने यह क्रिया जारी रखी तो इसी बिस्तर पर स्खलित हो जाऊँगा। न जाने क्यों, संध्या के अन्दर अपना वीर्य डालना मुझे इस समय दुनिया का सबसे ज़रूरी कार्य लग रहा था।
 
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मेरा लिंग तैयार था। मैंने एकदम से जोरदार धक्का लगाया और मेरा आधा लिंग संध्या की योनि में समा गया।

“आआह्ह्ह ...” संध्या की गहरी चीख निकल गई। मुझे तो मानो काटो तो खून नहीं! मैं एकदम से सकपका गया,

‘कहीं इसको चोट तो नहीं लग गई?’ मैंने एक दो पल ठहर कर संध्या की प्रतिक्रिया भांपी - लेकिन भगवान की दया से उसने आगे और कुछ नहीं कहा। बाहर लोगों ने सुना तो ज़रूर होगा ...

‘भाड़ में जाएँ सुनने वाले! लड़की के साथ यह तो होना ही है आज तो...’ मैंने रुकने का कोई उपक्रम नहीं किया। मैंने अपना लिंग संध्या की योनि से बाहर निकालना शुरू किया, लेकिन पूरा नहीं निकाला ... इसके बाद पुनः थोडा सा और अन्दर डाला और पुनः निकाल लिया।

ऐसे ही मैंने कम से कम पांच छः बार किया। संध्या अब चीख तो नहीं रही थी, लेकिन मेरी हर हरकत पर कराह ज़रूर रही थी। लेकिन इस समय मेरे पास इन सब के बारे में सोचने का धैर्य बिल्कुल भी नहीं था। मैंने अपना लिंग संध्या के अन्दर और भीतर तक घुसा दिया और सनातन काल से प्रतिष्ठित पद्धति से काम-क्रिया आरम्भ कर दी। संध्या का चेहरा देखने लायक था - उसकी आँखें बंद थीं, लेकिन मुँह पूरा खुला हुआ था। इस समय उसके लिए साँसे लेने, हिचकियाँ लेने और सिसकियाँ निकालने का यही एकमात्र साधन और द्वार था। मेरे हर धक्के से उसके छोटे स्तन हिल जाते। और नीचे का हिस्सा, जहाँ पेट और योनि मिलते हैं, मेरे पुष्ट मांसल लिंग के कुटाई से लाल होता जा रहा था।

मैंने संध्या को भोगने की गति तेज़ कर दी । संध्या अपनी उत्तेजना के चरम पर थी, लेकिन अभी उसको इसकी अभिव्यक्ति करनी नहीं आती थी - बस उसने मेरे कन्धों को जोर से जकड़ रखा था। संभवतः उसको अपनी कामाभिव्यक्ति करने में लज्जा आ रही हो। मुझको भी महसूस हुआ कि उसका खुद का चरम-आनंद भी पास में है। हमारे सम्भोग की गति और तेज़ हो गई - संध्या कि रस से भीगी योनि में मेरे लिंग के अन्दर बाहर जाने से ‘पच-पच’ की आवाज़ आने लग गई थी। पलंग के पाए ज़मीन पर थोड़ा थोड़ा घिसटने से किकियाने कि लयबद्ध आवाज़ निकाल रहे थे, उसी के साथ हमारी कामुकता भरी आहें भी निकल रही थीं। कमरे में एक कामुक माहौल बन चला था।

इस पूरे काम में इतना समय लग चुका था कि मेरा कुछ क्षणों से अधिक टिकना संभव नहीं था। और हुआ भी वही। मेरे लिंग से एक विस्फोटक स्खलन हुआ, और उसके बाद तीन चार और बार वीर्य निकला। हर स्खलन में मैंने अपना लिंग संध्या की योनि के और अन्दर ठेलने का प्रयत्न कर रहा था। मेरे चरमोत्कर्ष पाने के साथ ही संध्या पुनः चरम आनंद प्राप्त कर चुकी थी। इस उन्माद में उसकी पीठ एक चाप में मुड़ गई, जिससे उसके स्तन और ऊपर उठ गए। मैंने उसका एक स्तनाग्र सहर्ष अपने मुँह में ले लिया और उसके ऊपर ही निढाल होकर गिर गया।

मेरा संध्या की मखमली गहराई से निकलने का मन ही नहीं हो रहा था। इसलिए मैंने अपने लिंग को उसकी योनि के बाहर तब तक नहीं निकाला, जब तक मेरा पुरुषांग पूरी तरह से शिथिल नहीं पड़ गया। इस बीच मैंने संध्या को चूमना, दुलारना जारी रखा। अंततः हम दोनों एक दुसरे से अलग हुए। मैंने संध्या को मन भर के देखा; वह बेचारी शर्मा कर दोहरी हुई जा रही थी और मुझसे आँखे नहीं मिला पा रही थी। उसके चेहरे पर लज्जा की लालिमा फैली हुई थी।

मैंने पूछा, “संध्या! आप ठीक हैं?” उसने आँखें बंद किए हुए ही हाँ में सर हिलाया।

“मज़ा आया?” मैंने थोड़ा और कुरेदा - ऐसे ही सस्ते में कैसे जाने देता? संध्या का चेहरा मेरे इस प्रश्न पर और लाल पड़ गया - वह सिर्फ हलके से मुस्कुरा दी। मैंने उसको अपनी बांहों में कस के भर कर उसके माथे को चूम लिया, और अपने से लिपटा कर बिस्तर पर लिटा लिया।

हम लोग कुछ समय तक बिस्तर पर ऐसे ही पड़े पड़े अपनी सांसे संयत करते रहे। लेकिन कुछ ही देर में वह बिस्तर पर से उठ बैठी। वह इस समय आराम में बिलकुल भी नहीं लग रही थी। मुझे लगा कि कहीं सेक्स की ग्लानि के कारण तो वह ऐसे नहीं कर रही है? मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि उसकी ओर डाली।

“क्या हुआ आपको?”

“जी ... मुझे टॉयलेट जाना है ....” उसने कसमसाते हुए बोला।

दरअसल, संध्या को सेक्स करने के बाद मूत्र विसर्जन का अत्यधिक तीव्र एहसास होता है। निःसंदेह उसको और मुझको यह बात अभी तक नहीं मालूम थी। हम लोग अभी तो एक दूसरे को जानने की पहली दहलीज पर पाँव रख रहे थे। उसकी इस आदत का उपयोग हम लोगों ने अपने बाद के सेक्स जीवन में खूब किया है। खैर, उसको टॉयलेट जाना था और तो और, मुझे भी जाना था। मैंने देखा कि कमरे से लगा हुआ कोई टॉयलेट नहीं था।

“इस कमरे से लगा हुआ कोई टॉयलेट नहीं है क्या?”

संध्या ने न में सर हिलाया ...

“तो फिर कहाँ जायेंगे ..?”

“घर में है ...”

“लेकिन ... मुझे तो अंदर से लोगों के बात करने की आवाज़ सुनाई दे रही है। लगता है लोग अभी तक नहीं सोये।” मैंने कहा, “... और घर में ऐसे, नंगे तो नहीं घूम सकते न? सिर्फ टॉयलेट जाने के लिए पूरे कपडे पहनने का मन नहीं है मेरा।”

संध्या कुछ बोल नहीं रही थी।

“वैसे भी सबने अन्दर से हमारी आवाजें सुनी होंगी ... मुझे नहीं जाना है सबके सामने ... आप मेहनत कर सकतीं हैं, तो करिए।” मैंने अपनी सारी बात कह दी।

“इस कमरे का यह दूसरा दरवाज़ा बाहर बगीचे में खुलता है ...”

“ओ के .. तो?”

“.... हम लोग बगीचे में टॉयलेट कर सकते हैं ... वहां एकांत होगा ..”

एडवेंचर! लड़की तो साहसी है! इंटरेस्टिंग!

“ह्म्म्म .. ठीक है। चलिए फिर।” मैंने पलंग से उठते हुए बोला। संध्या अभी भी बैठी हुई थी - शायद शरमा रही थी, क्योंकि उठते ही वह (मनोवैज्ञानिक तौर पर) पूरी तरह से नग्न हो जाती (बिस्तर पर चादर इत्यादि तो थे ही, जिनके कारण आच्छादित (कपड़े पहने रहने) होने का एहसास तो होता ही है)।

मैंने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ाया, “चलिए न ..” संध्या ने सकुचाते हुए मेरा हाथ थाम लिया और मैंने उसको सहारा देकर पलंग से उठा लिया।

अपनी परी को मैंने पहली बार पूर्णतया नग्न, खड़ा हुआ देखा। मैंने उसके नग्न शरीर की अपर्याप्त परिपूर्णता की मन ही मन प्रशंसा की। उसके शरीर पर वसा की अनावश्यक मात्रा बिल्कुल भी नहीं थी। उसके जांघे और टाँगे दृढ़ मांसपेशियों की बनी हुई थीं। एक बात तो तय थी कि आने वाले समय में यह लड़की, अपनी सुंदरता से कहर ढा देगी। मेरे लिंग में पुनः उत्थान आने लगा। मुझे इस प्रकार उसको देखता हुआ देख कर संध्या की दृष्टि पुनः लज्जा के कारण नीची हो गई। लेकिन उसने दूसरे दरवाज़े का रुख कर लिया।

मैंने उसको दरवाज़ा खोलने से रोका और स्वयं उसको खोल कर बाहर निकल आया, सब तरफ देख कर सुनिश्चित किया कि कोई वहाँ न हो और फिर उसको इशारा देकर बाहर आने को कहा। वह दबे पाँव बाहर निकल आई, किन्तु इतनी सावधानी रखने के बाद भी उसकी पायल और चूड़ियों की आवाजें आती रही। बगीचा कमरे से बाहर कोई आठ-दस कदम पर था। रात में यह तो नहीं समझ आ रहा था कि वहां पर किस तरह के पेड़ पौधे थे, लेकिन यह अवश्य समझ आ रहा था कि किस जगह पर मूत्र किया जा सकता है। संध्या किसी झाड़ी से कोई दो फुट दूरी पर जा कर बैठ गई। अँधेरे में कुछ दिखाई तो नहीं दिया, लेकिन मूत्र विसर्जन करने की सुसकारती हुई आवाज़ आने लगी। मेरा यह दृश्य देखने का मन हो रहा था, लेकिन कुछ दिख नहीं पाया।

मैंने संध्या के उठने का कुछ देर इंतज़ार किया। उसने कम से कम एक मिनट तक मूत्र किया होगा, और फिर कुछ देर तक ऐसे ही बैठी रही। मैंने फिर उसको उठ कर मेरी तरफ आते देखा। यह सब होते होते मेरा लिंग कड़क स्तम्भन प्राप्त कर चुका था। इस दशा में मेरे लिए मूत्र करना संभव ही नहीं था।

“आप भी कर लीजिए...”

“चाहता तो मैं भी हूँ, लेकिन मुझसे हो नहीं पा रहा है ...”

“क्यों .. क्या हुआ?” संध्या की आवाज़ में अचानक ही चिंता के सुर मिल गए। अब तक वह मेरे एकदम पास आ गई थी।

“आप खुद ही देख लीजिये ...” कहते हुए मैंने उसका हाथ पकड़ कर अपने लिंग पर रख दिया। उसके हाथ ने मेरे लिंग के पूरे दंड का माप लिया - अँधेरे में लज्जा कम हो जाती है। उसको समझ आ रहा था कि लिंगोत्थान के कारण ही मैं मूत्र नहीं कर पा रहा था।

“आप कोशिश कीजिए ... मैं इसको पकड़ लेती हूँ?” उसने एक मासूम सी पेशकश करी।

“ठीक है ...” कह कर मैंने अपने जघन क्षेत्र की मांसपेशियों को ढीला करने की कोशिश की। संध्या के कोमल और गर्म स्पर्श से यह काम होने में समय लगा। खैर, बहुत कोशिश करने के बाद मैंने महसूस किया कि मूत्र ने मेरे लिंग के गलियारे को भर दिया है ... तत्क्षण ही मैंने मूत्र को बाहर निकलता महसूस किया।

“इसकी स्किन को पीछे कि तरफ सरका लो...” मैंने संध्या को निर्देश दिया।

संध्या ने वैसे ही किया, लेकिन बहुत कोमलता से। मैंने भी लगभग एक मिनट तक मूत्र विसर्जन किया। मुझे लगता है कि संभवतः संध्या ने छोटे लड़कों को मूत्र करवाया होगा, इसलिए जब मैंने मूत्र कर लिया, तब उसने बहुत ही स्वाभाविक रूप से मेरे लिंग को तीन-चार बार झटका दिया, जिससे मूत्र की बची हुई बूँदें भी निकल जाएँ। मैंने उसकी इस हरकत पर बहुत मुश्किल से अपनी मुस्कराहट दबाई। इसके बाद हम दोनों वापस अपने कमरे में आ गए।

अच्छा, हमारी तरफ शादी की पहली रात को एक रस्म होती है, जिसको ‘मुँह-दिखाई’ कहा जाता है। इसमें दुल्हन का घूंघट उठाने पर उसको एक विशेष स्मरणार्थ वस्तु (निशानी) दी जाती है। मुझे इसके बारे में याद आया, तो मैंने अपने बैग में से संध्या के लिए खास मेड-टू-आर्डर करधनी निकाली। यह एक 18 कैरट सोने की करधनी थी, जिसमें संध्या के रंग को ध्यान में रखते हुए इसमें लाल-भूरे, नीले और हरे रंग के मध्यम मूल्यवान जड़ाऊ पत्थर (सेमी प्रेशियस स्टोन्स) लगे हुए थे। वह उत्सुकतावश मुझे देख रही थी कि मैं क्या कर रहा हूँ, और यूँ ही नग्न अवस्था में बिस्तर के बगल खड़ी हुई थी। मैं वापस आकर बिस्तर पर बैठ गया और संध्या को अपने एकदम पास बुलाकर उसकी कमर में यह करधनी बाँध दी, और थोड़ा पीछे हटकर उसके सौंदर्य का अवलोकन करने लगा।

संध्या के नग्न शरीर पर यह करधनी ही सबसे बड़ी वस्तु बची हुई थी – उसकी बेंदी और नथ तो कब कि उतर चुकी थीं, और बिंदी हमारे सम्भोग क्रिया के समय न जाने कब खो गई। उसका सिन्दूर और काजल अपने अपने स्थान पर फ़ैल गया, और लिपस्टिक का रंग मिट गया था। किन्तु न जाने कैसे यह होने के बावजूद, वह इस समय बिलकुल रति का अवतार लग रही थी। थोड़ी ऊर्जा होती तो एक बार पुनः सम्भोग करता। लेकिन अभी नहीं।

“आपको यह उपहार अच्छा लगा?”

संध्या ने लज्जा भरी मुस्कान के साथ सर हिला कर मेरा उपहार स्वीकार किया। मैंने उसकी कमर को आलिंगन में लेकर उसकी नाभि, और फिर उसकी कमर को करधनी के ऊपर से चूमा।

“आई लव यू!” कह कर मैंने उसको अपने पास बिठा लिया और फिर हम दोनों बिस्तर पर लेट कर एक दूसरे की बाहों में समां कर गहरी नींद में सो गए।
 
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मेरी नींद खिड़की से आती चिड़ियों की चहचहाने के आवाज़ से खुली। मैं बहुत गहरी नींद सोया रहा होऊँगा, क्योंकि मुझे नींद में किसी भी सपने कि याद नहीं थी। मैंने एक आलस्य भरी अंगड़ाई ली, तो मेरा हाथ संध्या के शरीर पर लगा, और उसके साथ साथ रात की सारी घटनाएं भी याद आ गईं। मैंने अपनी अंगड़ाई बीच में ही रोक दी, जिससे संध्या की नींद न टूटे। मैं वापस बिस्तर में संध्या से सट कर लेट गया - आपको मालूम है ‘स्पून पोजीशन’? बस ठीक वैसे ही। संध्या के शरीर की नर्मी और गर्माहट ने मेरे अन्दर की वासना पुनः जगा दी। कम्बल के अन्दर मेरा हाथ अपने आप ही संध्या के एक स्तन पर आकर लिपट गया। अगले कुछ ही क्षणों में मैं उसके शरीर के विभिन्न हिस्सों का जायज़ा लेने लगा। साथ ही साथ यह भी सोचता रहा कि क्या संध्या को भी रात की बातें याद होंगी?

मुझे अपनी सुहागरात कि एक एक बात याद आ रही थी, और उसी आवेश में मेरा हाथ संध्या की आकर्षक योनि पर पर चला गया, और मेरी उंगलियाँ उसके स्पंजी होंठों को दबाने सहलाने लगी। प्रतिक्रिया स्वरुप संध्या के कोमल और मांसल नितम्ब मेरे लिंग पर जोर लगाने लगे। सोचो! ऐसी सुन्दर लड़की को सेक्स के बारे में सिखाना भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। कुछ ही देर की मालिश ने संध्या के मुंह से कूजन की आवाज़ आने लग गई - लड़की को नींद में भी मज़ा आ रहा था। मेरे लिंग में कड़ापन पैदा होने लगा। विरोधाभास यह कि आज के दिन हमको कुछ पूजायें करनी थी - ये भारतीय शादियों में सबसे बड़ा जंजाल है - पहले दर्जनों रीति रिवाज़ निबटाओ, फिर पूजा पाठ! अरे सबसे बड़ी पूजा तो हम कर ही रहे थे! खैर, पूजा पाठ करने में अभी देर थी। फिलहाल मुझे अपनी सौंदर्य और प्रेम की देवी की पूजा करनी थी।

मैंने उसकी योनि से हाथ हटा कर उसके कोमल स्तन पर रख दिया और कुछ क्षण उसके निप्पल से खेलता रहा। फिर, मैंने अधीर होकर संध्या को अपनी तरफ भींच लिया। मेरे ऐसा करने से संध्या के शरीर में हलचल हुई, लेकिन मैंने उसको छोड़ा नहीं। संध्या अब तक जाग चुकी थी - लेकिन सूरज की रोशनी, जो कमरे के सामने के पेड़ की पत्तियों से छन छन कर अन्दर आ रही थी, उसकी आँखों को चुंधिया रही थीं, और उसकी आँखें बंद हो रही थीं। मैं उसके इस भोलेपन और प्रेम से अभिभूत हो गया था - मेरे लिए वह निश्छल लालित्य की प्रतिमूर्ति थी। एकदम परफेक्ट!

मैंने अपनी पकड़ ढीली कर दी और हाथ हटा लिया, जिससे वह अपने हाथ पाँव हिला सके और नींद से जाग सके। संध्या ने सबसे पहले अपना सर मेरी तरफ घुमाया - मैंने देखा कि उसकी आँखों में पल भर में कई सारे भाव आते गए - आश्चर्य, भय, परिज्ञान, लज्जा और प्रेम! संभवतः उसको कल रात के कामोन्माद संबंधी अनुभव याद आ गए होंगे। उसके होंठों पर एक मीठी मुस्कान आ गई।

“गुड मोर्निंग, हनी!” मैंने दबी हुई आवाज़ में कहा, “सुबह हो गई है ...”

संध्या ने थोड़ा उठते हुए अंगड़ाई ली, इससे ओढ़ा हुआ कम्बल उसके ऊपर से सरक गया, और एक बार फिर से संध्या के स्तन नग्न हो गए। मेरी दृष्टि तुरंत ही उन कोमल टीलों की तरफ चली गई। उसने झटपट अपने शरीर को ढकना चाहा, लेकिन मैंने उसके हाथ को रोक दिया और अपने हाथ से उसके स्तन को ढक लिया और उसको धीरे धीरे दबाने लगा।

“हमारे पास कुछ समय है ...” मैंने कहा - मेरी आवाज़ और आँखों में कामुकता थी। मेरा लिंग उसके शरीर से अभी भी लगा हुआ था, लिहाज़ा वह उसके कड़ेपन को अवश्य ही महसूस कर पा रही थी।

संध्या समझते हुए मुस्कुराई, “जी .... आपने कल मुझे थका दिया ... अभी .... थोड़ा नरमी से करिएगा? वहां पर थोड़ा दर्द है ...”

तब मुझे ध्यान आया ... थोड़ा नहीं, काफी दर्द होगा। कल उसने पहली बार सेक्स किया है, और वह भी ऐसे लिंग से। निश्चित तौर पर उसकी हालत खराब होगी। ये बेचारी लड़की मुझे मना नहीं कर सकेगी, इसलिए ऐसे बोल रही है। मैं बरसों का भूखा बैठा था, और एक बार में अघा नहीं सकता था। ऐसे में मुझे हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए। लेकिन, मेरा अभी सेक्स करने का बहुत मन है ... और हर बार लिंग से ही सेक्स किया जाए, यह कोई ज़रूरी नहीं। मैंने सोचा कि मैं उसके साथ मुख-मैथुन करूंगा, और अगर लकी रहा, तो वह भी करेगी। देखते हैं।

“ओह गॉड! आई वांट यू सो मच!”

कहते हुए मैं संध्या के ऊपर झुक गया और अपने होंठो को उसकी गर्दन से लगा कर मैंने संध्या को चूमना शुरू किया - एक पल को वह हलके से चौंक गई, लेकिन फिर मेरे प्रत्येक चुम्बन के साथ उठने वाले कामुक आनंद का मज़ा लेने लगी। मैंने अपनी जीभ को संध्या के मुख में डालने का प्रयास किया तो संध्या ने भी अपना मुख खोल कर पूरा सहयोग दिया। हमारी जिह्वाओं ने एक अद्भुत प्रकार का नृत्य आरम्भ कर दिया, जिसका अंत (जैसी मेरी उम्मीद थी) हमारे शरीर करते। संध्या ने अपनी बाहें मेरी गर्दन के इर्द-गिर्द डाल कर मुझे अपनी तरफ समेट लिया और मैंने उसको कमर से थाम रखा था। भाव प्रवणता से चल रहे हमारे चुम्बन ने हम दोनों में ही यौनेच्छा की अग्नि पुनः जला दी।

उसकी गर्दन को चूमते हुए मैं नीचे की तरफ आने लगा और जल्दी ही उसके कोमल स्तनों को चूमने लगा। मुझे उनको देखकर ऐसा लगा कि वो मेरे ही प्रेम और दुलार का इंतज़ार कर रहे थे। यहाँ पर मैंने काफी समय लगाया - उसके निप्पलों को अपने मुंह में भर कर मैंने उनको अपनी जीभ से सावधानीपूर्वक खूब मन भर कर चाटा, और साथ ही साथ दोनों स्तनों के बीच के सीने को चूमा। मेरी आवभगत का प्रभाव उसके चूचकों ने तुरंत ही खड़े होकर प्रदर्शित करना शुरू कर दिया। कुछ और देर उसके स्तनों को दुलार करने के बाद, मैंने अनिच्छा से और नीचे बढ़ना आरम्भ कर दिया। उसके चूचकों को चूमना और चूसना सबसे रोमांचक अनुभव था। मेरा अगला निशाना उसका पेट था, जिसको चूमते हुए मैं अपने चेहरे को उस पर रगड़ता भी रहा।

खैर, जैसा विधि का विधान है, मैं कुछ ही देर में उसके पैरों के बीच में पहुँच गया। मेरे चेहरे पर, मैं उसकी योनि की आंच साफ़ साफ़ महसूस कर रहा था। मैंने उसकी दोनों जांघो को फैला दिया, जिससे उसकी योनि के होंठ खुल गए। संध्या की योनि के दोनों होंठ, उसके जीवन के पहले रति-सम्भोग के कारण सूजे हुए थे। मैंने उन्ही पर अपनी जीभ का स्नेह-लेप लगान शुरू कर दिया, और बहुत ही धीरे-धीरे अन्दर की तरफ आता गया। मुझे संध्या के मन का प्रावरोध कम होता हुआ सा लगा - उसने मेरे चुम्बन पर अपने नितम्बों को हिलाना चालू कर दिया था - और मैं यह शर्तिया तौर पर कह सकता हूँ कि उसको भी आनंद आ रहा था। कुछ देर ऐसे ही चूमते और चाटते रहने के बाद संध्या के कोमल और कामुक कूजन का स्वर आने लग गया, और साथ ही साथ उसकी योनि से काम-रस भी रिसने लगा। इसको देख कर मुझे शक हुआ कि संभवतः उसका रस मेरे वीर्य से मिला हुआ था। लेकिन मुझे कोई परवाह नहीं थी - वस्तुतः, यह देख कर मेरा रोमांच और बढ़ गया। मैंने उसकी जांघें थोड़ी और खोल दी, जिससे मुझे वहां पर लपलपा कर चाटने में आसानी रहे।

मेरी जीभ ने जैसे ही उसकी योनि के अन्दर का जायजा लिया उसकी हल्की सी कामुक चीख निकल गई, “ऊई माँ!”
 
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संध्या के मज़े को देख कर मैंने अपने काम की गति को और बढ़ा दिया - अब मैं उसकी पूरी योनि को अपने मुंह में भर कर चूसने लगा, और अपने खाली हाथों से उसके स्तनों और चूचकों को दबाने कुचलने लगा। जब उसके स्तनाग्र दोबारा खड़े हो गए, तब मैंने अपने हाथो को वहां से हटा कर संध्या के नितम्ब को थाम लिया। फिर धीरे धीरे, मैंने दोनों हाथों से उसके नितंबों की मालिश शुरू कर दी। मेरा मुंह और जीभ पहले से ही उसकी योनि पर हमला कर रहे थे। संध्या कि तेज़ होती हुई साँसे अब मुझे सुनाई भी देने लग गई थी।

संध्या धीरे से फुसफुसाई, “धीरे .. धीरे ...” लेकिन मेरी गति पर कोई अंकुश नहीं था … “आअह्ह्ह्ह! प्लीज! बस ... बस ... अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती ....”

प्रत्यक्ष ही है, कि यह सब संध्या के लिए काफी हो चुका था। वह कल रात की गतिविधियों के फलस्वरूप तकलीफ में थी। फिर भी मैंने अभी बंद करना ठीक नहीं समझा - लड़की अगर यहाँ तक पहुंची है, तो उसको अंत तक ले चलना मेरी जिम्मेदारी भी थी, और एक तरह से कर्तव्य भी। मेरे हाथ इस समय उसके नितम्बो के मध्य कि दरार पर फिर रहे थे। मैंने कुछ देर तक अपनी उंगली उस दरार की पूरी लम्बाई तक चलाई - मन तो हुआ कि अपनी उंगली उसकी गुदा में डाल दूँ - लेकिन कुछ सोच कर रुक गया, और उसकी योनि को चूसने - चाटने का कार्य करता रहा।

अब संध्या के मुख से “आँह .. आँह ..” वाली कामुक कराहें निकल रही थी। मानो वह दीन-दुनिया से पूरी तरह से बेखबर हो। अच्छे संस्कारों वाली यह सीधी-सादी लड़की अगर ऐसी निर्लज्जता से कामुक आवाजें निकाले तो इसका बस एक ही मतलब है - और वह यह कि लोहा बुरी तरह से गरम है - और अब उसको चोट मार कर चाहे कैसा भी रूप दे दो। पहले तो मेरा ध्यान बस मुख-मैथुन तक ही सीमित था, लेकिन अब मेरा लक्ष्य था कि संध्या को इतना उत्तेजित कर दूं, कि सेक्स के लिए मुझसे खुद कहे।

यह सोच कर मैंने अपना मुँह उसकी योनि से फिर से सटाया, और अपनी जीभ को उसके जितना अन्दर पहुंचा सकता था, उतना डाल दिया। मेरे इस नए हमले से वह बुरी तरह तड़प गई - उसने अपनी टाँगे पूरी तरह से खोल दी, लेकिन योनि की मांसपेशियों को सिकोड़ ली। ऐसा नहीं है मेरे मन पर मेरा पूरा नियंत्रण था - मेरा लिंग खुद भी पूरी तरह फूल कर झटके खा रहा था।

आप सभी ने तो देखा ही होगा कि ‘ब्लू फिल्मों’ में हीरो कुछ इस तरह दिखाए जाते हैं कि मानो वो चार-चार घंटे लम्बे यौन मैराथन को भी बड़ी आसानी से कर सकते हैं। और इतनी देर तक उनका लिंग भी खड़ा रहता है और उनकी टांगों और जांघों में ताकत शेष रहती है। संभव है कि वास्तविक जीवन में कुछ लोग शायद ऐसा करते भी होंगे, और उनकी स्त्रियों से मुझे पूरी सहानुभूति भी है। मुझे अपने बारे में मालूम था कि मैं ऐसे मैराथन नहीं खेल सकता हूँ। वैसे भी मैं आज तक किसी भी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिला हूँ जिसने ऐसा दावा किया हो। खैर, यह सब कहने का मतलब यह है कि मेरे लिए यह सब जल्दी ही खत्म होने वाला था ....

मैंने ऊपर जा कर संध्या के होंठ चूमने शुरू कर दिए - हम दोनों ही कामुकता के उन्माद के चरम पर थे और एक दूसरे से उलझे जा रहे थे। संध्या की टाँगे मेरे कंधो पर कुछ इस तरह लिपटी हुई थी कि मुझे कुछ भी करने से पहले उसकी टांगो को खोलना पड़ता। मैंने वही किया और उसके समानांतर आकर उसको पकड़ लिया। ऐसा करने से मेरा उन्नत शिश्न अपने तय निशाने से जा चिपका।

मुझे लगता है कि यौन क्रिया का ज्ञान हम सभी को नैसर्गिक रूप में मिलता है - चाहे किसी व्यक्ति को महर्षि वात्स्यायन की विभिन्न मुद्राओं का ज्ञान न भी हो, फिर भी स्त्री-पुरुष दोनों ही सेक्स की आधारभूत क्रिया से भली भाँति परिचित होते ही हैं। कुछ ऐसा ही ज्ञान इस समय संध्या भी दिखा रही थी। वह अभी भी कामुकता के सागर में गोते लगा रही थी और पूरी तरह से अन्यमनस्क थी। लेकिन उसका जघन क्षेत्र धीरे-धीरे झूल रहा था - कुछ इस तरह जिससे उसकी योनि मेरे लिंग के ऊपर चल फिर रही थी और उसके अनजाने में ही, मेरे लिंग को अपने रस से भिगो रही थी। संध्या अचानक से रुक गई - उसने अपनी पलकें खोल कर, अपनी नशीली आँखों से मुझे देखा। और फिर बिस्तर पर लेट गई।

‘कहीं यह आ तो नहीं गई!’ मेरे दिमाग में ख़याल आया। ‘ये तो सारा खेल चौपट हो गया।’

मैं एक पल अनिश्चय की हालत में रुक गया और अगले ही पल संध्या ने लेटे-लेटे ही अपना हाथ बढ़ा कर मेरे लिंग को पकड़ लिया और उसको अपनी योनि की दिशा में खींचने लगी। मैं भी उसकी ही गति के साथ साथ चलता रहा। अंततः, वह मेरे लिंग को पकड़े हुए अपनी योनि द्वार पर सटा कर सहलाने लगी।

यह पूरी तरह से अविश्वसनीय था।

संध्या मुझे सेक्स करने के लिए खुद ही आमंत्रित कर रही थी!!

कामोन्माद का ऐसा प्रदर्शन!

वाह!

अब आगे जो मुझे करना था, वह पूरी तरह साफ़ था। मैंने बिलकुल भी देर नहीं की। संध्या को मन ही मन इस निमंत्रण के लिए धन्यवाद करते हुए मैंने उसको हौले से अपनी बाँहों में पकड़ लिया। ऐसा करने से उसके दोनों चूचक (जो अब पूरी तरह से कड़क हो चले थे) मेरे सीने पर चुभने लगे। मैंने संध्या को फिर से कई बार चूमा - और हर बार और गहरा चुम्बन। चूमने के बाद, मैंने उसके नितम्बों को पकड़ कर हौले हौले दबा दिया; साथ ही साथ मैंने अपने पैरों को कुछ इस तरह व्यवस्थित किया जिससे मेरा लिंग, संध्या की योनि को छूने लगे।

मैंने लिंग को हाथ से पकड़ कर, पहले संध्या के भगनासे पर फिराया, और फिर वहां से होते हुए उसके भगोष्ठ के बीच में लगा कर अंदर की यात्रा प्रारंभ करी। मेरे लिंग कि इस यात्रा में उसका साथ संध्या ने भी दिया। जैसे ही मैंने आगे की तरफ जोर लगाया, नीचे से संध्या ने भी जोर लगाया। इन दोनों प्रयासों के फलस्वरूप, मेरा लिंग, संध्या की योनि में कम से कम तीन चौथाई समां गया। संध्या की उत्तेजना इसी बात से प्रमाणित हो जाती है। मैंने संध्या की गर्मागरम, कसी हुई, गीली, रसीली योनि में और अंदर सरकना चालू कर दिया। संध्या की आँखें बंद थी, और हम दोनों में से कोई भी कुछ भी नहीं बोल रहा था। लेकिन फिर भी, ऐसा लगता था मानो हम दोनों इस नए ‘केबल-कनेक्शन’ के द्वारा बतला रहे हों। इस समय शब्दों की कोई आवश्यकता नहीं थी। मैंने महसूस किया कि मैं अपनी मेनका के अन्दर पूरी तरह से समां गया हूँ।

इस छण में हम दोनों कुछ देर के लिए रुक गए - अपनी साँसे संयत करने के लिए। साथ ही साथ एक दूसरे के शरीर के स्पर्श का आनंद भी लेने के लिए। करीब बीस तीस सेकंड के आराम के बाद मैंने लिंग को थोड़ा बाहर निकाल कर वापस उसकी योनि की आरामदायक गहराई में ठेल दिया। संध्या की योनि के अन्दर की दीवारों ने मेरे लिंग को कुछ इस तरह कस कर पकड़ लिया जैसे कि ये दोनों ही एक दूसरे के लिए ही बने हुए हों। अब मैंने अपने लिंग को उसकी योनि में चिर-परिचित अन्दर बाहर वाली गति दे दी। साथ ही साथ, हम दोनों एक दूसरे को चूमते भी जा रहे थे।

मेरी कामना थी कि यह कार्य कम से कम दस मिनट तक किया जा सके, लेकिन मैं सिर्फ पच्चीस से तीस धक्कों तक ही टिक सका। अपने आखिरी धक्के में मैं जितना भी अन्दर जा सकता था, चला गया। शायद मेरे इशारे को समझते हुए संध्या ने भी अपने नितम्ब को ऊपर धकेल दिया। मेरा पूरा शरीर स्खलन के आनंद में सख्त हो गया - मेरे लिंग का गर्म लावा पूरी तीव्रता से संध्या की कोख में खाली होता चला गया। पूरी तरह से खाली होने के बाद मैंने संध्या को बिस्तर से उठा कर अपने से कस कर लिपटा लिया, और उसके कोमल मुख को बहुत देर तक चूमता रहा। यह आभार प्रकट करने का मेरा अपना ही तरीका था।

हम लोग कुछ समय तक ऐसे ही एक दूसरे के आलिंगन में बंधे हुए यौन क्रिया के आनंद रस पीते रहे, कि अचानक संध्या कसमसाने लगी। मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि उसकी ओर डाली।

“क्या हुआ?”

“जी ... टॉयलेट जाना है ....” उसने कसमसाते हुए बोला।

जैसा कि मैंने पहले ही बताया है, संध्या को सेक्स करने के बाद मूत्र विसर्जन का अत्यधिक तीव्र एहसास होता है। वैसे भी सुबह उठने के बाद सभी को यह एहसास तो होता ही है ... लिहाज़ा संध्या को और भी तीव्र अनुभूति हो रही थी। उसके याद दिलाने से मुझे भी टॉयलेट जाने का एहसास होने लगा। और इस कमरे से लगा हुआ कोई टॉयलेट नहीं था - मतलब अब तो कमरे से बाहर घर के अन्दर वाले बाथरूम में जाना पड़ेगा। इतनी सुबह तो बाहर बगीचे में तो जाया नहीं जा सकता न। वैसे भी अब उठने का समय तो हो ही गया था। आज के दिन कुछ पूजायें करनी थी, और उसके लिए नहाना धोना इत्यादि तो करना ही था।

हम दोनों ही उठ गए। मूर्खता की बात यह कि हम दोनों के सारे सामान इस कमरे में नहीं थे। संध्या ने न जाने कैसे कैसे अपने आप को सम्भाल कर साड़ी, पेटीकोट और ब्लाउज पहना। स्पष्ट ही था कि वो साड़ी नियमित रूप से नहीं पहनती थी – संभवतः हमारा विवाह पहला अवसर था जब उसने साड़ी पहनी हो। और इस कारण से वो ठीक से पहनी नहीं गई, और चीख चीख कर हमारी रात की हरकतों की सबसे चुगली रही थी। वैसे रात की हरकतों की चुगली तो संध्या का चेहरा ही कर देता - होंठों की लाली साफ़ थी, माथे सिंदूर फ़ैला हुआ था, और आँखों का काजल बह गया था। खैर, कमरे से बाहर निकलने की तैयारी करते करते हम दोनों को कम से कम दस मिनट लग गए। इस बीच मैंने भी अपना कुरता और पजामा पहन लिया। संध्या बेचारी का इस समय बुरा हाल हो रहा होगा - एक तो सेक्स का दर्द और ऊपर से मूत्र का तीव्र एहसास! संध्या धीरे-धीरे चलते हुए दरवाज़े तक पहुंची। दरवाज़ा खोलने से पहले उसको कुछ याद आया, और उसने अपने सर को पल्लू से ढक लिया।

‘हह! भारतीय बहुओं के तौर तरीके! ये लड़की तो अपने मायके से ही शुरू हो गई!’ मैंने मज़े लेते हुए सोचा।
 
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“जाग गई बेटा!” ये शक्ति सिंह थे ... अब उनको क्या बताया जाए कि जाग तो बहुत देर पहले ही गए हैं। और ऐसा तो हो नहीं सकता कि अपनी बेटी की कामुक कराहें उन्होंने न सुनी हो। संध्या प्रत्युत्तर में सिर्फ मुस्कुरा कर रह गई। उसने जल्दी से बाथरूम की तरफ का रुख किया। संध्या के पीछे ही मैं कमरे से बाहर निकला। मैंने यह ध्यान दिया कि वहाँ उपस्थित सभी लोग संध्या के अस्त-व्यस्त कपड़े और चेहरे को देख कर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे।

“... आइए आइए..” शक्ति सिंह जी ने मुझे देख कर कहना जारी रखा, “बैठिए .. नीलम बेटा, जीजाजी के लिए चाय लाओ ..... आप जल्दी से फ्रेश हो जाइये ... आज भी काफी सारे काम हैं।”

कम जान पहचान होने के कारण मैं मना नहीं कर सका। वैसे भी, गरम चाय इस ठण्डक में आराम तो देगी ही। अब मैंने अपने चारों तरफ नज़र दौड़ाई - घर में सामान्य से अधिक लोग थे।

‘शादी-ब्याह का घर है’, मैंने सोचा, ‘... सारे रिश्तेदार आये होंगे ..’

सभी लोग मेरी तरफ उत्सुकतापूर्वक देख रहे थे... लेकिन अगर मेरी नज़र किसी की नज़र से मिलती तो वो तुरंत अपनी नज़र नीची कर लेते - मानो को कोई चोरी पकड़ी गई हो। एक-दो औरतें लेकिन बड़ी ढिठाई से मुझे घूरे जा रही थी। मैंने उनको नजरअंदाज करना ही उचित समझा। शक्ति सिंह से आगे कोई बात नहीं हो पायी ... वो आगे के इंतजाम के लिए कमरे से बाहर चले गए थे। लिहाज़ा, अब मेरे पास चाय आने के इंतज़ार के अतिरिक्त और कोई काम नहीं बचा था। मुझे अब ठण्ड लगने लग गई थी... मेरे पास इस समय कोई गरम कपड़ा नहीं था। मेरा सामान कहीं नहीं दिख रहा था।

‘इतनी ठण्ड में तो जान निकल जाएगी’ मैंने सोचा।

“जीजू, आपकी चाय....” यह सुन कर मेरी जान में जान आई।

“थैंक यू!” मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

“.. और ये है आपके लिए शाल!” नीलम ने बाल-सुलभ चंचलता के साथ कहा।

“नीलम! यू आर ऐन एंजेल! .... फ़रिश्ता हो तुम!” मैंने मुस्कुराते हुए मन से आभार प्रकट किया।

नीलम के चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।

“जीजू ... आपकी स्माइल मुझे बहुत पसंद है ...” नीलम ने चंचलता से कहना जारी रखा, “... और आपसे मैं एक बात कहूँ?”

“हाँ .. बोलो न?” मैंने चाय की पहली चुस्की लेते हुए कहा। अचानक ही ठण्ड से आराम मिल गया।

“मैं आपको जीजू न बोलूँ तो चलेगा?”

“बिलकुल!”

“मैं आपको दाजू कहूँ?”

“कह सकती हो .. लेकिन इसका मतलब क्या होता है?”

“दाजू का मतलब होता है बड़ा भाई ... आप मेरे बड़े भैया ही तो हैं न...” नीलम कि इस स्नेह भरी बात ने मेरे ह्रदय के न जाने कैसे अनजान तार छेड़ दिए। मेरा मन हुआ कि इस बच्ची को जोर से गले लगा लूँ! एक रोड-ट्रिप पर निकला था, और आज एक पूरा परिवार है मेरे पास!

मेरे चाय पीने, नहा-धो कर नाश्ता करने तक के अंतराल तक संध्या मेरे सामने नहीं आई। वह अन्दर ही थी ... अपने परिजनों के साथ बात-चीत कर रही होगी। खैर, जब वह बाहर निकली, तो उसने नीले रंग की साड़ी पहनी हुई थी। बाकी का पहनावा कल के जैसा ही था। नई-नवेली दुल्हन को वैसे भी सोलह श्रृंगार करना शोभा भी देता है। बस एक अंतर था – आज उसने मेरी दी हुई करधनी भी पहनी हुई थी। कोई आश्चर्य नहीं कि वहां उपस्थित कई लोगों कि नज़र उसी करधन पर थी। मैंने कुर्ता और चूड़ीदार पजामा पहना हुआ था। हम दोनों ने ही शाल ओढ़ा हुआ था। दिन में भी ठंडक काफी थी। आज की व्यवस्था यह थी कि इस कस्बे की मानी हुई संरक्षक देवी के दर्शन और पूजा-पाठ करनी थी। उनका मंदिर घर से कोई एक किलोमीटर दूर पहाड़ के ऊपर बना था। लिहाज़ा वहां पर जाने के लिए पैदल ही रास्ता था। अगर मुझे मालूम होता, तो संध्या को इतना परेशान न करता। खैर, अब किया भी क्या जा सकता था।

पहाड़ी रास्ते पर चलते हुए मैंने संध्या से पूछा कि क्या वह ठीक से चल पा रही है …. जिसका उत्तर उसने “हाँ” में दिया। रास्ते में मेरे ससुर जी, सासू माँ और नीलम मुझसे कुछ न कुछ बातें करते जा रहे थे – मुझे या तो उस जगह के बारे में बताते, या फिर अपनी पहचान के लोगों से मेरा परिचय भी करते। कुछ देर चलते रहने के बाद मंदिर आया। वहां पंडित जी पहले से ही तैयार थे, और हमारे आते ही उनके मंत्रोच्चारण शुरू हो गए। कुछ देर में पूजा सम्पन्न हुई और हम लोग मंदिर के बाहर एक चौरस मैदान में आकर रुके। पंडित जी यहाँ भी आकर मंत्र पढ़ने लगे और कुछ ही देर में उन्होंने मुझे एक पौधा दिया, और मुझे उसको रोपने को बोला।

मुझे उस समय याद आया कि उत्तराँचल में कुछ वर्षो से एक आन्दोलन जैसा चला हुआ है, जिसको ‘मैती’ कहा जाता है। आज के दौर में जब ‘ग्लोबल वार्मिंग’ मानवता और धरती दोनों के लिए एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है, ऐसे में मैती आंदोलन अपने आप में हम सभी के लिए एक बड़ी मिसाल है। कुछ लोगों के लिए यह सिर्फ रस्म भर हो सकता है, लेकिन वास्तविकता में यह एक ऐसा भावनात्मक पर्यावरणीय आंदोलन है, जिसे अगर व्यापक प्रचार मिले तो पर्यावरण प्रदूषित ही ना हो। इस रीति में शादी के समय वैदिक मंत्रोच्चार के बीच दूल्हा-दुल्हन द्वारा फलदार पौधों का रोपण किया जाता है। जब भी उत्तराँचल के किसी गांव में किसी लड़की की शादी होती है, तो विदाई के समय दूल्हा-दुल्हन को गांव के एक निश्चित स्थान पर ले जाकर फलदार पौधा लगवाया जाता है। दूल्हा पौधों को रोपित करता है और दुल्हन इसे पानी से सींचती है, फिर गाँव के बड़े बूढ़े लोग नव-दम्पति को आशीर्वाद देते हैं।

मुझे पता चला कि दूल्हा अपनी इच्छा अनुसार मैती संरक्षकों (जिनको मैती बहन कहा जाता है) को पैसे भी देता है, जो कि रस्म के बाद रोपे गए पौधों की रक्षा करती हैं, खाद, पानी देती हैं, जानवरों से बचाती हैं। मैती बहनों को जो पैसा दूल्हों के द्वारा इच्छानुसार मिलता है, उसे रखने के लिए मैती बहनों द्वारा संयुक्त रूप से खाता खुलवाया जाता है। उसमें यह राशि जमा होती है। खाते में अधिक धनराशि जमा होने पर इसे गरीब बच्चों की पढ़ाई पर भी खर्च किया जाता है।

‘ऐसे प्रयास के लिए तो मैं कितने ही पैसे दे सकता हूँ’ मैंने सोचा, लेकिन उस समय मेरी जेब में इतने पैसे नहीं थे। इसलिए मैंने उन लोगो को घर पर अपने साथ बुलाया। वहां पर मैंने एक लाख रुपये का चेक काट कर उनको दिया। एक लाख रुपयों की धनराशि देख कर वो लोग अचंभित हो गए। ससुर जी समझाया कि इतना देने की ज़रुरत नहीं है। लेकिन मैंने कहा कि कुछ बच्चों की पढ़ाई लिखाई हो जाएगी, कुछ पौधों का संरक्षण हो जाएगा - और क्या चाहिए! मुझे लगा कि आज का दिन कुछ सार्थक हुआ।
 
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आज का कार्यक्रम अब समाप्त हो गया था, खाना-पीना करने के बाद अब मेरे पास कुछ भी करने को नहीं था। मुझे संध्या का साथ चाहिए था, लेकिन यहाँ पर लोगों का जमावड़ा था। जो भी अंतरंगता और एकांत मुझे उसके साथ मिला था, वह सिर्फ रात को सोते समय ही था। मैं उसके साथ कहीं खुले में या अकेले बिताना चाहता था। मैं अपनी कुर्सी से उठ कर अन्दर के कमरे में गया, जहाँ संध्या थी। मैंने देखा कि अनगिनत औरतें और लड़कियां उसको घेर कर बैठी हुई थी। मुझे उनको देख कर चिढ़ हो गई। मुझे वहाँ दरवाज़े पर सभी ने खड़ा हुआ देखा … संध्या ने भी। मैंने उसको इशारे से मेरी ओर आने को कहा। संध्या उठी, और अपना पल्लू ठीक करती हुई मेरी तरफ आई।

“जी?”

“संध्या … कहीं बाहर चलते हैं।”

“कहाँ?”

“मुझे क्या मालूम? आपका शहर है …. आपको जो ठीक लगे, मुझे दिखाइए ….”

“लेकिन, यहाँ पर इतने सारे लोग हैं …”

“अरे! इनसे तो आप रोज़ मिलती होंगी। मुझे आपके साथ कुछ अकेले में समय चाहिए …”

संध्या के गाल यह सुन कर सुर्ख लाल हो गए। संभवतः, उसको रात और सुबह कि याद हो आई हो।

“जी, ठीक है।”

“और एक बात, यह साड़ी उतार दीजिए।”

“जी???!”

“अरे! मेरा मतलब है कि शलवार कुर्ता पहन कर आओ। चलने फिरने में आसानी रहेगी। हाँ, मुझे आप शलवार कुर्ते में ज्यादा पसंद हैं ….” मैंने उसको आँख मारते हुए कहा।

“जी, ठीक है। मैं थोड़ी देर में बाहर आ जाऊंगी।”

मुझे नहीं पता कि उसने शलवार कुर्ता पहन कर बाहर आने के लिए अपने घर में क्या क्या झिक झिक करी होगी, लेकिन क्योंकि यह आदेश मेरी तरफ से आया था, कोई उसका विरोध नहीं कर सका। संध्या ने हल्के हरे रंग का बूटेदार शलवार कुर्ता और उससे मिलान किया हुआ दुपट्टा पहना हुआ था। उसके ऊपर उसने लगभग मिलते रंग का स्वेटर पहना हुआ था। इस पहनावे और लाल रंग की चूड़ियों में वह बला की खूबसूरत लग रही थी। इस समय दोपहर के डेढ़ बज रहे थे। ठंड और दोपहर होने के कारण आस पास कोई लोग भी नहीं दिखाई दे रहे थे। अच्छी बात यह थी कि ठंडी हवा नहीं चल रही थी, नहीं तो यूँ बाहर घूमने से तबीयत भी बिगड़ सकती थी। संध्या मुझे मुख्य सड़क से पृथक, पहाड़ी रास्तों से प्रकृति के सुन्दर दृश्यों के दर्शन करने को ले गई। कुछ देर तक पैदल चढ़ाई करनी पड़ी, लेकिन एक समय पर समतल मैदान जैसा भी आ गया। संध्या ने बताया कि इसको बुग्याल बोलते हैं। इन चौरस घास के मैदानों में हरी घास और मौसमी फूलों कि मानो एक कालीन सी बिछी हुई रहती है। यहाँ से चारों तरफ दूर-दूर तक ऊंचे-ऊंचे देवदार और चीड के पेड़ देखे जा सकते थे।

“क्या मस्त जगह है …” कहते हुए मैंने संध्या का हाथ थाम लिया, और उसने भी मेरा हाथ दृढ़ता से पकड़ लिया।

“मैं आपको अपनी सबसे फेवरिट जगह ले चलूँ?” संध्या ने उत्साह के साथ पूछा।

“बिलकुल! आपकी फेवरिट जगह से कम तो किसी भी जगह नहीं जाऊँगा! इसीलिए तो आपके साथ बाहर आया हूँ।”

इस समय अचानक ही किसी तरफ से करारी ठंडी हवा चली।

“अगर ऐसे ही हवा चलती रही तो ठंडक बढ़ जाएगी” मैंने कहा। संध्या ने सहमति में सर हिलाया।

“हाँ, इस समय तक पहाड़ों पर बर्फ गिरनी शुरू हो जाती है…. लेकिन अभी ठीक है… चार बजे से पहले लौट चलेंगे लेकिन, नहीं तो बहुत ठंड हो जाएगी।” उसने कहा, और बुग्याल में एक तरफ को चलती रही। कोई पांच-छः मिनट चलने पर मुझे सामने की तरफ एक झील दिखने लगी। उसके बगल में ही एक झोपड़ा भी बना हुआ था। संध्या वहां जा कर रुक गई। पास से देखने पर यह झोपड़ा नहीं, एक घर जैसा लग रहा था। कहने को तो एकदम वीरान जगह थी, लेकिन कितनी रोमांटिक! एक भी आदमी नहीं था आस पास।

“यहाँ मैं बचपन में कई बार आती थी …. यह घर मेरे दादाजी ने बनवाया था, लेकिन दादाजी के बाद पिताजी नीचे कस्बे में रहने लगे - वहां हमारी खेती है। पिछले दस साल से हम लोग यहाँ नहीं रहते हैं। लेकिन मैं यहाँ अक्सर आती हूँ। मुझे यह जगह बहुत पसंद है।”

“क्या बात है!” मैंने एक बाल-सुलभ उत्साह से कहा, “मैंने इससे सुन्दर जगह नहीं देखी …” मैंने रुकते हुए कहा, “और मैंने आपसे सुन्दर लड़की आज तक नहीं देखी।”

संध्या उत्तर में हल्के से मुस्कुरा दी। घर के सामने, झील के लगा हुआ पत्थर का बैठने का स्थान बना हुआ था। हम दोनों उसी पर बैठ गए। इसी समय बदल का एक छोटा सा टुकड़ा सूरज के सामने आ गया और एक ताज़ी बयार भी चली। मौसम एकदम से रोमांटिक हो चला। ऐसे में एक सुन्दर सी झील के सामने, अपनी प्रेमिका के साथ बैठ कर आनंद उठाना अत्यंत सुखद था।

“संध्या, आई ऍम कम्प्लीटली इन लव विद यू! जब मैंने आपको पहली बार स्कूल जाते हुए देखा, तभी से।” मुझे लगा कि आज यह पहला मौका है जब हम दोनों पहली बार एक दूसरे से खुल कर बात चीत कर सकते हैं। तो इस अवसर को मैं गंवाना नहीं चाहता था।

“मुझे कभी कभी शक भी हुआ कि कहीं यह ऐसे ही लालसा तो नहीं – लेकिन मेरे मन ने मुझे हर बार बस यही कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। और यह कि मुझे आपसे वाकई बेहद बेहद मोहब्बत है।”

संध्या मेरी हर बात को अपनी मनमोहक भोली मुस्कान के साथ सुन रही थी। मैंने उसके हाथ को अपने हाथ में ले लिया और कहना जारी रखा,

“और मैं आपसे वादा करता हूँ कि मैं आपको बहुत खुश रखूंगा, और आपके हर सपने को पूरा करूंगा।”

“मेरा सपना तो आप हैं! आप जिस दिन हमारे घर आये, उस दिन से आज तक मैं हर दिन यही सोचती हूँ कि ये कोई सपना तो नहीं! वो दिन, वो पल इतना अद्भुत था, कि मेरी बोलती ही बंद हो गई थी।”

“मेरा भी यही हाल था, जब मैंने आपको पहली बार देखा। मैंने उसी क्षण में प्यार महसूस किया।”

हम दोनों कुछ पल यूँ ही चुप-चाप बैठे रहे, फिर मैंने पूछा,

“संध्या, आपसे एक बात पूछूं? व्हाट डू वांट इन लाइफ?”

मेरे इस प्रश्न पर संध्या ने पहली बार मेरी आँखों में आँखे डाल कर देखा। वह कुछ देर सोचती रही, और फिर बोली,

“हैप्पीनेस!”

“और आप हैप्पी कैसे होंगी?”

“मेरी ख़ुशी आपसे है – आप मेरे जीवन में आ गए, और मैं खुश हो गई। आपका प्यार और आपको प्यार करना मुझे ख़ुश रखेगा। आप मेरे सब कुछ है – आपके साथ मैं बहुत सेफ हूँ! ये बात मुझे बहुत ख़ुश करती है। और यह भी कि मेरा परिवार साथ में हो और सुरक्षित, स्वस्थ हो।”

संध्या की भोली बातें सुनकर मैं भाव-विभोर हो गया।

“मैं आपको बहुत प्यार करूंगा! आई विल कीप यू एंड योर फॅमिली सेफ! एंड आई विल बी एवरीथिंग एंड मोर फॉर यू!”

“यू आलरेडी आर दी होल वर्ल्ड फॉर मी!”

संध्या की इस बात पर मैंने उसको जोर से भींच कर अपने गले से लगा लिया। हम लोग काफी देर तक ऐसे ही एक दूसरे को पकड़े हुए बातें करते रहे – कोई भी विशेष बात नहीं। बस मैंने उसको अपने रोज़मर्रा के काम, बैंगलोर शहर, और उत्तराँचल में जो भी जगहें देखीं, उसके बारे में देर तक बताता रहा। संध्या ने भी मुझे अपने परिवार, बचपन, और अन्य विषयों के बारे में बताया। मेरे बचपन में कोई भी ऐसी बात नहीं हुई जिसको मैं वहाँ बताता, और ऐसे अच्छे मौसम में बने मूड का सत्यानाश करता। संध्या बहुत ख़ुश थी। वह अभी खुल कर मेरे साथ बात कर रही थी, और लगातार मुस्कुरा रही थी। मैं निश्चित रूप से कह सकता था कि वह हमारी इस नयी अंतरंगता को पसंद कर रही थी। जब हम एक रिश्ते में शुरूआती नाज़ुक दौर – जिसमें एक दूसरे को जानने कि प्रक्रिया चल रही होती है – को पार कर लेते हैं, तो उसमें एक प्रकार की शांति और ताजगी आ जाती है। इस समय हम दोनों अपने संबंध के दूसरे चरण में थे, जिसमें हम हमारे मासूम प्रेम का कोमल एहसास था।
 

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