Elite Leader
LEVEL 5
80 XP
"मतलब! शीतल .... शीतल पर तुझसे ज़्यादा विश्वास नही है रेशू" ममता ने क़ुबूल किया वरन उसे करना पड़ता है. किसी मा को अपने बच्चो से ज़्यादा दूसरो के बच्चो पर भरोसा हो, ऐसा कैसे संभव हो सकता है. हलाकी यह ज़रूर असंभव था कि वह इससे अधिक और कुच्छ भी अपने पुत्र से साथ सांझा नही कर सकती थी बल्कि करना ही नही चाहती थी. उसे तो अब याद भी नही कि अंतिम बार कब वह ऋषभ के शारीरिक संपर्क में आई थी. शारीरिक संपर्क का यह अर्थ कतयि नही कि उनके दरमियाँ कोई अमर्यादित, अनैतिक कार्य संपन्न हुवा हो अपितु एक मा का अपने बेटे के प्रति निश्छल प्रेम और बेटे का अपनी मा के प्रति मूर्खता-पूर्ण लाड. ऐसा भी नही था कि ममता ने कभी अपने शरीर पर ऋषभ के हाथो का स्पर्श ही ना महसूस किया हो , या उसने खुद अपने पुत्र के जिस्म को ना छुआ हो. एक निस्चित उमर तक उन दोनो के बीच नियमित आलिंगन, स्नान, अठखेलियाँ व बधाई चुंबनो का आदान-प्रदान होता रहा था परंतु वो बीता वक़्त उसके पुत्र की ना-समझी का अविस्मरणीय दौर था और जिसमें ना तो किसी मा को अपनी मर्यादाओं का ख़याल रहता है और उसके पुत्र के लिए तो उसके संसार की शुरूवात ही उसकी मा के नाम से होती है.
"ह्म्म्म" ममता के टुकड़ो में बाते कथन को सुनकर ऋषभ ने एक गहरी सान ली और अपने दोनो हाथो को कैंची के आकार में ढाल कर उसके अत्यंत सुंदर चेहरे को बड़ी गंभीरता-पूर्वक निहारने लगता है परंतु अब वह चेहरा सुंदर कहाँ रह गया था. कभी मायूस तो कभी व्याकुल, कभी विचार-मग्न तो कभी खामोश, कभी ख़ौफ़ से आशंकित तो कभी लाज की सुर्ख लालिमा से प्रफुल्लित. हां! मुख मंडल पर कुच्छ कम उत्तेजना के लक्षण अवश्य शामिल थे और जो ऋषभ की अनुभवी निगाहों से छुप भी नही पाते मगर चेहरे का बेदाग निखार, शुद्ध कजरारी आँखें, मूंगिया रंगत के भरे हुवे होंठ और उनकी क़ैद में सज़ा पाते अत्यधिक सफेद दाँत, तोतपुरि नाक और अधेड़ यौवन के बावजूद खिले-खिले तरो-ताज़ा गालो के आंकलन हेतु अनुभव की ज़रूरत कहाँ आन पड़नी थी और पहली बार उसने जाना कि किसी औरत के सही मूल्यांकन की शुरूवात ना तो उसके गोल मटोल मम्मो से आरंभ होती है और ना ही उभरे हुवे मांसल चूतडो से, चेहरा हक़ीक़त में उसके दिल का आईना होता है.
"तुमने दोबारा झूट बोला मा ?" उसने बताया.
"दोबारा! नही नही! मैने कहाँ! मैने मैने कोई झूट नही बोला रेशू, मैं सच कह रही हूँ" ममता हकला गयी, उसे अपने पुत्र द्वारा ऐसे अट-पटे प्रश्न के पुच्छे जाने की बिल्कुल उम्मीद नही थी, वह तो जैसे उसका मन पढ़ते जा रहा था.
"तो फिर सच कहो ?" इस बार ऋषभ की आँखों में क्रोध शामिल था और उनका जुड़ाव भी ठीक ममता की तीव्रता से हिलती पूतियों से था. एक यौन चिकित्सक किसी मनोचिकित्सक से कम नही होता क्यों कि यौन रोग के मरीज़ अक्सर शरम-संकोच से कयि ऐसे राज़ छुपाने का प्रयत्न करते हैं जिनके सर्व-साधारण होने के उपरांत उन्हे अपनी बदनामी का डर सताता है. ऋषभ बखूबी जानता था कि उसकी मा किसी विशेष परिस्थिति के बगैर कभी उससे अपनी पीड़ा का उल्लेख नही करेगी और वह उसी विशेष परिस्थिति की मजबूत बुनियाद तैयार करने में जुटा हुवा था. जिस तरह ग़लती हो जाने के पश्चात बड़े-बुज़ुर्ग अपने बच्चे पर क्रोध जता कर उससे पुछ-ताछ किया करते हैं और अपरिपक्व वो बच्चा कभी भय से तो कभी झुंझलाहट में उस ग़लती से संबंधित सारी जानकारी उगल देता है. ऋषभ का क्रोध बनावटी अवश्य था मगर ममता कोई अपरिपक्व बच्ची तो ना थी. कड़ी मेहनत के बाद फल की प्राप्ति होती है और जिसकी शुरूवात वह कर चुका था किंतु फल मिलने में अभी काफ़ी वक़्त लगेगा इस बात से भी वह अच्छी तरह परिचित था.
"क्या मतलब" वह अपनी पुतलियों को तिरच्छा करते हुवे बोली ताकि सूर्य की अखद तपन समान ना झेल पाने योग्य अपने पुत्र की आँखों के एक-टक संपर्क से अपना बचाव कर सके.
"मैने सच ही तो कहा है रेशू, मुझे उस शीतल पर अपने बेटे से ज़्यादा भरोसा क्यों होगा भला ?" उसने ऐसा तथ्य पेश किया जिसमें ऋषभ के लिए विचारने लायक प्रश्न भी शामिल था.
"फिर सीधे मुझसे ही मिलने आ जाती मा! तुम्हे शीतल का बहाना लेने की कोई आवश्यकता नही थी" ऋषभ ने मुस्कुरा कर रहा, ममता के सवाल ने उसका मुश्क़िल काम आसान करने में निर्णायक भूमिका निभाई थी.
"नही नही! तुझसे कैसे, तू! तू तो मेरा बेटा है रेशू और मैं ....." ममता के कथन को काट-ते हुवे ऋषभ बीच में भी बोल पड़ता है.
"इस कुर्सी पर बैठने के बाद अब मैं तुम्हारा बेटा नही रह गया मा! मैं सिर्फ़ एक सेक्षलॉजिस्ट हूँ और मेरा कर्म! मेरा कार्य-क्षेत्र मुझे इसकी इजाज़त नही देता कि मैं तुम्हे भी अपनी मा समझू" उसके धारा प्रवाह लफ्ज़ बेहद प्रभावी और जिसके प्रभाव से वाकयि ममता अचंभित रह जाती है.
"रेशू ने ठीक कहा! मैं एक मरीज़ की ही हैसियत से तो यहाँ आई थी बस ड्र. शीतल की जगह मेरा सामना मेरे बेटे से हो गया, क्या यही अंतर मुझे रोक रहा है कि मैं ड्र. ऋषभ को अपना बेटा मान रही हूँ ? अरे! माँ कहाँ रही हूँ वह सच में मेरा बेटा है" ममता ने मन ही मन सोचा, अभी भी संभावनाए उतनी प्रबल नही थी कि वह निर्लज्जता-पूर्ण तरीके से अपने पुत्र के समक्ष अपनी काम-पीपासा का बखान कर पाती.
"ह्म्म्म" ममता के टुकड़ो में बाते कथन को सुनकर ऋषभ ने एक गहरी सान ली और अपने दोनो हाथो को कैंची के आकार में ढाल कर उसके अत्यंत सुंदर चेहरे को बड़ी गंभीरता-पूर्वक निहारने लगता है परंतु अब वह चेहरा सुंदर कहाँ रह गया था. कभी मायूस तो कभी व्याकुल, कभी विचार-मग्न तो कभी खामोश, कभी ख़ौफ़ से आशंकित तो कभी लाज की सुर्ख लालिमा से प्रफुल्लित. हां! मुख मंडल पर कुच्छ कम उत्तेजना के लक्षण अवश्य शामिल थे और जो ऋषभ की अनुभवी निगाहों से छुप भी नही पाते मगर चेहरे का बेदाग निखार, शुद्ध कजरारी आँखें, मूंगिया रंगत के भरे हुवे होंठ और उनकी क़ैद में सज़ा पाते अत्यधिक सफेद दाँत, तोतपुरि नाक और अधेड़ यौवन के बावजूद खिले-खिले तरो-ताज़ा गालो के आंकलन हेतु अनुभव की ज़रूरत कहाँ आन पड़नी थी और पहली बार उसने जाना कि किसी औरत के सही मूल्यांकन की शुरूवात ना तो उसके गोल मटोल मम्मो से आरंभ होती है और ना ही उभरे हुवे मांसल चूतडो से, चेहरा हक़ीक़त में उसके दिल का आईना होता है.
"तुमने दोबारा झूट बोला मा ?" उसने बताया.
"दोबारा! नही नही! मैने कहाँ! मैने मैने कोई झूट नही बोला रेशू, मैं सच कह रही हूँ" ममता हकला गयी, उसे अपने पुत्र द्वारा ऐसे अट-पटे प्रश्न के पुच्छे जाने की बिल्कुल उम्मीद नही थी, वह तो जैसे उसका मन पढ़ते जा रहा था.
"तो फिर सच कहो ?" इस बार ऋषभ की आँखों में क्रोध शामिल था और उनका जुड़ाव भी ठीक ममता की तीव्रता से हिलती पूतियों से था. एक यौन चिकित्सक किसी मनोचिकित्सक से कम नही होता क्यों कि यौन रोग के मरीज़ अक्सर शरम-संकोच से कयि ऐसे राज़ छुपाने का प्रयत्न करते हैं जिनके सर्व-साधारण होने के उपरांत उन्हे अपनी बदनामी का डर सताता है. ऋषभ बखूबी जानता था कि उसकी मा किसी विशेष परिस्थिति के बगैर कभी उससे अपनी पीड़ा का उल्लेख नही करेगी और वह उसी विशेष परिस्थिति की मजबूत बुनियाद तैयार करने में जुटा हुवा था. जिस तरह ग़लती हो जाने के पश्चात बड़े-बुज़ुर्ग अपने बच्चे पर क्रोध जता कर उससे पुछ-ताछ किया करते हैं और अपरिपक्व वो बच्चा कभी भय से तो कभी झुंझलाहट में उस ग़लती से संबंधित सारी जानकारी उगल देता है. ऋषभ का क्रोध बनावटी अवश्य था मगर ममता कोई अपरिपक्व बच्ची तो ना थी. कड़ी मेहनत के बाद फल की प्राप्ति होती है और जिसकी शुरूवात वह कर चुका था किंतु फल मिलने में अभी काफ़ी वक़्त लगेगा इस बात से भी वह अच्छी तरह परिचित था.
"क्या मतलब" वह अपनी पुतलियों को तिरच्छा करते हुवे बोली ताकि सूर्य की अखद तपन समान ना झेल पाने योग्य अपने पुत्र की आँखों के एक-टक संपर्क से अपना बचाव कर सके.
"मैने सच ही तो कहा है रेशू, मुझे उस शीतल पर अपने बेटे से ज़्यादा भरोसा क्यों होगा भला ?" उसने ऐसा तथ्य पेश किया जिसमें ऋषभ के लिए विचारने लायक प्रश्न भी शामिल था.
"फिर सीधे मुझसे ही मिलने आ जाती मा! तुम्हे शीतल का बहाना लेने की कोई आवश्यकता नही थी" ऋषभ ने मुस्कुरा कर रहा, ममता के सवाल ने उसका मुश्क़िल काम आसान करने में निर्णायक भूमिका निभाई थी.
"नही नही! तुझसे कैसे, तू! तू तो मेरा बेटा है रेशू और मैं ....." ममता के कथन को काट-ते हुवे ऋषभ बीच में भी बोल पड़ता है.
"इस कुर्सी पर बैठने के बाद अब मैं तुम्हारा बेटा नही रह गया मा! मैं सिर्फ़ एक सेक्षलॉजिस्ट हूँ और मेरा कर्म! मेरा कार्य-क्षेत्र मुझे इसकी इजाज़त नही देता कि मैं तुम्हे भी अपनी मा समझू" उसके धारा प्रवाह लफ्ज़ बेहद प्रभावी और जिसके प्रभाव से वाकयि ममता अचंभित रह जाती है.
"रेशू ने ठीक कहा! मैं एक मरीज़ की ही हैसियत से तो यहाँ आई थी बस ड्र. शीतल की जगह मेरा सामना मेरे बेटे से हो गया, क्या यही अंतर मुझे रोक रहा है कि मैं ड्र. ऋषभ को अपना बेटा मान रही हूँ ? अरे! माँ कहाँ रही हूँ वह सच में मेरा बेटा है" ममता ने मन ही मन सोचा, अभी भी संभावनाए उतनी प्रबल नही थी कि वह निर्लज्जता-पूर्ण तरीके से अपने पुत्र के समक्ष अपनी काम-पीपासा का बखान कर पाती.
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