एक बार मस्तराम की किताब मेरे एक दोस्त ने चुपके से क्या पढ़ा दी पढ़ाई में तो अब मन लगता ही नही था, जब देखो तब मन अश्लील साहित्य, गंदी कहानियां, अश्लील चुटकुले एवं कविताएं खोजता रहता था, इंटरनेट का चलन उस वक्त था नही, किसी तरह डर डर के जुगाड़ करके ये सब चीज़ें खरीदकर, मांगकर इकट्ठी करते, पढ़ते और वासना की दुनिया में डूब जाते।
मैं घर से दूर बनारस में रहकर पढ़ाई कर रहा था, अरविंद नाम है मेरा, जब घर से यहां आया था तो ऐसा नही था, बस दोस्तो की संगत का असर था, पर अब तो जैसे इनसब चीजों की आदत पड़ गयी थी, कुछ दिन तक कुछ नया न मिले तो मन बेचैन होने लगता था, आजतक हकीकत में स्त्री की योनि सिर्फ एक दो बार दोस्तों द्वारा छुप छुप कर लाये गए ब्लू फिल्म में ही देखी थी, मन बहुत करता था हकीकत में योनि छूने और भोगने के, पर रिस्क लेने की हिम्मत अभी तक नही आई थी, इतना जरूर था कि मस्तराम की किताबें पढ़कर नीयत घर की औरतों के प्रति बदल गयी थी, कभी कभी सोचता तो बहुत उत्तेजित हो जाता पर अगले ही पल ग्लानि से भर भी जाता था। पर मन नही मानता था वो तो कभी कभी ग्लानि से ऊपर उठकर सोचने लगता था कि घर में ही मिल जाए तो कितना मजा आ जाए, पर ये असंभव चीज़ थी, इसलिए बस ये सिर्फ कल्पना में ही थी और हाथ का ही सहारा था।
साल में दो बार मैं घर जाता था, एक गर्मियों की छुट्टी में दूसरा शर्दियों मे छुट्टी लेकर, घर में सिर्फ माँ और दादा दादी थे, पिताजी दुबई में रहते थे साल में एक बार बस एक महीने के लिए आते थे, माँ खेती बारी, घर को और दादा दादी को संभालती थी, अपने नाम "अर्चना" की तरह वो प्यारी तो थी ही साथ ही साथ सबका ख्याल रखने वाली भी थी, खेतों में काम करके भी उनके गोरे रंग पे ज्यादा कोई फर्क नही पड़ा था, वो बहुत ज्यादा सुंदर तो नही थी पर किसी से कम भी नही थी, शरीर भरा हुआ था, लगभग सारा दिन काम करने से अनावश्यक चर्बी शरीर पर नही थी, उनके शरीर को कभी वासना की नज़र से न देखने पर उनका सही फिगर तो नही बता सकता पर अंदाज़े से कहा जाए तो 34-32-36 तो था ही।
इस बार सर्दियों में जब घर आया तो आदत के अनुसार अब अश्लील साहित्य पढ़ने का मन हुआ, जल्दबाजी में खरीदकर लाना भूल गया, जो पड़ी थी वो सब पढ़ी हुई थी, अब यहां गांव में मिले कहाँ, किसके पास जाऊं, कहाँ मिलेगी? डरते डरते एक दो पुरानी बुक स्टाल पर पूछा तो उन्होंने मुझे अजीब नज़रों से देखा फिर मेरी हिम्मत ही नही हुई, गांव की दुकानें थी यही कहीं आते जाते किसी दुकानदार ने अगर गाँव के किसी आदमी से जिक्र कर दिया तो शर्मिंदा होना पड़ेगा, इसलिए कुछ दिन मन मारकर बिता दिए पर मन बहुत बेचैन हो उठा था।
एक दिन मां ने मुझसे कहा कि कच्चे मकान में पीछे वाले कमरे के ऊपर बने कोठे पर पुरानी मटकी में गुड़ का राब भरके रखा है जरा उसको उतार दे (राब - गन्ने के रस का शहद के समान गाढ़ा रूप, जो गन्ने से गुड़ बनाते वक्त गाढ़े उबलते हुए गन्ने के रस को अलग से निकाल कर खाने के लिए रख लिया जाता है, इसको गुड़ का पिघला हुआ रूप कह सकते हो)
मैंने सीढ़ी लगाई और कोठे पर चढ़ गया, वहां अंधेरा था बस एक छोटे से झरोखे से हल्की रोशनी आ रही थी, टार्च मैं लेकर आया था, टॉर्च जला कर देखा तो मटकी में रखा राब दिख गया, पर मुझे वहां बहुत सी पुरानी किताबों का गट्ठर भी दिखा, मैंने वो राब की मटकी नीचे खड़ी अपनी माँ को सीढ़ी पर थोड़ा नीचे उतरकर पकड़ाया और बोला- अम्मा यहां कोठे पर किताबें कैसी पड़ी हैं?
मां- वो तो बहुत पुरानी है हमारे जमाने की, इधर उधर फेंकी रहती थी तो मैंने बहुत पहले सारी इकट्ठी करके यहीं रख दी थी, तेरे कुछ काम की हैं तो देख ले।
ये कहकर मां चली गयी तो मैं फिर कोठे पर चढ़कर अंधेरे में रखा वो किताबों का गट्ठर लेकर छोटे से झरोखे के पास बैठ गया, उसमे कई तरह की पुरानी कॉपियां और किताबें थी, पुराने जमाने की कजरी, लोकगीत और घर का वैध, घरेलू नुस्खे, मैं सारी किताबों को उलट पुलट कर देखता जा रहा था कि अचानक मेरे हाँथ में जो किताब आयी उसके कवर पेज पर लिखा था - "कोकशास्त्र", ये देखकर मेरी आँखें चमक गयी, कोकशास्त्र के बारे में मैं जानता था, इसमें काम क्रीड़ा के विषय में बताया गया होता है और उत्तेजना ये सोचकर हो रही थी कि ये पुरानी किताब है तो मतलब जरूर ये मेरे अम्मा बाबू के शादी के वक्त की होगी, बाबू ने खरीदी होगी, शायद अम्मा को ये याद नही रहा होगा कि ऐसी किताब भी इस गट्ठर में है और उन्होंने मुझे ये किताबों का पुराना गठ्ठर देख लेने को बोल दिया।
जैसे ही मैंने उस किताब के बीच के कुछ पन्नों को खोला तो आश्चर्य से मेरी आँखें और खुल गयी और मैंने किताब को झरोखे के और नजदीक ले जाकर ध्यान से देखा तो वो गंदी कहानियों की किताब थी जिसपर बाद में कोकशास्त्र का कवर अलग से चिपकाया गया था, मेरी बांछे खिल गयी, मारे उत्तेजना के मै
मैं घर से दूर बनारस में रहकर पढ़ाई कर रहा था, अरविंद नाम है मेरा, जब घर से यहां आया था तो ऐसा नही था, बस दोस्तो की संगत का असर था, पर अब तो जैसे इनसब चीजों की आदत पड़ गयी थी, कुछ दिन तक कुछ नया न मिले तो मन बेचैन होने लगता था, आजतक हकीकत में स्त्री की योनि सिर्फ एक दो बार दोस्तों द्वारा छुप छुप कर लाये गए ब्लू फिल्म में ही देखी थी, मन बहुत करता था हकीकत में योनि छूने और भोगने के, पर रिस्क लेने की हिम्मत अभी तक नही आई थी, इतना जरूर था कि मस्तराम की किताबें पढ़कर नीयत घर की औरतों के प्रति बदल गयी थी, कभी कभी सोचता तो बहुत उत्तेजित हो जाता पर अगले ही पल ग्लानि से भर भी जाता था। पर मन नही मानता था वो तो कभी कभी ग्लानि से ऊपर उठकर सोचने लगता था कि घर में ही मिल जाए तो कितना मजा आ जाए, पर ये असंभव चीज़ थी, इसलिए बस ये सिर्फ कल्पना में ही थी और हाथ का ही सहारा था।
साल में दो बार मैं घर जाता था, एक गर्मियों की छुट्टी में दूसरा शर्दियों मे छुट्टी लेकर, घर में सिर्फ माँ और दादा दादी थे, पिताजी दुबई में रहते थे साल में एक बार बस एक महीने के लिए आते थे, माँ खेती बारी, घर को और दादा दादी को संभालती थी, अपने नाम "अर्चना" की तरह वो प्यारी तो थी ही साथ ही साथ सबका ख्याल रखने वाली भी थी, खेतों में काम करके भी उनके गोरे रंग पे ज्यादा कोई फर्क नही पड़ा था, वो बहुत ज्यादा सुंदर तो नही थी पर किसी से कम भी नही थी, शरीर भरा हुआ था, लगभग सारा दिन काम करने से अनावश्यक चर्बी शरीर पर नही थी, उनके शरीर को कभी वासना की नज़र से न देखने पर उनका सही फिगर तो नही बता सकता पर अंदाज़े से कहा जाए तो 34-32-36 तो था ही।
इस बार सर्दियों में जब घर आया तो आदत के अनुसार अब अश्लील साहित्य पढ़ने का मन हुआ, जल्दबाजी में खरीदकर लाना भूल गया, जो पड़ी थी वो सब पढ़ी हुई थी, अब यहां गांव में मिले कहाँ, किसके पास जाऊं, कहाँ मिलेगी? डरते डरते एक दो पुरानी बुक स्टाल पर पूछा तो उन्होंने मुझे अजीब नज़रों से देखा फिर मेरी हिम्मत ही नही हुई, गांव की दुकानें थी यही कहीं आते जाते किसी दुकानदार ने अगर गाँव के किसी आदमी से जिक्र कर दिया तो शर्मिंदा होना पड़ेगा, इसलिए कुछ दिन मन मारकर बिता दिए पर मन बहुत बेचैन हो उठा था।
एक दिन मां ने मुझसे कहा कि कच्चे मकान में पीछे वाले कमरे के ऊपर बने कोठे पर पुरानी मटकी में गुड़ का राब भरके रखा है जरा उसको उतार दे (राब - गन्ने के रस का शहद के समान गाढ़ा रूप, जो गन्ने से गुड़ बनाते वक्त गाढ़े उबलते हुए गन्ने के रस को अलग से निकाल कर खाने के लिए रख लिया जाता है, इसको गुड़ का पिघला हुआ रूप कह सकते हो)
मैंने सीढ़ी लगाई और कोठे पर चढ़ गया, वहां अंधेरा था बस एक छोटे से झरोखे से हल्की रोशनी आ रही थी, टार्च मैं लेकर आया था, टॉर्च जला कर देखा तो मटकी में रखा राब दिख गया, पर मुझे वहां बहुत सी पुरानी किताबों का गट्ठर भी दिखा, मैंने वो राब की मटकी नीचे खड़ी अपनी माँ को सीढ़ी पर थोड़ा नीचे उतरकर पकड़ाया और बोला- अम्मा यहां कोठे पर किताबें कैसी पड़ी हैं?
मां- वो तो बहुत पुरानी है हमारे जमाने की, इधर उधर फेंकी रहती थी तो मैंने बहुत पहले सारी इकट्ठी करके यहीं रख दी थी, तेरे कुछ काम की हैं तो देख ले।
ये कहकर मां चली गयी तो मैं फिर कोठे पर चढ़कर अंधेरे में रखा वो किताबों का गट्ठर लेकर छोटे से झरोखे के पास बैठ गया, उसमे कई तरह की पुरानी कॉपियां और किताबें थी, पुराने जमाने की कजरी, लोकगीत और घर का वैध, घरेलू नुस्खे, मैं सारी किताबों को उलट पुलट कर देखता जा रहा था कि अचानक मेरे हाँथ में जो किताब आयी उसके कवर पेज पर लिखा था - "कोकशास्त्र", ये देखकर मेरी आँखें चमक गयी, कोकशास्त्र के बारे में मैं जानता था, इसमें काम क्रीड़ा के विषय में बताया गया होता है और उत्तेजना ये सोचकर हो रही थी कि ये पुरानी किताब है तो मतलब जरूर ये मेरे अम्मा बाबू के शादी के वक्त की होगी, बाबू ने खरीदी होगी, शायद अम्मा को ये याद नही रहा होगा कि ऐसी किताब भी इस गट्ठर में है और उन्होंने मुझे ये किताबों का पुराना गठ्ठर देख लेने को बोल दिया।
जैसे ही मैंने उस किताब के बीच के कुछ पन्नों को खोला तो आश्चर्य से मेरी आँखें और खुल गयी और मैंने किताब को झरोखे के और नजदीक ले जाकर ध्यान से देखा तो वो गंदी कहानियों की किताब थी जिसपर बाद में कोकशास्त्र का कवर अलग से चिपकाया गया था, मेरी बांछे खिल गयी, मारे उत्तेजना के मै